तपस्या – डॉ. पारुल अग्रवाल

आज सब जगह तन्वी की कला प्रदर्शनी की चर्चा थी। दूर दूर से लोग उसके द्वारा लगाई पेटिंग्स को देखने आ रहे थे। उसकी चित्रकारी में जिस तरह से स्त्री के मनोभावों को उकेरा गया था वो अपनेआप में काबिले तारीफ था। प्रदर्शनी की चर्चा अगले दिन समाचार पत्रों का तो हिस्सा बनी ही थी, साथ-साथ राज्य के कला संस्कृति विभाग ने भी प्रदेश के सर्वोच्च उभरते कलाकार के लिए तन्वी का ही चयन किया था। निर्धारित तिथि पर तन्वी अपने माता पिता के साथ सम्मान समारोह के लिए पहुंच गई थी।

सम्मान समारोह में जैसी ही तन्वी का नाम पुकारा गया,तब तन्वी ने मंच पर सबका आभार जताते हुए कहा कि मैं ये सम्मान स्वयं ना लेकर अपनी मां अनुभा को दिलवाना चाहती हूं क्योंकि वो ही इस सम्मान की असली हकदार हैं, आज तक मेरे हर सुख-दुख में ये मेरी ढाल बनकर खड़ी रही। मेरी तूलिका ने अगर किसी स्त्री के मनोभावों को उकेरा है तो वो मेरी मां है। ये सुनते ही पूरा कक्ष तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया। 

अनुभा को भी मंच पर बुलाया गया।अवार्ड लेते समय अनुभा को लगा आज उसकी बेटी ने उसको ज़िंदगी में लगे सारे घावों पर मरहम लगा दिया ।उसने खुशी खुशी अपनी बेटी के साथ अवार्ड लिया। आज उसके कदम ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे। आज उसकी तपस्या के पूर्ण होने का दिन था। उसके पति अभिनव भी आज अनुभा से आंख नहीं मिला पा रहे थे। आज जो भी कुछ हुआ वो अनुभा के लिए एक सपना था,वैसे भी वक्त के चक्र में फंसकर वो सपने देखना ही भूल गई थी। रात में घर पहुंचने के बाद आज अनुभा की आंखों से नींद कोसों दूर थे। जब नींद नहीं आई तो उसने अपने लिए कॉफी बनाई और बालकनी में अपने पसंदीदा झूले पर आकर बैठ गई। 




उसके आंखों के सामने बीती ज़िंदगी का हर लम्हा चलचित्र की भांति चलना शुरू हो गया। अनुजा दीदी और अनुभा यानी वो दो ही बहनें थीं।दोनों में उम्र का सिर्फ 2 साल का अंतर था ।जहां अनुभा बहुत हो सौम्य और शालीन स्वभाव की थी वहीं अनुजा दीदी जिद्दी और अड़ियल थी। अनुजा दीदी को अपनी किसी भी बात के लिए ना सुनने की आदत नहीं थी। घर की बड़ी बेटी होने के साथ गौर वर्ण और सुंदरता से परिपूर्ण चेहरे ने उनके घमंड को और भी बढ़ा दिया था। घर में उनकी हर बात मानी जाती थी। वो जितनी वाचाल थी,अनुभा उतनी ही अपने खोल में सिमटी रहने वाली।

अनुभा के पास तो दोस्त भी नहीं थे वो तो कॉलेज के कला स्टूडियो जहां वो अपनी पेंटिंग्स बनाया करती थी वहां ज़िंदगी में पहली बार उसकी मानव से दोस्ती हुई थी। हुआ ये था एक बार जब अनुभा अपनी पेंटिंग बनाने में पूरी तरह खोई हुई थी,तब मानव जो कि विज्ञान संकाय का छात्र था वो उधर से निकल रहा था। अनुभा की पेंटिंग देखते ही उसके कदम खुदबखुद वहीं थम गए थे। अनायास ही उसके मुंह से वाह शब्द निकला था। जैसे ही अनुभा ने चौंककर पीछे मुड़कर देखा था तब उसकी तूलिका कुछ रंगों की बौछार से उसका चेहरा और बाल भी रंग गई थी। तब मानव ने हंसते हुए बोला था कि आप वास्तव में बहुत अच्छी कलाकार हैं जो कैनवास के साथ साथ चेहरे को भी सुंदर रंगों से सजाना जानती हैं। मानव की ये बात सुन अनुभा भी अपनी हंसी नहीं रोक पाई थी। बस इस तरह अनुभा को मानव के अंदर अपना एक सबसे अच्छा दोस्त मिला था। दोनों को एक दूसरे के साथ समय बिताना अच्छा लगता था। मन ही मन शायद दोनों एक दूसरे को बहुत पसंद भी करने लगे थे पर प्यार का इज़हार करने से कुछ ही कदम पीछे थे।




उधर अनुभा की जिंदगी में कुछ अप्रयाशित बदलाव आने वाले थे। अनुभा की बड़ी बहन अनुजा दीदी के लिए रिश्ते देखे जा रहे थे और एक बड़े उद्योगपति परिवार के पुत्र के साथ उसका रिश्ता भी तय हो गया था। ये रिश्ता अनुजा की पसंद के खिलाफ था,वैसे भी अनुजा दीदी हमेशा से स्वचंद जीवन जीने वाली एक आवेगपूर्ण नदी के समान थी। अनुजा दीदी अपने ही साथ के किसी लड़के को पसंद करती थी और उसके साथ ही शादी करना चाहती थी पर उसकी जाति और परिवार का स्तर अनुजा से बहुत निम्न था। हमेशा उसकी सारी ज़िद मानने वाले माता-पिता इस बार ये मांग पूरी ना कर पाए। माता-पिता का ये रुख़ देखकर अनुजा दीदी भी शादी के लिए तैयार हो गई। कोई भी आने वाले तूफान की आहट ना सुन पाया। शादी वाले दिन अनुजा दीदी को जैसे ही पार्लर से तैयार होने के बाद कमरे में अकेले बैठाकर जैसे ही अनुभा भी तैयार होने गई तो आकार देखा उसकी अनुजा दीदी वहां नहीं थी। वहां सिर्फ एक चिट्ठी थी जिसमें उसके घर छोड़कर अपनी पसंद के लड़के से शादी की बात लिखी थी। अनुभा ने किसी तरह  बारात की आवभगत में लगे अपने माता पिता को बुलाया और उस भयावह स्थिति से अवगत कराया। उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। ऐसे समय में उन्होंने माफी मांगते हुए लड़के के माता-पिता को सब कुछ बताना उचित समझा। वर पक्ष के कुछ बुजुर्ग और लड़के के पिता मनोहर लाल जी ने फैसला लिया कि वो अपने बेटे अभिनव की शादी घर की छोटी बेटी अनुभा से करने को तैयार हैं क्योंकि इसी में दोनों परिवार की भलाई है। अनुभा के माता- पिता भी इसके लिए एकदम तैयार हो गए। वैसे भी अनुजा और अनुभा में सिर्फ 2 साल का ही अंतर था पर किसी ने भी अनुभा की इच्छा जानने की कोशिश नहीं की उल्टा उसके माता-पिता ने उसको ये बोला कि तेरी किस्मत बहुत अच्छी है जो इतने बड़े उद्योगपति घर में तेरी शादी हो रही है। अनुजा को तो समझ नहीं थी पर तेरे को घर बैठे इतना अच्छा पति मिल रहा है। इस तरह विवाह मंडप पर अनुजा दी की जगह अनुभा दुल्हन के जोड़े में सात फेरे लेकर अभिनव के साथ विदा होकर अपनी ससुराल आ गई।




शादी तो उसकी हो गई थी पर ससुराल में उसका स्वागत घर की महिलाओं द्वारा ताने और रंग-रूप को लेकर की गई छींटा-कशी ने ही किया। कुछ ने बोला जब बड़ी के रंग ढंग ऐसे थे तो छोटी जाने कैसी होगी। जब मुंह दिखाई हुईं तो किसी ने कहा जब हाथों का रंग गहरा है तो चेहरा भी सांवला ही होगा। ये तो बड़ी के चक्कर में इसे इतना सुंदर लड़का मिल गया। इतने पर बीत जाता तो भी ठीक था, रही सही कसर अभिनव के शुष्क व्यवहार ने पूरी कर दी। अभिनव के दिलोदिमाग पर अनुजा की ही छवि बनी थी।वैसे भी जब पति की ही नजरों में पत्नी की कोई इज़्ज़त न हो,तो औरों से क्या उम्मीद कर सकती थी। शादी को थोड़े दिन ही बीते थे कि मायके से मां का फोन आया और अनुभा को एक सप्राइज देने के लिए बुलाया गया। घर पहुंची तो देखा अनुजा दीदी अपने पति शशिकांत के साथ आई हुई थी और मां-पिताजी ने उन्हें माफ भी कर दिया था। सब खुश थे। ऐसे में भी सब लोग साथ साथ अनुजा दीदी ये जताने से ना चुके कि अनुभा किस्मत की कितनी धनी है जो अनुजा से हर मामले में उन्नीस होने के बाद भी वो इतने अमीर परिवार की बहु बन गई। सबकी बातें उसका दिल चीर रही थी। वो जल्द ही वहां से निकलकर अपनी ससुराल आ गई। बहुत दुखी थी वो, कोई नहीं था जिससे वो अपना मन खोलकर रख पाती। ऐसे में उसने एक दोस्त के नाते मानव को फोन लगाया, उसकी आवाज़ से ही मानव उसकी हालत समझ गया। वैसे भी अब तक उसको भी सब पता चल चुका था। उसने अनुभा को समझाते हुए कहा शायद हम दोनों अब अगले जन्म में ही मिलेंगे पर अब मेरे को पूरी उम्मीद है जो ज़िम्मेदारी तुम्हें मिली है तुम उसका मान रखोगी। मानव के ऐसे शब्दों ने अनुभा के अंदर एक नई ऊर्जा का संचार किया। सबसे पहले उसने अपने बीते हुए कल की भुलाकर आने वाले पल के संघर्ष के लिए अपने आपको तैयार किया। अब अनुभा ने बिना किसी उम्मीद के ससुराल के सब लोगो को अपना बनाना शुरू किया,अपने सारे कर्तव्य अच्छे से निभाने शुरू किए। धीरे धीरे सब लोग उससे हिल मिल गए। इसी बीच वो एक प्यारी सी बेटी तन्वी की मां भी बन गई। तन्वी ने उसकी जिंदगी के सारे खालीपन को भर दिया। अभिनव तो भावनात्मक रूप से आज भी उससे ना जुड़े थे पर उसकी बेटी उसके जीने का आधार बन कर आई थी। अब तक वो बस दूसरों के लिए ही जीती आई थी। आज उसकी बेटी ने उसकी जीवन भर की तपस्या का फल उसकी झोली में डाल दिया था। ये सोचते हुए वो तारे भरे आसमान को निहार ही रही थी कि पीछे से किसी ने उसके कंधे पर हाथ रखा, अनुजा ने चौंक कर देखा तो वो अभिनव था। उसके पीछे मुड़ते ही अभिनव ने घुटने के बल बैठते हुए कहा क्या आप मेरे बुढ़ापे में मेरा साथ दोगी। अनुभा उसे आश्चर्य से देख ही रही थी तभी अभिनव ने कहा जल्दी बोली श्रीमती जी मेरे घुटने दर्द करने लगेंगे। अनुजा ने हल्के से मुस्कराते हुए अपनी सहमति दी। अभिनव ने अपने पिछले सारे व्यवहार के लिए अनुभा से माफी मांगते हुए कहा कि तुम्हारी परवरिश और दिए संस्कारों की बदौलत आज तन्वी ने मेरा सर गर्व से ऊंचा कर दिया। आज अनुभा के लिए वास्तव में ज़िंदगी का बहुत खूबसूरत दिन था,जब उसकी तपस्या पूर्ण हुई थी। आज उसकी बेटी ने उसको समाज में ही नहीं वरन् उसके पति की नजरों में इज्ज़त दिला दी थी।

दोस्तों कैसी लगी मेरी कहानी? अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें। कई बार किसी के हिस्से में बहुत त्याग और बलिदान आते हैं पर मेरा मानना है कि सकारात्मक सोच और अपना अच्छा देने की मंशा आखिर में सुखद अनुभूति में अवश्य परिणित होती है।

#इज्ज़त

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

1 thought on “तपस्या – डॉ. पारुल अग्रवाल”

  1. मजबूरी में बने रिश्तों को परवान चढ़ने में मुश्किल भी होती है और समय भी लगता है. हालांकि जब हाथ पकड़ा है तो निभाना चाहिए. कहानी का अंत बहुत तसल्लीबख्श लगा. हार्दिक बधाई…

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