पराया रक्त पक्का रिश्ता ! – मीनू झा

बहुत सुखी परिवार था हमारा …सुंदर सी बेटी,प्यारा सा बेटा,टूट कर चाहने वाला पति उनकी अच्छी सी नौकरी,भरा पूरा परिवार,नौकरी प्राइवेट ही थी पर आवास सहायक सबकी सेवा मिली हुई थी हमें…पर विधि का विधान कहां कोई जानता है पहले से। पदोन्नति के साथ दूसरे जगह स्थानांतरण… हम दोनों के पैर जमीन पर नहीं थे..शायद उसी खुशी को नजर लग गई किसी की—सिसक पड़ी रोहिणी।

आराम से बताओ–सामने बैठी परेशान दमयंती ने उसकी ओर पानी का ग्लास सरकाते हुए कहा

उनकी मां,भाई भावज,छोटा भाई हम सब साथ रहते थे, दोनों बहनें आती जाती रहती थी हमेशा…ये नई जगह जाकर ज्वाइन करने वाले थे उसके बाद वहां बड़ा आवास मिलने पर हम सब साथ जाने वाले थे।

हमने पूजा और उसके बाद एक बड़ा सा फंक्शन रखा था विदाई का…उसके चार दिन बाद इन्हें निकलना था…पर जाने कहां और कैसी चूक हो गई हमसे…जाने के पहले वाली रात ये जो सोए उठे ही नहीं…हमारी तो दुनिया ही उजड़ गई।

मुझे तो अगले एक महीने क्या हुआ क्या नहीं होश ही नहीं…और जब होश में आई तो खुद को बिल्कुल अकेला पाया…दस साल की बेटी..आठ साल का बेटा और सामने पड़ा था आवास खाली करने का नोटिस और एक महीने की सैलरी का चेक…

बबली…दादी चाचा चाची,बुआ सब कहां हैं बेटा??

मम्मा वो तो कब के चले गए??

चले गए… कहां??

पता नहीं मम्मा…वो तो नानाजी है जो हमें खाना खिलाते हैं और आपकी देखभाल करते हैं।

मेरे पिता जिन्हें बेटे बहुओं ने अलग कर दिया था.. मैंने और पति ने सोच रखा था कि बड़ा घर मिलेगा तो वहां उन्हें भी अपने साथ रखेंगे…सिर्फ अपने वृद्ध लाचार पिता ही खड़े मिले उस कठिन समय में मुझे अपने साथ।उनकी पेंशन तो थी..पर वो इतनी ही थी जिससे दो आदमी का गुजारा जैसे तैसे हो पाता…और आवास खाली करने के बाद क्या होता।

मैं उनकी कंपनी गई,उनके एक दो दोस्तों की मदद से खुद के लिए नौकरी की भी याचिका दी..पर मेरे आवेदन को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया,हां आवास की अवधि छह महीने बढ़ा दी गई…उनके एक दो दोस्त आते जाते रहते मिलने,पर अगर बगल के लोगों से अंटशंट सुनने के बाद मैंने उनलोगो को भी हाथ जोड़कर मना कर दिया आने को।



एक दिन दफ्तरों के चक्कर लगाने में चक्कर खाकर गिर पड़ी होश आया तो खुद को एक नर्सिंग होम में पाया..

बधाई हो…मां बनने वाली हो??–कैसे मोड़ पर खड़ा कर गया था ईश्वर खुश होने की वजह थी..पर उपाय नहीं था।

मजबूर होकर एक ही शहर में रह रहे सास देवर ननद सबको कलेजे पर पत्थर रखकर कहा था–

मैं ना सही..बच्चे तो आपके घर के है,जब तक मैं इनके लायक अच्छी व्यवस्था नहीं कर लेती आपलोग दोनों को आसरा दे दें

देख रोहिणी..तेरे बेटे को तो हम फिर भी रख लेंगे..पर बड़ी होती बेटी को रखकर कौन मुसीबत मोल लेगा भला–सास ने दो टूक सुना दिया।

एक अकेला इंसान इतना लंबा चौड़ा परिवार चला रहा था,पर उसी परिवार में उसके बच्चे के लिए आज कोई नहीं था।

तनाव, अवसाद और शारीरिक श्रम की वजह से मात्र सात महीने में ही मेरी छोटी बेटी इस दुनिया में आ गई… अस्पताल से लौटने के दूसरे ही दिन हमें घर खाली करना था…

मैं अपने तीनों बच्चों को लिए सड़क पर आ खड़ी हुई थी, उंगलियां तो कई उठी हुई थी हमारी तरफ..पर जिन्हें पकड़ जिंदगी राह पर आ जाए वो वाली उंगली नहीं, सहारा देने वाली नहीं.. कोई आक्षेप लगाने वाली या फिर कोई मजबूरी का फायदा उठा लेने वाली…।



एक औरत होकर मैंने तीन चार रातें मंदिर के प्रांगण में सोकर निकाली… ग्रेजुएट होकर भी लोगों का चौका बर्तन और मजदूरी तक किया…और हर वो काम किया जो मर्यादा में रहकर की जा सकती हो।मेरे वृद्ध पिता औरतों की तरह घर में रहकर बच्चों की देखभाल करते।

खाने पीने की व्यवस्था तो करने लायक बन गई थी मैं..पर बच्चों को पढ़ाई लिखाई और अच्छी परवरिश भी तो देनी थी…साल होने को आया था और बच्चे घर पर ही बैठे थे…।

समझ में नहीं आ रहा था कि बिना अनुभव,बिना किसी योग्यता के मैं ऐसा क्या करूं कि अपने बच्चों की जिंदगी संवार सकूं…उनके पिता की कमी तो मैं पूरी नहीं कर सकती थी..पर पिता की कमी से आई कमी तो पूरी करनी बनती थी.. कहीं ना कहीं पति के प्रति मन में विषाद भी भर आता कि इतना कमाया और सब लुटा दिया.. बच्चों के लिए भी नहीं जमा किया और ना ही सोचा।

एक दिन विह्वल हुई बाहर बैठी उपाय सोच रही थी और रो रही थी कि इनके वहीं दोस्त आए जिन्हें उसने मनाकर रखा था।

भाभीजी…ये उमेश के एक पाॅलिसी के पेपर है… इसमें वो महीने के पांच हजार कुछ वर्षों से जमा कर रहे थे.. लगभग दस लाख रुपए है…

कब जमा किया??,कैसे जमा किया..कहीं वही पांच हजार तो नहीं जिसके लिए मैं इनपर शक करती थी कि सारी सैलरी का तो हिसाब होता है पर पांच हज़ार कहां चले जाते हैं…पर उन्होंने मुझसे कभी बताया क्यों नहीं??



मुझसे कहा था उन्होंने कि रोहिणी को डायमंड सेट का बहुत शौक है…पैसे तो बहुत आते हैं पर सब खर्च हो जाते हैं यार… इसलिए ये पाॅलिसी ले रहा हूं जिनके पूरे होने पर  सालगिरह में उसे डायमंड सेट दूंगा सरप्राइज गिफ्ट के तौर पर…ये वही राशि है भाभी!!

आंख भर आई रोहिणी की…सच्चा प्यार करता थे तभी तो पास ना होकर भी  उसकी मुश्किलों का हल निकाल दिया उन्होंने..वो कितना लड़ती थी इस पांच हजार के हिसाब के लिए उनसे,कभी कभी शक भी कर बैठती थी।

और भाभी जी उमेश मेरा बहुत अच्छा दोस्त था.. उसके बच्चों और परिवार का कष्ट मुझसे नहीं देखा जाता वैसे भी उसका एक एहसान है मुझपर…मेरी पत्नी की दूसरी डिलीवरी के बाद एक्सेसिव ब्लीडिंग के कारण हालत बहुत बिगड गई थी,उस वक्त उमेश ना केवल मेरे साथ खड़ा रहा उसने अपना खुन भी दिया दमयंती को..मेरी पत्नी ने आजकल अपना एक बिजनेस शुरू किया है,जिसके लिए वो एक सुपरवाइजर ढूंढ रही है… मैंने उससे बात की है… तनख्वाह बहुत ज्यादा तो नहीं होगी..पर हां कुछ तो सहारा मिल जाएगा ना उससे आपकी गृहस्थी को..इन पैसों को आप बैंक में रख दें और बच्चों की पढ़ाई लिखाई में उपयोग करें।

और भाई साहब मुझे आपके पास ले आए दमयंती बहन..पर मुझ पर यकीन कीजिए..भाई साहब मुझे भाभी नहीं बहन ही मानते हैं…फिर भी आपको भरोसा नहीं होता तो मैं ये नौकरी छोड़ने को भी तैयार हूं..पति पत्नी के बीच भरोसा ही तो सबसे बड़ी पूंजी है…देखिए मैंने भी शक किया था अपने पति पर कि वो पांच हजार वो क्या कर देते हैं…पर मेरे ही काम आए वो पैसे..भाई साहब बहुत अच्छे इंसान हैं..वरना दोस्त की बीबी के लिए इस ज़माने में कौन इतना करता है..उनकी अच्छाई का बदला मैं आपका घर तोड़ कर नहीं ले सकती बहन

अब और लज्जित न करो रोहिणी बहन… इन्होंने भी तो मेरा विरोध नहीं किया,मौन हो जाते जब मैं इनसे आपके प्रति मेहरबानी का कारण पूछती तो दिनोदिन मेरा शक बढता गया..और इस चक्कर में ये सब हो गया–दमयंती जो अब तक अपने पति के रोहिणी के प्रति दयाभाव को ग़लत समझ रही थी को पूरी कहानी सुनकर एहसास हो चला था कि ना रोहिणी गलत है ना उसके पति

सारा दोष परिस्थिति और समय का है..सारी दुनिया तो हाथ धोकर बेचारी रोहिणी के पीछे पड़ी ही है वो भी उन्हीं में शामिल हो गई है…औरत औरत का दर्द नहीं समझे तो क्या फायदा औरत कहलाने का??

अब आप कहीं नहीं जाएंगी बहन..तब तक जबतक आपको कहीं इससे अच्छी नौकरी ना मिल जाए…आपके और इनके बीच भले रक्त संबंध ना हो आपके दिवंगत पति और मेरे बीच तो है…उसको निभाना तो अब मेरा भी फर्ज है–दमयंती का स्वर ढृढ हो गया।

क्या जमाना है…एक रक्त संबंध ऐसा भी है जिसने मुसीबत आते ही मुंह मोड़ लिया…और एक रक्त संबंध ऐसा भी है जो संबंध ना होकर भी रक्त से ज्यादा अपना हो गया है….सच में रक्त जैसा कोई जोड़ नहीं..चाहे पराया क्यों ना हो रिश्ते पक्के जोड़ता है।

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