पापा कब आओगे? (अंतिम भाग )   : Moral stories in hindi

डॉक्टर साहब ने कहा डर वाली कोई बात नहीं है। शिव ने डॉक्टर से पूछ कर उस आदमी की नाई को बुलाकर शेव बनवा दी। अब वह बिल्कुल पहचान में आ रहा था। हां, यह सुबोध ही तो है। शिव की आंखों से आंसू बह चले। बालों को हाथ नहीं लगाया जा सकता था क्योंकि सिर पर पट्टी बंधी थी। इतने में सुबोध को होश आ गया। शिव उसको गले लगा कर रो रहा था। सुबोध ने उससे कहा-“अरे रोता क्यों है पगले, मैं ठीक हूं।” 

शिव का हैरानी से मुंह खुला का खुला रह गया और उसने पूछा-“क्या तुमने मुझे पहचान लिया?” 

सुबोध-“तू तो ऐसे कह रहा है जैसे हम बरसों बाद मिले हों, हां तू थोड़ा अलग लग रहा है पर इतना भी नहीं कि मैं पहचान ना सकूं और यह तेरे साथ स्मार्ट सा लड़का कौन है, इसे नहीं पहचाना मैंने।” 

शिव-“क्या तुम्हें सचमुच कुछ याद नहीं, हम सचमुच वर्षों बाद मिले हैं, यह मेरा बेटा राघव है।” 

अब  चौंकने की बारी सुबोध की थी। वह बहुत हैरान हो चुका था। शिव ने उसे शुरू से पूरी बात बताई और उससे पूछा कि उसे दिन रिक्शा में माल घर भिजवाने के बाद तुम्हारे साथ क्या हुआ था कुछ याद करने की कोशिश करो। 

सुबोध ने दिमाग पर थोड़ा जोर डाला तो उसे कुछ हल्की-फुल्की बातें याद आई। 

सुबोध-“हां उसे दिन माल रिक्शा में लदवाया ,मैं बच्चों के लिए मिठाई लेने आगे चला गया। आगे बढ़ने पर एक आदमी ने मुझे लिफ्ट मांगी। मैंने उसे जहां उसने बोला था,वहां उतरा। जैसे ही वह नीचे उतरा, मुझे सिर पर किसी ने जोरदार चोट मारी। मैं बेहोश हो गया। उसके कुछ देर बाद मुझे हल्का सा होश आया तब मैं किसी की आवाज सुनी। 

कोई कह रहा था, अरे यह किस उठा लाए, इसे थोड़ी ना उठाना था। तुम लोगों से एक काम ठीक से नहीं होता। अब कल इसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट हो जाएगी। मेरी नजरों के सामने से तुम लोग दफा हो जाओ और रास्ते में कहीं इसे भी फेंकते हुए जाना। उसके बाद पीछे से फिर किसी ने एक चोट मारी। फिर पता नहीं मेरे साथ क्या हुआ, कुछ याद नहीं, हां इतना जरूर याद है कि जब मैं होश में आया तो मुझे अपना नाम याद नहीं था कुछ भी याद नहीं था। डॉक्टर बार-बार मेरा नाम पूछ रहा था। डॉक्टर ने बताया कि किसी भले आदमी ने तुम्हें सड़क से उठाकर अस्पताल में भर्ती करवा दिया था और उसने थोड़े पैसे भी जमा करवा दिए थे। अब तुम यहां से जाते समय अपने कपड़े और अपना पर्स ले लेना और अस्पताल के कपड़े रख कर जाना। तब से लेकर पता नहीं मेरे साथ क्या हुआ और मैं कहां-कहां भटकता रहा,कुछ याद नहीं।” 

शायद अपराधियों ने किसी और के चक्कर में मेरा अपहरण कर लिया था और मुझे बाद में मरा हुआ समझकर सड़क पर फेंक दिया होगा। और ऐसे अपराधियों के लिए स्कूटर को तोड़ तोड़कर कबाड़ में बेचना कौन सी बड़ी बात है।” 

शिव-“चलो माना कि तुम्हारी हर बात सही है लेकिन तुम दिल्ली कैसे पहुंचे?” 

सुबोध खुद हैरान था उसे तो यह भी पता नहीं था कि वह दिल्ली में है। 

सारी बातें दुकानदार भी सुन रहा था। उसने कहा-“तभी तो कहते हैं ना कि भगवान जो करता है अच्छा करता है। चोर ने आपको सिर पर पत्थर मारा, शायद इस कारण आपकी याददाश्त वापस आ गई है। अच्छा जी, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद अब मैं चलता हूं।” 

शिव ने और सुबोध ने उसका बहुत-बहुत धन्यवाद किया। 

शिव ने कहा-“अगर तुम्हें अपनी तबीयत ठीक लग रही है, तो उठो चलो घर चलते हैं और डॉक्टर साहब से सारी दवाइयां लिखवा लेते हैं। तेरी बिटिया ख्याति और बेटा यश बहुत बड़े हो गए हैं। तेरे बिना उन्होंने एक-एक दिन कैसे गुजरा है मैं खुद अपनी आंखों से उन्हें तड़पते हुए देखा है। उन बच्चों से ही पूछा जा सकता है कि पिता की “अहमियत” क्या होती है। मुझे तो लगता है कि तुझे देखकर खुशी के मारे बावले ना हो जाए। चल जल्दी चल। हम अपनी गाड़ी से आए हैं।” 

डॉक्टर से दवाइयां लिखवाना, अस्पताल से छुट्टी लेना और बाकी कामों में निकलते निकलते रात हो गई। रास्ते में शिव बच्चों की बातें सुबोध को बताता रहा। सुबोध बातें सुन सुनकर कभी हंस पड़ता तो कभी रो पड़ता। वह सोच रहा था कि उन अपराधियों के कारण उसकी और उसके परिवार की पूरी दुनिया दो पल में बदल  गई। शिव का धन्यवाद करते-करते वह थक नहीं रहा था। 

      पहुंचते पहुंचते सुबह हो गई। शिव ने रास्ते में से ही अपनी पत्नी नीरू को फोन कर दिया था कि नाश्ता तैयार करके सुबोध के घर ले आना। घर के दरवाजे पर पहुंचकर शिव ने घंटी बजाई। मीना ने दरवाजा खोला। दोनों बच्चे उठ चुके थे। यश नहा रहा था और ख्याति तैयार हो रही थी । मीना इतनी सुबह-सुबह शिव को देखकर चौंक गई। 

“अरे इतनी सुबह-सुबह भाई साहब, अरे राघव बेटा भी आया है, आइए अंदर  आइए।” 

शिव -“भाभी जी आज तो हम आपके साथ चाय पीने आए हैं और नाश्ता भी साथ ही खाएंगे।” 

मीना -“हां हां क्यों नहीं, मैं अभी बनाती हूं।” 

इतने में नीरू ने प्रवेश किया।” नाश्ता तैयार है मैं लेकर आई हूं।” 

अब मीना और बच्चे बहुत हैरान हो चुके थे। 

शिव -“बच्चों मैं तुम्हारे लिए जलेबी लाया हूं।” 

जलेबी की बात सुनकर दोनों की आंखें भर आई। ख्याति ने कहा-” चाचू-चाची नमस्ते, और यश ने आगे बढ़कर दोनों के पैर छू लिए। 

शिव ने कहा-“चलो आंखें बंद करो। तुम्हारे लिए एक सरप्राइज है।”दोनों का मन नहीं था लेकिन फिर भी उन्होंने आंखें बंद कर ली। 

शिव ने तुरंत सुबोध को इशारा किया और वह बच्चों के सामने आकर खड़ा हो गया और धीरे से बोला -“आंखें खोलो बच्चों।” 

यह आवाज, इस आवाज के लिए ही तो मीना और बच्चे बरसों से तरस रहे थे। पहले तो पूरा परिवार सुबोध का ऐसा बुरा हाल देखकर हैरान रह गया, सिर पर पट्टी बंधी थी, कमजोर शरीर, यह क्या हुआ ,कैसे हुआ, हजारों सवाल मन में उमड़ रहे थे।तीनों तुरंत दौड़कर उससे लिपट गए और फिर मेल मिलाप का ऐसा दौर शुरू हुआ कि नीरू, शिव और राघव सभी रो पड़े। कुछ देर बाद सब नॉर्मल हुए। सब ने मिलकर नाश्ता किया और फिर शिव ने कहा-“अब हम लोग चलते हैं तुम लोग खूब बातें करो, मजे करो।” 

सुबोध ने उन्हें जाने नहीं दिया। फिर सब ने मिलकर दोपहर का खाना एक साथ खाया। खुशियां फिर से लौट आईं थी। मानो ईश्वर ने मीना की और बच्चों की प्रार्थनाएं सुनकर चमत्कार कर दिया हो। इतने वर्षों तक सिर्फ इंतजार, ऐसे में इन बच्चों से बढ़कर पिता की अहमियत कौन समझ सकता है। हमारे जीवन में माता-पिता की कमी कोई भी पूरी नहीं कर सकता। 

दोस्तों, आपको कहानी कैसी अवश्य कमेंट करके बताएं। धन्यवाद 

स्वरचित अप्रकाशित  गीता वाधवानी दिल्ली

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