नाटक – कल्पना मिश्रा

“ये क्या!! कितनी गंदगी कर देते हो तुम? मेरे जैसी टोंकने वाली और तुम्हारे जैसा सुनने वाला शायद दूसरा कोई नही होगा। हद है, बोलते-बोलते मेरी ज़ुबान घिस जाती है,पर तुम हो कि अब दिन पर दिन ज़्यादा ही गंदे होते जा रहे हो” सुनकर वह हँस देते तो वह फिर से चालू हो जातीं.. “शर्म नही आती?एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हो? कभी कहतीं ‘चिकना घड़ा हो’ कभी ‘भैंस के आगे बीन बाजे’ वगैरह-वगैरह..यानि जितनी उपाधियाँ उन्हें याद आती,वो दे डालतीं।

राजवीर जी की धर्मपत्नी बहुत सफाई पसंद थीं और वह हमेशा उसका उल्टा करतें। कभी नहाकर गीली तौलिया बिस्तर पर डाल देते,कभी फल खाकर उसके बचे छिलके, डंडी बेड के पीछे फेंक देते,नाक पोंछकर रुमाल डाइनिंग टेबल पर रख देते, खाना खाकर उसी थाली में ही हाथ धोते तो कभी कीचड़ से सनी गंदी चप्पल पहनकर पूरे घर में घूम आते। ये देखकर उनकी पत्नी बड़बड़ाया करतीं और साथ-साथ सफाई भी करती रहतीं।

पिछले महीने ही मैं अहमदाबाद से ट्रांसफ़र होकर यहाँ आया था। नया शहर, नये लोग… मुझे बहुत घबराहट सी होती थी। प्रॉपर्टी डीलर के अथक प्रयास के बावजूद ढंग का मकान, फ्लैट भी नही मिल रहे थे। जो मिलते भी, तो बड़े अजीब से। कभी आठ बाई छह का दड़बे जैसा कमरा जिसमें एक खिड़की,अलमारी तक नही होती,तो किसी में बाथरूम इतना गंदा होता कि घिन आ जाती और जो थोड़ा ढंग का होता,उसका किराया इतना ज़्यादा माँगते कि हिम्मत ही नही पड़ती।



ऐसे में राजवीर सर फरिश्ता बनकर आये। मेरी कंपनी में मुझसे सीनियर थे। बेहद धीर गंभीर,नम्र और समय के पाबंद…उनका अपनापन और मितभाषी होना ही मुझे नतमस्तक कर देता। 

“हमारे यहाँ पहली मंज़िल पर एक कमरा खाली पड़ा है। जब तक कुछ इंतज़ाम ना हो जाए, चाहो तो यही रह जाओ!” मैंने अपनी समस्या बतायी तो वह बोल पड़े।

अंधा क्या चाहे, दो आँखें! दूसरे ही दिन अपना बोरिया बिस्तर लेकर मैं रहने आ गया।



किचन का झंझट कौन करे इसीलिए मैंने टिफिन की व्यवस्था भी कर ली थी..पर राजवीर जी नही माने और मुझे अधिकारपूर्वक अपने साथ खाना खाने के लिए नीचे बुला लेते..”दो चार दिन हमारे साथ खाना खाओगे तो हमें अच्छा लगेगा” उनके आमंत्रण पर घर का बना खाना खाने के लोभ में मैं भी मना नही कर पाता और चला जाता। पर मुझे ये देखकर बहुत अटपटा लगता कि सर अपनी पत्नी को ऐसे परेशान क्यों करते हैं?

“सर,ऑफिस में तो आपकी अलग ही छवि है। आप हमेशा सफाई पर बहुत ध्यान रखते हैं?कूड़ा डस्टबिन में डालते हैं ,हर सामान अपनी जगह पर रहता है,सब कुछ टिप टॉप! पर घर में आप बिल्कुल उलट ही,,,,?” डरते-डरते ऑफिस में मैंने उनसे सवाल किया।

“हाँ!!” उन्होनें दीर्घ नि:श्वास ली…”जब से बेटा गया है तबसे ही ऐसी हरकतें करता हूँ। हमारी इकलौती संतान था वह। दोस्तों के साथ पिकनिक पर गया था वहीं दोस्तों के साथ नहर के किनारे बैठा था, तभी एक दोस्त का पैर फिसला तो वह गहराई में फिसलता चला गया! डूबने से बचने के लिए उसने मेरे बेटे का हाथ पकड़कर खींच लिया…और,, और,,, फिर वह हमेशा के लिए हमें छोड़कर चला गया” उनका गला भर्रा गया! “तैरना नही आता था न उसे! कई महीनों तक सुरेखा मानने को भी तैयार नही थीं कि हमारा बेटा अब इस दुनिया में नही है। सारा-सारा दिन उसका इंतज़ार करती,उसे याद करके रोती, कभी चुपचाप बैठी रहती तो कभी डिप्रेशन में चली जाती…तब कोई दवाई भी फायदा नही करती। एक साल से ऊपर हो रहा है.. अब मामूली सा सुधार आया है इसीलिये मैं जानबूझकर ऐसी गल्तियाँ करता रहता हूँ ताकि वह उन्हीं में उलझी रहे..और उसके साथ-साथ शायद मैं भी,,,,” धीरे से बुदबुदाते हुए वह घर जाने के लिए उठ खड़े हुए।

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