मुझे माफ कर दो पापा!-डॉक्टर संगीता अग्रवाल Moral Stories in Hindi

अर्पित अपने माता पिता का लाडला बेटा था,बड़े नाजों से पाला था उन्होंने अर्पित को,इस उम्मीद के साथ कि

वो बड़ा होकर उनका ख्याल रखेगा,खूब कमाएगा और उनको भी ऐशो आराम देगा।

अर्पित उन दोनो की अपेक्षाओं पर खरा भी उतरा,पढ़ लिख कर उसकी बहुत बड़ी मल्टी नेशनल कंपनी में बड़े

पैकेज पर नौकरी लग गई।छोटे से शहर में पले बढ़े लड़के को बैंगलोर भेजते हुए,मां की आंखें डबडबा

आईं,पिता ने अपनी फिक्र गंभीरता के आवरण में छुपा ली।

अभी पिता जी खुद ही नौकरी कर रहे थे इसलिए बेटे के संग जा भी नहीं सकते थे।इस वादे के साथ कि जल्दी

ही वो भी उसके पास रहने आ जायेंगे,उन्होंने अर्पित को बैंगलोर भेज दिया।

काम की बहुत अधिक व्यस्तता के बाद भी शुरू शुरू में,अर्पित उन्हें रोज फोन करता,धीरे धीरे,ये आदत

हफ्ते,महीनों में बदलने लगी और एक रोज उसके मां बाप को अर्पित का फोन आया कि उसने अपनी

सहकर्मी पूजा से विवाह कर लिया है।

दोनो चौंके तो बहुत पर उसे आशीर्वाद दिया कि उसका वैवाहिक जीवन सुखमय हो।बेटा जिद कर रहा था कि

आप दोनो कुछ समय हमारे पास रहने आइए।

जल्दी ही उसके पिता की छुट्टियां आ रही थीं इसलिए उन्होंने जाने का मन बना लिया। बहू को देखने की

उत्कंठा भी थी मन में कहीं।

अचानक अर्पित का फोन आया,कैसे हैं पिताजी?

बस टिकट कराने ही जा रहा था बेटा!वो पुलकित होते बोले।

आप क्यों तकलीफ करते हैं, मैं यहीं से कराए देता हूं और पांच दस मिनट में ,पिता के मोबाइल पर उन दोनो

का टिकट आ गया था।

मिल गए टिकट पापा?अर्पित ने पूछा तो उसके पिता की आंखें छलछला आई।

बेवजह शक कर रहा था बेटे के प्यार पर,कितना ध्यान रखता है वो हमारा…वो सोच रहे थे,अब बस बहू भी

उसकी तरह इज्जत देने वाली हो तो गंगा नहा जायेंगे,वो पत्नी से बोले तो वो मुस्कराई…जरूर होगी जी!

बैगलोर पहुंच कर वो बड़े शहर की चकाचौंध से अभिभूत थे।बेटे का आलीशान फ्लैट सब आधुनिक सुख

सुविधाओं से भरा हुआ था। बहू भी बेटे संग ही जॉब करती थी और थोड़े बहुत कपड़े पहनने को ,बातचीत को

अगर इग्नोर कर दें तो ठीक ही थी।

अर्पित को नाम लेकर बुलाती,सास ससुर के आगे भी शॉर्ट स्कर्ट में घूमती वो उन्हें अटपटा कर देती पर सोच

कर चले थे कि खुश रहना है तो ये बदलाव स्वीकार करने ही पड़ेंगे।

रात के खाने के वक्त,अर्पित ने बाहर से खाना ऑर्डर कर दिया था,लजीज खाना टेबल पर सजा था और

उसके मां बाप,एक दूसरे को खिसियाए हुए देख रहे थे।उन्हें उम्मीद थी बहू के हाथ की पहली रसोई खाने

की,मां तो उसके लिए सुंदर सा पुश्तैनी सोने का हार भी लाई थी पर यहां का सीन ही अलग था।

चलो!कल सुबह नाश्ते में दे दूंगी,सोचकर वो शांत रही।

सुबह तो छोड़ो,दोपहर को भी उनका लंच ऑर्डर कर दिया था अर्पित ने।

शाम को पहली बार उसकी मां ने मुंह खोला,”बेटा!हमें हर वक्त बाहर के खाने की आदत नहीं,तेरे पिताजी को

एसिड बन गया और मुझे भी बहुत गैस बन रही है, मैं रसोई खुद बना लूंगी,तू कुछ बर्तन लेने चल मेरे साथ।”

तभी पूजा बोली,”उसकी क्या जरूरत है मां!अभी ऑनलाइन ऑर्डर कर देती हूं,बताइए!क्या क्या मंगाना है?”

अर्पित की मां ने कढाई,कुकर,चकला बेलन, कर्छी आदि कुछ चीजे बता दी।

अगले दिन,उसके पिता बोले,”लाओ!सब्जी और दालों की लिस्ट बना दो, मै पास के बाजार से ले आता हूं।”

“कोई जरूरत नहीं,ये सब ऑनलाइन आ जायेगा पापा”,अर्पित बोला।

“ये भी!! “आश्चर्य से वो बोले,”इस तरह तो किसी बाहर वाले से संपर्क ही टूट जायेगा,हमारा मन नहीं लगने

वाला यहां…सब सामान घर पर ही आ जायेगा,वो जो मोल भाव करने का मजा था वो सब खत्म!ये भी कोई

जिंदगी हुई?”

“पापा!आप उल्टी बात बोल रहे हैं,सारे झंझट खत्म अब,बढ़िया सामान घर पर उपलब्ध है और बिना

अतिरिक्त दाम दिए।”

वो चुप लगा गए लेकिन बहू बेटे के घर से जाते ही पत्नी से बोले,” भागवान!अपना

सामान बांध ले,हमें यहां नहीं रुकना अब।”

“नाराज हो जायेंगे बच्चे!ऐसा न कहो,आप को कुछ सामान लाना है,आप ले आओ। मै समझा दूंगी अर्पित

को।” वो बोली तो वो झोला उठाकर सब्जी लेने बाहर निकले।

बाहर आते ही उन्होंने चैन की सांस ली,घर में दम घुट रहा था जैसे उनका लेकिन बड़ी सोसाइटी में उन्हें कोई

पहचानता नहीं था इसलिए किसी ने न दुआ सलाम किया न कोई बातचीत,उन्हें अपनापन नहीं लगा

यहां।कंक्रीट के फैले बंगले और सड़क पर उपजी नीरसता उन्हें बुरी तरह साल रही थी।

पास ही सब्जी मंडी दिखी,वहां सब्जी लेते हुए उन्हें कुछ जिंदगी लौटती दिखी।सब्जी वाला काफी बातूनी था

और उनसे दीन जहां की बातें करता रहा।

आज वो खुश थे पहली बार जैसे उनका दिल लगा हो यहां,किसी से कोई बात तो की।

अपनी पत्नी को भी कहते वो,”तू भी मेरे साथ चला कर बाजार,वहां जाकर कुछ रौनक दिखती है नहीं तो यहां

हम मशीन मानव बनते जा रहे हैं।न किसी का सुख दुख,न बातचीत बस हर वक्त खाना खा लो,मोबाइल में

आंखें फोड़ लो और चुपचाप पड़े रहो।”

एक दिन,अचानक,जब वो दोनो घर में अकेले थे, बहू बेटा किसी इंपोर्टेंट मीटिंग में व्यस्त थे,उनका फोन स्विच

ऑफ था,अर्पित की मां को भयंकर दर्द उठा सीने में।शुरू में ,उसके पापा उन्हें घरेलू चीजे देते रहे ताकि कुछ

आराम आ जाए और लगातार अर्पित और पूजा को फोन लगाते रहे,पर उनकी पत्नी की हालत बदतर होती

गई।

तभी मसीहा बन कर आई उनकी मेड, जब उसने उनकी ये हालत देखी वो पड़ोस वाली डॉक्टर सिन्हा को बुला

लाई। उन्होंने झट फर्स्ट एड देकर उनकी जीभ के नीचे गोली रखी और उन्हें अपने हॉस्पिटल में एडमिट कर

लिया।

थोड़ी देर बाद,अर्पित का फोन आया तो उसके पिता गुस्से में बोले,वो अब यहां और नहीं रुकेंगे,तुम लोगों को

तुम्हारी ये टेक दुनिया मुबारक हो जहां इंसान को इंसान की फिक्र नहीं,सब पैसे के पीछे अंधे हुए दौड़ रहे हैं।

अर्पित और पूजा झट दौड़े चले आए,अर्पित रो रहा था,पिताजी!आपकी बात सिर माथे पर,आप गुस्सा ना

करें प्लीज! मां अब खतरे से बाहर हैं,मेरी डॉक्टर सिन्हा से बात हो गई है। मै मानता हूं हमारी गलती है,हमें आप

दोनो को इग्नोर नहीं करना चाहिए था,सॉरी!आगे से आपको ये शिकायत नहीं मिलेगी।

क्या पूजा जॉब छोड़ देगी? या तू घर बैठेगा?वो अभी भी गुस्से में थे।

नहीं पिताजी!ये सब करते हुए भी हम अपनी जिंदगी में रिश्तों की अहमियत को पहले समझेंगे।अगर रिश्ते ही

न बचेंगे तो पैसे का क्या करेंगे?आप दोनो को शिकायत थी कि आप पोते पोती की शक्ल देखना चाहते

थे,उसकी तरफ भी ध्यान देंगे और कुछ समय आप दोनो के साथ निश्चित बिताया करेंगे,माफ कर दीजिए

इस बार,आगे से ये गलती नहीं होगी।

उसके पिता मुस्करा रहे थे कि समय रहते उनका बेटा,काम और परिवार में संतुलन बनाए रखने को तैयार हो

गया था।

कितना भी आधुनिककरण हो जाए लेकिन जिंदगी में रिश्तों की अहमियत सर्वोपरि रहनी चाहिए,रिश्तों की

डोर एक बार टूटी तो जुड भी जाए तो गांठ पड़ जाती है जो बहुत दुख देती है।

डॉक्टर संगीता अग्रवाल

#रिश्ते की डोर न टूटे

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