मृगतृष्णा – सीमा बी.

आज भी मुझे याद है,जब मेरे लिए अविनाश का रिश्ता आया था।अपनी अपनी माता पिता की एकलौती संतान हैं। पेशे से डॉक्टर होने के बावजूद  वो एक पढी- लिखी

घरेलू लड़की से शादी करने को इच्छुक थे।

इतना अच्छा रिश्ता सामने से आया तो ना करने की कोई वजह नहीं थी। छह महीने के छोटे से अंतराल में ही हमारी शादी हो गई।अविनाश से ज्यादा मिलना तो हो नहीं पाया था। पर शादी से पहले एक दो मुलाकात में ही पता चल गया था ,कि उनका बचपन अभाव में बीता था। बहुत कठिनाइयों का सामना किया था, इसलिए वह अपने माता पिता को हर सुख देना चाहते थे,और वो ऐसा कर भी रहे थे।

जब हमारी शादी हुई तो वह एक अस्पताल में नौकरी करते थे। जिसमें हम सब खुश थे।उस समय के सब तमाम सुविधा उपलब्ध थी।

फिर जल्द ही हमने लोन लेकर अपना एक छोटा सा अस्पताल खोल लिया। उस समय आँखों के संबंधित रोग के लिए लोगों को बहुत  दूर जाना पड़ता था ।अविनाश के अस्पताल बनाने से लोगों की समस्या दूर हो गई।

अविनाश एक अच्छे डॉक्टर और एक भले इंसान हैं। वो आज भी  गरीबों के लिए दया भाव रखते हैं। इसके लिए मुझे उन पर गर्व है।जब से अस्पताल बनाया वो व्यस्त होते चले गए। हम सब समझते थे कि नया काम है मेहनत ज्यादा करनी है। बहुत ज्यादा समय नहीं लगा उनको लोगों के बीच लोकप्रिय होने में।


हमारी शादी के तीन साल बाद हमारा बेटा हुआ। हमने बड़े चाव से उसका नाम आदित्य रखा। दादा – दादी का उत्साह देखते ही बनता था। उनके तो जैसे जीने की एक नयी वजह मिल गई थी । सब कुछ अच्छा ही तो चल रहा था। बस कुछ बदल रहा था तो अब किसी त्योहार या रविवार के दिन भी अविनाश का व्यस्त होना।

जैसे जैसे हमारा बेटा बड़ा होता जा रहा था अविनाश बिजी होते चले गए।वो कहते कुछ नहीं थे पर वो हमारे बेटे को वो सब देना चाह रहे थे जिसका अभाव उन्होंने देखा था।

आज हमारे पास सब कुछ है पर अविनाश को सुकून नहीं। पहले अच्छे अस्पताल की चाह फिर बेटा डॉक्टर बने, बेटा सर्जन बनने से बस एक कदम दूर है, अब उसका भविष्य और सुरक्षित रहे उसकी चाह में साठ साल की उम्र में बस कमा रहे हैं।

किसी चीज की कमी नहीं , बस उनके पास वक्त का अभाव होना मुझे खटकता है।

अविनाश का एक लक्ष्य पूरा होता है तो दूसरा अपने सामने रख लेते हैं। ऐसा लग रहा है कि मानो आसमान को मुट्ठी में करना चाह रहे हैं।इस भागदौड़ में मेरे साथ जीना ही भूल गए।  कुछ और हासिल करने की दौड़ पर विराम नहीं लग रहा है।

कभी- कभी मुझे ऐसा लगता है कि कहीं न कहीं मैं भी जिम्मेदार हूँ । सब कुछ परफेक्ट करने की हमारी चाहत मृगतृष्णा ही तो है।

सीमा बी.

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