लंगड़ी-कन्या – सीमा वर्मा

“लंगड़ी , हाँ यही उसका नाम है।”

“जब भी मेरी यह भक्त कन्या अपने एक छोटे पाँव पर हिलक-हिलक कर अकेली ही कदम खींचती हुई आती है , मेरा ध्यान अपने समस्त भक्तों से हट कर उस पर ही केंद्रित हो जाता है,

“अपनी हँसी उड़ाए जाने के डर से हमेशा एकाकी ही दिखती है मुझे “

“पुजारी भी उसे देख अनायास चिड़चिड़ा जाता है ” साफ भर्त्सना सी दिखती है उसके चेहरे पर,

“परे हट, कहाँ घुसी चली आ रही बीच में ‘कलूटी-लंगड़ी ‘ “

वह सांवली सी कन्या शायद अपनेआप से खफा है, या फिर दुखी है ?

बचपन से ही पिता ‘बलराम’ ठेलेवाले ने उसकी माँ के असमय काल-कलवित हो जाने बड़ी मुश्किलों से संभाला है। घर में तो सबने हाथ खड़े कर दिए थे,

“हृए जन्म लेते ही माँ को खा गई अब न जाने गाज़ किस पर गिराएगी”

“जब दादी, चाची सबने किनारा कस लिया तब रूई के फाहे से बकरी के दूध को मृत संजीवनी बना बूंद-बूंद मुँह में टपका,

“बाबू ने किस वास्ते मुझे जिला दिया माँ ? “।

मन ही मन बुदबुदाती हुई शायद मुझसे ही मुखातिब हो रही है,

” हे माँ, तू तो अंतरयामी है, मेरी व्यथा समझती है ना ?”

तभी बगल वाली खूबसूरत भक्तिन को देख सकपका कर किनारे हो जाती है।



” मेरी सब समस्याओं का समाधान तो नहीं हो सकता पर तू तो सबकी पालनहार है ‘ माँ’ “

“किसी तरह बाबू ने नगरपालिका के स्कूल में भेज दसंवी तो पास करा दिया है, पर अब अपने पीछे खोली में अकेला छोड़ जाने में डरता है “

वह लगातार अपने को कोस रही है।

“चुपचाप अकेली कोने में खड़ी देख मेरी कृपा उस पर बरसना ही चाहती है “,

तभी पुजारी की ,

“निकलो… निकलो… सभी खाली करो संध्या आरती का वक्त हो चला है”

सुन कर सबके पीछे उसे भी निकल कर जाते देख,

” मैंने उसे भर-भर कर आत्मविश्वास, कठिन जिंदगी को तसल्ली से जीने की इच्छा से… उसके मन के उदास क्षितिज को सतरंगी रंगों से भरने का आशीर्वाद दे दिया है”।

शाम का धुंधलका अब स्याह हो चला है।

घर के दरवाजे पर ही बाबू को अपनी बाट जोहते देख कह उठी,

” क्या बात है बाबू? यह वक्त तो तेरे ठेले लेकर निकलने का होता है”।

“कैसे निकलूँ ? तुझ जैसी सयानी बिटिया  को छोड़ कैसे निश्चिंत… ? “

अचानक लंगड़ी अनूठे आत्मविश्वास में भर ,

“चल बाबू, अब तू भी अकेला कहाँ ठेला खींच पाता है?  आज से मैं बिकवाली में तुम्हारे साथ रहा करूंगी “।

स्वरचित /सीमा वर्मा

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