मैं क्यों चुप रही? – विभा गुप्ता

 कभी-कभी सबकुछ जानते हुए भी हम चुप रह जाते हैं।अपनी चुप्पी को कभी परंपरा तो कभी संस्कार का नाम दे देते हैं और फिर बाद में पछताते हैं कि काशः हम बोल दिये होते।

          छोटा- सा मेरा परिवार था।दादी,पापा,माँ, दीदी और मैं।पापा की आमदनी में हम सभी बहुत खुश थें।दादी के नाम की थोड़ी ज़मीन थी जिसके लिए दादी अक्सर ही पापा को कहती, ” बिजेस(बृजेश) ,ये तेरी बेटियों की शादी के बकत काम आयेगी।” दीदी देखने में सुंदर थी, गोरे रंग के साथ-साथ स्वभाव की भी तेज-तर्रार।अपनी बात मनवाने में वे कुशल थीं।मैं सांवली थी,स्वभाव से भी सरल और शांत थी।पढ़ाई, खेल और काम से खाली होती तो दादी अक्सर ही मुझे अपने पास बिठाकर संस्कारों और पुराणों की कहानियाँ सुनाती।कहतीं थी कि बेटी ससुराल में बस जाए तो माँ-बाप गंगा नहा लेते हैं।फिर तू तो…।कहकर चुप हो जातीं और उनका मतलब मैं समझ जाती थी।

             दीदी जब बीए के सेकेंड इयर में थीं, उसी समय छोटी चाची ने अपने भतीजे के लिए दीदी का हाथ माँग लिया।चाची के मायके में तो धन की गंगा बहती थी,सो बिना दान-दहेज लिए वे दीदी को विदा कराकर ले गई और तब दादी ने माँ से कहा था, ” जानकी, अब अपनी छुटकी के लिए दहेज जमाकर, उसके ऐसे भाग कहाँ? मैंनें जब माँ की तरफ़ देखा तो मुझसे कहने लगी, ” देख लेना, तू भी राज करेगी।” माँ की बात सत्य साबित हुई।

            एक शाम पापा चाय पी रहें थें और मैं उन्हें इंटर का रिजल्ट दिखा रही थी कि तभी हमारे क्षेत्र के विधायक श्री अयोध्या प्रसाद जी दनदनाते हुए घर में घुसे और कहने लगे, ” क्या बृजेश, घर में लक्ष्मी रखे हो और हमें खबर नहीं।” पापा चकित हो गये।उन्हें बिठाते हुए बोले,” मैं समझा नहीं।”

   ” अरे भई, मैं तो बिटिया की बात कर रहा हूँ।”




पापा ने मुझे अंदर जाने का इशारा किया और उनसे बोले,” अच्छा, अच्छा, अब समझा, पिछले महीने ही उसका विवाह कर दिया है।”

 ” मैं तो उसकी बात कर रहा हूँ जो अभी-अभी भीतर गई है। बड़ी सुशील और गुणी है।अपने बेटे रंजन के लिये आपसे उसका हाथ माँगने आया हूँ।” विधायक जी बात सुनकर तो पापा कुछ बोल ही नहीं पाए।घर बैठे इतना अच्छा रिश्ता मिल जायेगा, वो तो कल्पना भी नहीं कर सकते थें और अपनी तारीफ़ सुनकर मैं सुनहरे सपने बुनने लगी।

          लेन-देन के बिना ही शादी तय हुई तो पापा ने न तो होने वाले दामाद को देखने की ज़रूरत समझी और न ही कोई जाँच-पड़ताल की।वर-पक्ष को जल्दी थी और देरी करके वधू पक्ष भी अच्छा रिश्ता खोना नहीं चाहते थें।

     धूमधाम से मेरी शादी विधायक जी के हैंडसम लड़के से हो गई।दामाद को देखकर दादी तो निहाल हो गई थी।विदाई के समय उन्होंने मेरे कानों में एक मंत्र और फूँक दिया, ” ससुराल की शिकायत कभी न करना और तेरी अर्थी वहीं से निकलनी चाहिए।” मैंने भी बिना सोचे-समझे दादी के मंत्रों का पालन करना अपना धर्म समझने का प्रण कर लिया। ससुराल में खूब आव-भगत की गई।आगे-पीछे नौकर-चाकर घूमते , सास पलकों पर बिठाये रखी और पति तो बस…।पलक झपकते एक सप्ताह बीत गये और फिर पति देर से घर आने लगे।कभी-कभी तो आते भी नहीं।मेरी रात करवटें बदलते गुजरने लगी।सास से कुछ पूछती तो वे काम का बहाना बना देती।

          एक दिन पति से देर से आने का कारण क्या पूछ लिया,जवाब में ‘चटाक ‘ मिला जो मेरे गाल पर नहीं, मेरी आत्मा पर पड़ा था।चीखते हुए उन्होंने सच कहा,” तेरी औकात क्या है, तू पैर की जूती है ,मेरे सिर पर चढ़ने की कोशिश मत कर वरना…।” मैं अवाक् रह गई।बाद में नौकरों से सुनने को मिला कि विधायक जी का लड़का रंगीन मिज़ाज का था।उसे शराब-जुआ के साथ-साथ कोठे पर जाने का जबरदस्त चस्का था।बाप की काली कमाई उड़ाना ही उसका धंधा था।बिरादरी में कोई उसे अपनी बेटी देना नहीं चाहते थें।इसीलिये उन्होंने मुझे चुना ताकि मैं और मेरा परिवार उनके एहसानों तले दबा रहे, उनके बेटे की ख़ामियाँ छिपी रहे और सांवली बहू लाने से समाज में उनकी अच्छी और साफ़-सुथरी छवि बनी रहे।




          मेरे सामने सच था पर मैं किसी को कह नहीं सकती थी।संस्कारी बेटी और संस्कारी बहू होने का धर्म  जो निभाना था।अब मैं ससुराल में एक शो पीस थी,मेरी इच्छाओं और भावनाओं का उस घर में कोई स्थान न था। पापा का फोन आता तो हाँ-हूँ में ही बात हो पाती क्योंकि सासू जी मेरी गरदन पर सवार रहतीं।इसी तरह से छह महीने गुज़र गये।

          दादी द्वारा दिये गये संस्कार की डोर अब मेरे लिए  पैरों की जंजीर बन गई थी जिसे तोड़ना नामुमकिन-सा लग रहा था।फिर तय कर लिया कि माँ की बीमारी का बहाना करके जाऊँगी तो इन लोगों का भांडाफोड़ कर दूँगी पर होना तो कुछ और ही था।अगले ही दिन सासू माँ ने मोहल्ले की कुछ महिलाओं को चाय पर बुलाया और उनसे कहा कि मेरी बहू माँ और मैं दादी बनने वाली हूँ।मैं विस्मित थी,तभी ससुर जी ने मेरे नाम की गई ज़मीन के कागज़ात मुझे दिये।मैं कुछ नहीं समझ पा रही थी।मेरे मायके में भी मेरी प्रेग्नेंसी जो कि झूठ थी और मेरे नाम की ज़मीन वाली बात बता दी।सुनकर मेरी दादी तो नाचने लगी थी।

          रात को जब सोने जा रही थी तो सासू जी आकर बोली कि पैर में दर्द है, नीचे से मेरी दवा ला दोगी?उनकी इरादों से अनजान मैं जैसे ही सीढ़ी के पास पहुँची कि उन्होंने मुझे धक्का दे दिया।पंद्रह सीढ़ियों से लुढ़कते-लुढ़कते जब मैं नीचे पहुँची तो मेरे प्राण निकल चुके थे।सासू जी एक दिन पहले ही लोगों को अपनी अच्छाई का सबूत दे चुकी थीं, इसलिए मेरी मौत को दुर्घटना बता देना उनके लिए आसान हो गया।विधायक जी ने पैसा फेंककर मनचाहा रिपोर्ट भी तैयार करवा लिया।सबूत तो कुछ था नहीं और गवाह ने उनके हक में गवाही दी। इस तरह से ससुराल वाले क्लीन रह गये।माँ बहुत रोईं लेकिन दादी खुश थी कि उनकी पोती की अर्थी ससुराल से ही उठी है। 

            दादी के संस्कारों ने मुझे असमय ही कालग्रस्त कर दिया।आज सोचती हूँ कि मैं क्यों चुप रही? मेरी जैसी न जाने कितनी बेटियाँ आज भी संस्कार का चादर ओढ़े, चुप्पी साधे कल सवेरा होगा ‘ का इंतजार कर रहीं हैं।संस्कारी बेटी-बहू ही क्यों?, संस्कारी सास-ससुर और पति क्यों नहीं? समय बदल चुका है ‘ यह बस कथन मात्र है।आज भी गांवों -शहरों में संस्कार के नाम पर यह चुप्पी छाई हुई है।

                   — विभा गुप्ता 

 

         #संस्कार 

 

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