लौट आओ अपराजिता (भाग 1) – डॉ. पारुल अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

प्रदेश में होने वाले चुनावों की वजह से शांति व्यवस्था बनाए रखनी की सारी जिम्मेदारी शहर की जिलाधीश अपराजिता के कंधों पर थी। आज चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न हो गए थे। अभी परिणाम आने में थोड़ा समय था। इतने दिन से शांति व्यवस्था सफलतापूर्वक बनाए रखने के लिए वो और उसकी टीम दिन रात एक किए हुए थी।

आज सब कुछ सुचारुरूप से निबटाने के बाद कल उसको एक दिन का अवकाश मिला है। रात देर घर से पहुंची थी। कब आंख लग गई पता ही नहीं चला। सुबह खाना बनाने वाली कमला ने जब घंटी बजाई तो उसकी आंख खुली। दरवाज़ा खोलकर वो फिर से बिस्तर पर जाकर लेट गई।

तभी कमला ने चाय के लिए पूछा। कितनी ही बड़ी पोस्ट पर वो पहुंच गई थी पर आज भी बिना नहाए और भगवान के सम्मुख शीश नवाकर उनका आर्शीवाद लिए बिना उसने एक निवाला भी कभी अपने मुंह में नहीं डाला था। वो उठी और अपनी दैनिक दिनचर्या से निवृत होकर एवं भगवान के सामने कुछ क्षण बिताकर डाइनिंग टेबल पर आकर बैठ गई।

वो अभी बैठी ही थी कि हल्की कुनमुनी धूप की कुछ किरणें उसके मुख मंडल को स्पर्श करने लगी। वैसे भी नवंबर का महीना था। मौसम में सर्द हवाओं का आगाज़ होने लगा था। सुबह की हल्की हल्की धूप शरीर को भाने लगी लगी थी। अपराजिता का तो वैसे भी ये सबसे मनपसंद मौसम था। काम की भागादौड़ी में उसको ये सब एहसास अनुभव करने का समय नहीं मिलता था पर आज जब थोड़ा समय मिला तो वो इस लम्हें को बटोरने का मोह नहीं छोड़ पाई।

कमला को चाय नाश्ता उसको मिली सरकारी कोठी के लॉन में ही लगाने के लिए बोलकर वह बाहर आ गई। सरकारी कोठी चाहे कितनी भी पुरानी क्यों ना हों पर उनके अंदर लगे वृक्षों और पौधों के विन्यास देखते ही बनते हैं। इन सब के साथ इस मौसम में आने वाले तरह तरह के रंगीन फूल बगीचे की सुंदरता में चार चांद लगा रहे थे। 

कमला चाय नाश्ता भी रख गई थी। फुर्सत के पलों में चाय के साथ अखबार पढ़ना उसकी पुरानी आदत में शुमार था। अखबार में किताबी कोना नामक पृष्ठ को पढ़ना उसको सबसे अधिक भाता था। विभिन्न साहित्यिक किताबों को पढ़ना और उन्हें अपनी लाइब्रेरी में सहेजना उसका शौक था। आज भी उसने सबसे पहले वो ही पृष्ठ खोला।

वहां पर आज उसको अपने ही नाम पर आधारित लौट आओ अपराजिता शीर्षक पर लिखी पुस्तक की समीक्षा पढ़ने को मिली। जिसे किसी अज्ञात लेखक ने लिखा था पर पुस्तक की भाषा,कथानक और विन्यास की कई बड़े लेखकों द्वारा उन्मुक्त प्रशंसा की गई थी।पुस्तक की इतनी प्रशंसा पढ़कर वो अपने आप को नहीं रोक पाई,उसने दिए हुए लिंक पर क्लिक किया वो अभी ऑर्डर करने ही वाली थी कि उसके घर की घंटी बजी।

वो सोच में पड़ गई कि कौन होगा,क्योंकि इस शहर में तो उसकी जान पहचान वाला कोई भी नहीं था। वैसे भी उसकी नौकरी ऐसी थी कि घर से भी कोई बिना सूचित किए कोई नहीं आता था। वो कुछ और सोचती तभी कमला ने आकर एक कोरियर उसके हाथों में थमा दिया। कोरियर को खोलते ही लौट आओ अपराजिता पुस्तक उसकी नज़रों के सामने थी।

भेजने वाले प्रेषक में शहर के बड़े बुक स्टोर का नाम और पता दिया था वहां फोन करने पर पता चला कि किसी व्यक्ति ने अपना नाम और पता बताए बिना अपराजिता तक ये पुस्तक जल्द से जल्द पहुंचाने का अनुरोध किया था। पुस्तक को खोलने पर उसने देखा कि लिखा तो उसको किसी अज्ञात लेखक ने था पर प्रारंभिक पन्ने पर लिखी कुछ पंक्तियां जो कि इस तरह से थी कि ये पुस्तक जिसको समर्पित है वो उसके जीवन में पूर्व कर्मों का आर्शीवाद बनकर आई थी पर वो दुनिया की चकाचौंध में सरलता से मिले उस आर्शीवाद का मान नहीं रख सका।

अपने झूठे दंभ और गलत आदतों में पड़कर उसने उस पारस को हमेशा के लिए दूर कर दिया। आज भी वो अपनी अपराजिता की प्रतीक्षा में है इसलिए बस वो इतना ही कहना चाहता है कि “लौट आओ अपराजिता” उसका ध्यान बरबस ही अपनी तरफ खींच रही थी।पता नहीं क्यों उसे ऐसा लग रहा था कि ये पुस्तक उसके लिए लिखी गई है।उसने सोच लिया था कि आज का पूरा दिन वो इस पुस्तक को पढ़ने में बिताएगी।

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लौट आओ अपराजिता (भाग 2)

लौट आओ अपराजिता (भाग 2) – डॉ. पारुल अग्रवाल : Moral Stories in Hindi

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

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