क्या मेरी कोई अहमियत नहीं? – विभा गुप्ता : Moral stories in hindi

    ” मम्मी….आपके घर में रहने के लिये मुझे थोड़ी जगह मिलेगी?” रोते हुए छवि अपनी माँ प्रेमलता से पूछने लगी।

   ” ये तू क्या कह रही है छवि!…शशांक जी कोई बाता-बाती हुई है क्या या फिर बच्चों से…।” 

  ” सबसे…आप मना कर देंगी तो मैं कहीं और…।” बात अधूरी रह गई और छवि ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी।

        पंद्रह साल पहले छवि की शादी शशांक के साथ हुई थी।शशांक देखने में हैंडसम था और मुंबई महानगर के ओएनजीसी कंपनी में काम करता था तो छवि भी कम सुंदर नहीं थी।अपने शहर के नामी काॅलेज़ से उसने राजनीति शास्त्र में एमए किया था।साथ ही, वह पेंटिंग-सिंगिंग में भी रुचि रखती थी।सास-ससुर पहले ही गुज़र चुके थे, ससुराल के नाम पर एक जेठ-जेठानी थी जिन्हें वह पूरा सम्मान देती थी।

       विवाह के बाद जब छवि मुंबई आई तो कंपनी से मिले क्वाटर को उसने बड़े प्यार से सजाकर घर बनाया।हर काम वह शशांक से पूछकर करती क्योंकि शिक्षित होने के बाद भी उसके माता-पिता ने उसे पति को अहमियत देने का संस्कार दिया था।शशांक के लिये मनपसंद खाना बनाना और उसकी इच्छा के अनुरूप ही अपनी पसंद बना लेना उसे अच्छा लगता था परन्तु वह यह भी चाहती थी कि शशांक उसके काम की प्रशंसा करे।

        एक दिन छवि ने आलू के पराँठे बनाये।आलू के साथ ही पनीर भी मिक्स करके स्टफ़ किया था।घी की जगह बटर लगाया जिससे पराँठे बहुत स्वादिष्ट बने थे।खाने के बाद उसने उत्साह-से पूछा कि पराँठे कैसे बने थे? शशांक बोला,” अच्छे थे लेकिन भाभी जैसे नहीं।उनके हाथ में तो जादू है।” सुनकर वह उदास हो गई।किसी तरह से उसने अपने मन को समझाया और जेठानी को फ़ोन करके पराँठे की रेसिपी पूछी।वह हर हाल में शशांक को खुश करना चाहती थी।

       साल भर बाद उसकी गोद में नन्हा-सा अंकित खेलने लगा।वह उसी में व्यस्त हो गई।अंकित के दो साल पूरा होते ही उसकी गोद में रश्मि आ गई।अब वह अपने दोनों बच्चों में ही उलझ गई थी…शशांक को समय नहीं दे पा रही थी।ऑफ़िस जाते समय शशांक को बाय भी नहीं कह पाती थी।

छुपा दुश्मन –  उषा शर्मा

         एक दिन शशांक का पुराना बाॅस मुंबई आया हुआ था।वह उन्हें डिनर पर घर बुलाना चाहता था।छवि ने कहा कि रश्मि को बुखार है…उसे छोड़कर मैं कैसे…आप किसी और दिन…।इतना सुनते ही शशांक उस पर झल्ला उठा,” बीमार है तो क्या हुआ…आदमी खाना नहीं खायेगा।तुम्हें तो काम न करने के बहाने…।” दिन-भर बच्चों के साथ खटती हूँ..प्रशंसा के शब्द की जगह ये सब सुनने को मिलेगा…ये तो उसने सपने में भी नहीं सोचा था।परन्तु उसके पास रोने के लिये वक्त नहीं था…उसने रश्मि को दवा देकर सुलाया और अंकित का होमवर्क कराने बैठ गई।

     एक दिन छवि ने बड़े चाव से शशांक के पसंद की भरवाँ भिंडी बनाई। भिंडी मुँह में रखते ही शशांक चीख पड़ा, ” उफ्फ़! कितनी मिर्ची डाली है तुमने…।” और वह खाना छोड़कर उठ खड़ा हुआ।कुछ दिनों के बाद उसे मिस्टर शर्मा के यहाँ डिनर पर जाना था।इत्तेफ़ाक से मिसेज़ शर्मा ने भिंडी की ही सब्ज़ी बनाई थी।तब तो शशांक ऊँगलियाँ चाटते हुए बोला,” वाह भाभीजी…क्या सब्ज़ी बनाई है।ज़रा हमारी एमए पास श्रीमती जी को भी सिखा दीजिये।” मिसेज़ शर्मा तो मुस्कुरा दी लेकिन वह तो बस अपने अपमान का घूँट पीकर रह गई।दिल किया कि अभी के अभी सब छोड़कर कहीं चली जाए।जहाँ उसकी कदर ही न हो तो वहाँ क्यों रहे।परन्तु नारी का गुस्सा जितनी तेजी से चढ़ता है..बच्चों का मुख देकर उतनी ही तीव्रता से उतर भी जाता है।

         अब छवि के दोनों बच्चे बड़े होने लगे थे।रश्मि पाँचवीं में थी, उसका रिजल्ट अच्छा रहता था।अंकित सातवीं में था..उसके गणित विषय में नंबर कम आ रहे थे।मिड टर्म में जस्ट पास ही हो पाया था।तब फिर शशांक ने उसपर ताना कसा,” काहे का एमए की हो…बेटे को ठीक से पढ़ा भी नहीं सकती हो।मिसेज़ शर्मा का बेटा भी तो अंकित के ही क्लास का है।उसके देखो…।”

    अब वह चुप नहीं रही..तपाक-से बोली,” मिस्टर शर्मा अपने बेटे को पढ़ाते हैं।मैंने तो दो-तीन बार आपको कहा भी कि अंकित को मैंथ्स पढ़ा दीजिये…।”

    ” मिस्टर शर्मा की तरह मैं खाली थोड़े ही हूँ…ऑफ़िस में बहुत काम करना पड़ता है।” अकड़कर शशांक बोला तो छवि ने भी कुछ कहा।दोनों में बहस होने लगी और बच्चे मूक दर्शक बने रहे।

       इसी तरह दिन बीत रहे थें।बच्चों की फ़रमाइश पर उसने रिबन सैंडविच बनाया।एक बाइट लेते ही अंकित बोल पड़ा,” क्या मम्मी…टमाटर के टुकड़े छोटे करने थे ना।” तपाक-से रश्मि बोली, ” दिव्या आंटी कितनाsss यम्मी बनाती हैं।” पति तो पति…अब बच्चे भी…, वह तिलमिला गई,” चुप कर!…मेरा नुक्स निकाल रहे हो

…तो कल से लंच भी दिव्या आंटी के हाथ का ही खाना।”

मास्टर जी – सीमा प्रियदर्शिनी सहाय : Moral stories in hindi

  ” पापा भी तो आपको बोलते हैं..उन्हें तो कुछ नहीं कहती…।” अंकित रुआँसा हो गया।उसने शशांक से कहा,” अब से आप मेरी इंसल्ट हर्गिज़ नहीं करेंगे।बच्चों पर इसका गलत प्रभाव पड़ता है।आखिर मेरी भी कोई अहमियत है कि नहीं…।”

  ” है ना…झाड़ू-पोंछा वाली..हा-हा..।” शशांक के शब्द उसके कानों में पिघले शीशे के समान लगे थे।

     आज तो बच्चों ने हद ही कर दी…अंकित अपना शर्ट छवि को दिखाते हुए बोला,” मम्मी…ये कैसा प्रैस किया है आपने…पापा ठीक कहते हैं कि आप किसी काम की नहीं है।” वहीं खड़ी रश्मि भी शायद कुछ कहती लेकिन वह अपने आँसुओं को पोंछते हुए वहाँ से चली गई और बाथरूम में जाकर फूट-फूटकर रोने लगी।किसी ने सच ही कहा कि जब पति की नज़र में ही आपकी कोई अहमियत न हो तो किसी से क्या उम्मीद करे।इसीलिये उसने सोचा कि बच्चे तो बड़े हो गये…अब उसकी क्या ज़रूरत! 

      अंकित-रश्मि के स्कूल जाते ही उसने माँ को फ़ोन लगाया और रोने लगी।प्रेमलता जी बोली,” थोड़ा क्यों…पूरा घर तेरा है बेटा।कभी भी आ जा…नासिक है ही कितनी दूर..।” 

  ” जी मम्मी…।” कहकर छवि ने फ़ोन डिस्कनेक्ट किया; बच्चों के कपड़े तैयार कर दिये; अपना बैग रेडी किया; एक नोट लिखकर घर में ताला लगाया और चाभी फुटमैट के नीचे रखकर रेलवे-स्टेशन के लिए रवाना हो गई।

         मायके पहुँचकर छवि मम्मी के गले लगकर रो पड़ी।हमेशा मुस्कुराते रहने वाली अपनी बेटी का उदास-मायूस चेहरा देखकर प्रेमलता जी कलेजा मुँह को आ गया।माँ को पूरी बात बताते हुए छवि बोली,” मम्मी…, पापा ने आपको हमेशा मान दिया है.., अहमियत दी है..कभी आपसे ऊँचे स्वर में बात नहीं किया..निखिल भाई ने भी भाभी को सदैव सम्मान दिया है फिर शशांक मेरे साथ…।क्या मेरी कोई अहमियत नहीं है?” 

   ” है ना मेरी लाडो…,स्त्री-पुरुष और बच्चे-बड़े..सबकी अपनी अहमियत होती है।अब चल…फ़्रेश हो जा..माँ-बेटी साथ में चाय पीते हैं…।”

     स्कूल से आने पर बच्चों ने दरवाज़े पर ताला देखा तो फुटमैट के नीचे से चाभी निकाल ली।कपड़े बदलकर दोनों ने टेबल पर रखा खाना खाया और मम्मी का लिखा नोट पढ़कर रश्मि बोली,” हुर्रsss! मम्मी नानी के पास गई है…।”

“रिश्तों की लक्ष्मण रेखा” – कविता भड़ाना : Short Stories in Hindi

 ” हाँ…अब खूब मस्ती करेंगे…।” अंकित चहक उठा।शशांक ने भी सोचा कि कुछ दिन तक तो शांति रहेगी।

      अगले दिन दोनों बच्चों की स्कूल-बस छूट गई।शशांक कार से उन्हें स्कूल छोड़ने गये तो स्वयं ऑफ़िस देर से पहुँचे।रात को घर आये तो देखा कि बच्चे बिस्कुट खाकर ही सो गये थें।अंकित और रश्मि एक-दूसरे पर आक्षेप लगाने लगे कि तेरी वजह से मम्मी चली गई है।उस वक्त शशांक को समझ आया कि एक स्त्री की पत्नी और माँ के रूप में क्या अहमियत होती है।छवि अपनी दोनों भूमिकाओं को बखूबी निभाती थी..बस उसी ने उसकी कदर नहीं की।

     छवि के बिना उसे घर काटने लगा था।उसने छवि को फ़ोन लगाया…।शशांक का नंबर देखकर छवि खुश हुई लेकिन फिर उसने अपने मन को मार लिया।अंकित के फ़ोन को भी छवि ने इग्नोर कर दिया तब शशांक ने अपनी सास को फ़ोन लगाया…अपने किये की उसने माफ़ी माँगी…बच्चों ने भी कहा कि नानी…प्लीज़…मम्मी को मना लिजीए।

         अगली सुबह काॅलबेल बजी तो प्रेमलता जी ने कहा,” छवि…ज़रा दरवाज़ा तो खोल दे..शायद चंपा(कामवाली) आई होगी।” 

       दरवाज़ा खोलते ही छवि चकित रह गई।अंकित और रश्मि उससे लिपट गये तो उसकी आँखें छलक उठीं।शशांक तो वहीं अपने दोनों कान पकड़कर बोला,” माफ़ कर दो छवि…तुम्हारे न रहने पर ही हमने तुम्हारे महत्त्व को समझा।प्लीज़..चल कर अपना घर संभालो..।”

  ” चलो ना मम्मी…।” दोनों बच्चे छवि की ऊँगलियाँ पकड़कर बोले तो उसने अपनी माँ की ओर देखा जो उसे देख-देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रहीं थीं।

    छवि और शशांक ने प्रेमलता जी के चरण-स्पर्श किये और गाड़ी में बैठ गये।बच्चे तो बहुत खुश।रास्ते में एक जगह पर शशांक ने गाड़ी रोकी…अंकित-रश्मि को जूस दिलवाकर शशांक ने दो काॅफ़ी मंगवाई।

   ” दो काॅफ़ी क्यों? आप तो काॅफ़ी लाइक नहीं करते।” छवि ने आश्चर्य-से पूछा।

  ” अब तो तुम्हारी पसंद ही मेरी पसंद है।” शशांक ने छवि की आँखों में देखा तो शर्म से उसके गाल लाल हो गये।

                                    विभा गुप्ता 

# अहमियत                      स्वरचित 

         रिश्तों में सुधार लाने की कोई उम्र नहीं होती।जब जागो तब सवेरा।शशांक को समझ आ गया कि एक-दूसरे की भावनाओं की कदर करने से ही रिश्ते मजबूत बनते हैं और परिवार में खुशहाल रहता है।  

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!