जिस्म…। – स्मिता सिंह चौहान

मुझे सिखाएगी कि कैसे रहना है?साली …।”कहते हुए एक शरीफ से दिखने वाला आदमी जोर से चिल्लाकर  ,  एक  औरत के मुंह पर एक तमाचा कस देता है ।पास की दुकान मे खड़ी रूही उस नुक्कड की तरफ भागते हुए गई, जहा पर भीड तमाशबीन थी,और वो आदमी  जोर जोर से चिल्लाकर अपनी आवाज से जैसे किसी बात को दबाना चाह रहा था।

“हलो..हलो…भाईसाहब क्या मै पूछ सकती हू ?कि आपने क्यो मारा इन्हे?”रूही ने उस औरत की तरफ इशारा करते हुए कहा।

“आपको इससे क्या मतलब?हमारा आपस का मामला है ।आप जाइये यहा से।ले पकड 500 रूपये और चलती बन ,वर्ना …..साली बाजारू औरत ।”उस लडकी की तरफ 500 का नोट बढाते हुए अकड़ के साथ बोला।रूही ने उसके मुॅह से ये शब्द सुनते ही ,उस लडकी की तरफ देखा सर झुकाकर खड़ी वह लडकी,जो एक घबराहट के साथ इधर उधर देख रही थी,जैसे किसी के आने का डर हो उसे।उम्र भी कोई खास नही 16 या 17 से ज्यादा नही।छरहरा ,पतला सा बदन ,हा कपड़े कुछ चमकदार ,कुछ बेढंगे से ।रूही को समझते देर नही लगी कि उसका जिस्म आज उस शरीफ से दिखने वाले आदमी के मुह का निवाला बना है।

“नाम क्या है तुम्हारा?”रूही ने उस लडकी से पूछा।लेकिन जैसे वो उसकी बात सुनकर भी अनसुना कर रही थी, “देखो साहब ,1500 मे बात तय हुई थी।जमना मौसी का आदमी आता ही होगा मुझे लेने ।मै उसे बाकि 1000 रूपया कहा से देगी।”

“1000 रूपये की तो बात है ,हमसे ले ले ।आजा चल।”नुक्कड पर खड़े एक दूसरे आदमी ने अपनी ललचायी नजरो का हाथ उस पर रखा।

“छी…घिन नही आती तुम लोगो को ,इसकी उम्र की बेटी घूम रही होगी तुम्हारे आगन मे। तुम इस बच्ची को ऐसा बोल भी कैसे सकते हो?”रूही के अन्तर्मन मे एक औरत के प्रति, समाज के इस घिनौने स्वरूप का आक्रोश जैसे बोल पढा।



“मेमसाहब, अब अच्छे घर की लगती हो।आप जाइये ,इस तरह की औरतो का साथ देना आपको शोभा नही देता।आप घर जाइये।इनका रोज का काम है ,अपनी मजबूरी का रोना रोकर अपने जिस्म को बेचना।”वह आदमी शराफत का नकाब ओढकर बडी बडी बाते कर रहा था।

“आपका नाम क्या है ?क्या मै जान सकती हू?”रूही ने उस आदमी से सवाल किया।

“नितिन, नितिन नाम है मेरा।ये जो सड़क पार शापिंग काम्प्लेक्स देख रही हो ना  मेरा है।”उसने बडे गर्व से कहा।

“ओह..नितिन जी क्या आप मुझे एक बात का जवाब देगे, इस लडकी का  जिस तरह आप व्याख्यान कर रहे है कि मजबूरी का रोना ,ये सब।आपकी कौन सी ऐसी मजबूरी है जो आप जाते है इसके पास?चलो मान लिया इसकी कोई मजबूरी थी इसने बेचा अपना शरीर ,आपकी कौन सी मजबूरी थी इसका शरीर खरीदने की।हो सकता है ये हालात से मजबूर रही हो ,तो आप कौन से हालातो से मजबूर हो कि जो यहा पर पैसो के जोर पर इसका शरीर नोच कर खाया है ,आपकी क्या मजबूरी थी।आप इसे उन्ही पैसो से ,बिना इसके जिस्म को हाथ लगाये शराफत की चादर उड़ा भी तो सकते थे।आप इसे बच्ची की नजर से देखकर उस दलदल से,निकाल भी तो सकते थे।”रूही ने भरी भीड मे खड़े हर आदमी को एक ऐसा आईना दिखाने की कोशिश की जहा पर कपड़े समेत हर कोई अपने को नग्न महसूस कर रहा था।

“तू यहा क्या टाईम खोटी कर रही है?काम हो गया ना चल दूसरी बुकिंग आयी है।”एक पान चबाता हुआ आदमी सामने से आते हुए बोला।उस लडकी की घबराहट की वजह रूही को सामने से आती हुई दिखाई दे रही थी,रूही ने अपने फोन पर नम्बर डायल करते हुए, उस लडकी का हाथ अपनी तरफ खीचा, तो वो भी जैसे उसके उस सहारे की प्रतीक्षा कर रही थी।उसके पीछे आकर खड़ी हो गयी,”तुम इसे नही ले जा सकते यहा से ।”रूही ने उसको रोकते हुए कहा।

“देख ,तू जो भी है हठ सामने से।धंधे के वक्त मगजमारी नही करता मै। “वो मोटा सा आदमी कडक आवाज मे बोला।तभी एक कार आकर रूकती है ,जिसे देखते ही रूही उस लडकी के साथ उस तरफ भागती है “अच्छा हुआ दी ,आप टाईम पर आ गयी।ये आदमी के आगे मै ज्यादा देर टिक नही पाती।”


“हां जी ,पुलिस भी आती होगी।अब ये लडकी यहाॅ से मेरे NGO मे  साथ जायेगी।”कहते हुए मीनाक्षी ने उस लडकी को अपनी कार मे बैठाया ही था कि पुलिस की गाड़ी सामने से आते हुए दिखाई दी।वहा पर खड़े लोगो ने भागते हुए उस आदमी को धर दबोचा।कुछ फारमैलटी के पूरा होने के बाद रूही ,और मीनाक्षी उसे लेकर NGO की तरफ निकल पड़े “अब तो बताओ तुम्हारा नाम क्या है?”रूही ने फिर पूछा।

“शमा ,यही बुलाते थे वो लोग। “उसने अपना नाम बताते हुए कार की खिड़की का दरवाजा खोला।

“रूहानी”अब दुनिया तुम्हे इस नाम से जानेगी।कहते हुए रूही ने उसका हाथ पकड़कर उसे जैसे नयी जिंदगी का आश्वासन दिया।

दोस्तो, यह कहानी समाज के एक ऐसे पहलू पर प्रकाश डालती है ,जहा जिस्म को बेचने वाला तबका  बदनाम हो जाता है,लेकिन उसे खरीदने वाला शरीफ। कैसे?इस पर प्रतिक्रिया अवश्य दे।

आपकी दोस्त,

स्मिता सिंह चौहान,

(स्वरचित और मौलिक)

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