इत्तफाक – विजया डालमिया 

पर फड़फड़ाते हैं अरमानों के अल्फाज बनकर

उतर जाते हैं पन्नों पर कोई कहानी बनकर।

वह एक गुनगुनाती, मुस्कुराती सुबह थी ।मैं कार से उतर कर अपनी धुन में आगे बढ़ रही थी। इतने में ही एक बाइक मेरे बगल से तेजी से निकली ।सड़क पर थोड़ा कीचड़ था जिसके छीटों ने मेरे कपड़ों को खराब कर दिया ।मैंने चिढ़  कर देखा तब तक तो बाइक आगे बढ़ चुकी थी ।खैर मुझे रोड क्रॉस कर के सामने बुक शॉप में जाना था ।मैं वहाँ पहुँची । 

मैंने देखा दुकानदार भगवान की फोटो के सामने अगरबत्ती जला रहा था ।शायद अभी-अभी वह भी पहुँचा  था ।मेरी आहट  से  वो पलटा और कुछ देर मुझे देखता ही रह गया। मुझे थोड़ा अजीब सा लगा। उसने तुरंत कहा …”सॉरी”। मैं समझ नहीं पाई ।मैंने कहा ….”कोई बात नहीं।आप आराम से पूजा कर सकते हैं” । वह बड़ी शालीनता से पूछने लगा…..” कहिए, मैं आपकी क्या खिदमत कर सकता हूँ”? मैंने कहा…. “वह अभी कुछ दिनों पहले ही एक बुक पब्लिश हुई है ना जिस के लेखक हैं “…

..मेरी बात पूरी सुनने के पहले उसने वह बुक मुझे थमा दी। मैंने पैसे देने के लिए जैसे ही पर्स खोला वह बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर बोल उठा….” प्लीज रहने दीजिए”। मैंने कुछ आश्चर्य के साथ उसे देखा तो वह कहने लगा ….”आज सुबह-सुबह मुझसे एक गलती हो गई है”। मैं कुछ समझी नहीं तो वह फिर से कहने लगा ….”मैं आपसे माफी माँगता हूँ। दरअसल कभी-कभी ऐसा हो जाता है “।मैं  अब  भी कुछ भी समझ नहीं पा रही थी ।

तभी उसने बाहर खड़ी बाइक की ओर इशारा किया और खुद के कान पकड़ लिए। मैं अब सारी बात समझ गई ।मेरे होठों पर मुस्कुराहट आते ही उसने कहा….” कर दिया ना अब आपने मुझे माफ “?और मैंने कहा… “जी दाग अच्छे है इसीलिए अब आपको पैसे लेने होंगे “।….”ठीक है ।पर एक शर्त  है”। उसने कहा ।मैंने कहा…. “कहिए “….”आज एक बुक मैं आपको अपनी तरफ से देना चाहता हूँ। इंकार मत करिएगा और पढ़कर जरूर बताइएगा मेरी पसंद कैसी है।  उसने मेरे जवाब का इंतजार किए बिना ही मुझे वह किताब थमा दी ।

….”कविताएं ?आपको कविताओं का शौक है?… “जी ।थोड़ा बहुत” कह कर उसने मेरी आँखों में देखा। फिर कहा …”यूँ तो कविता और कहानी दोनों ही एक दूसरे से जुड़े हैं”… “पर बस कविता को आप गुनगुना भी सकते हो और कहानी एक एहसास बनकर हमारे दिल में उतर जाती है”। मेरे इतना कहते ही वह खुश हो गया और कह उठा …..”करेक्ट “।मैंने कहा….” अब इजाजत ” उसने कहा…. “फिर कब मिलोगी”? …”जल्दी ही। आपकी बुक लौटाने ।और वहाँ से चली आई ।



कार में बैठकर मैंने पहले उसकी कविता वाली बुक खोली। है ना कितनी अजीब बात? पसंद मुझे कहानियाँ थी ।तभी तो खरीदने गई थी ।पर उसकी दी किताब को खोलते वक्त अजीब सी बेचैनी थी कि …देखूँ  तो सही ।क्या है?सबसे पहली कविता थी

सर्द हवाओं का मंजर था। तन्हाई का खंजर था। बेइंतहा दर्द था और उनकी यादों  का लंगर था।

यूं तो मैं कविता ज्यादा पसंद नहीं करती ।पर ना जाने क्यों यह लाइनें मुझे किसी के अकेलेपन का एहसास कराते चली गई। मैंने सारी कविताएँ धीरे-धीरे पढ़  ली। सोचने लगी  सारी कविताएँ जिसने भी लिखी है प्यारा तो है ही, पर तन्हा भी बेमिसाल है। कवि का नाम सभी कविताओं में “शिव” लिखा हुआ था। मैंने मन ही मन कहा …”वाह शिव”।

एक दिन मेरे कदम फिर मुझे वहीं ले गए। जाकर मैंने देखा तो वहाँ वह नहीं था। कोई बुजुर्ग  बैठे थे। मेरी समझ में यह नहीं आया कि मैं किस तरह उन्हें पूछूँ कि वह कहाँ है? कितना अटपटा  सवाल होता यह। मुझे खुद पर कोफ्त होने लगी ।वे मुझे एकटक देख रहे थे ।तभी उन्होंने पूछा …”बोलो बेटा”। मैंने कहा ….”जी  यह किताब मैं ले गई थी। वही लौटाने आई हूँ”।

…ओह ,तो वह तुम हो। बैठो बेटा”। कहकर वो कहने लगे ….”शिव रोज मुझसे पूछता था कि पापा कोई मेरी बुक लौटाने आया क्या ?अगर आए तो मुझे कॉल करके बुला लेना। दरअसल हमेशा मैं ही यहाँ बैठता हूँ। उस दिन तबीयत ठीक नहीं होने की वजह से शिव बैठा था ।कैसी लगी तुम्हें उस की कविताएँ “?ओह …तो वह खुद शिव है ।सोच कर मैं अचानक चुप हो गई।

 उन्होंने मुझे देख कर कहा ….”जरूरी नहीं बेटा कि सबको सबका लिखा पसंद  हीआए “।सुनते ही मेरे मुँह से निकल गया …”अरे नहीं अंकल बहुत अच्छा लिखा है उन्होंने “।तो वे कहने लगे…. “हाँ बेटा मैं जानता हूँ ।दर्द को शब्दों में ढालना जितना मुश्किल होता है,कविता उतनी ही बढ़िया बनती है”। मैंने हैरानी से उन्हें देखा तो पाया उनकी आँखों में बेबसी आँसू बन के चमक रही थी।

 मैंने उन्हें पढ़ने की कोशिश की। वे कहने लगे….” शिव हमारी इकलौती संतान  जो बहुत मन्नतों के बाद हमें मिली ।पर यह अपनी माँ के साए से जल्दी ही महरूम हो गया। हालांकि मैंने उसे माँ की कमी कभी महसूस नहीं होने दी। फिर भी कभी-कभी वह उदास आँखों से मुझ से पूछता….” माँ कहाँ चली गई पापा “?तो मैं उसे चमकते सितारों को दिखाकर कहता….” वह देखो उपर तारे ।



उनमें से एक तुम्हारी माँ है।…. “और बाकी “?पर उसका जवाब वह कभी नहीं सुनना चाहता था ।बस सिर्फ पूछता ही था। इतनी सी उम्र में भी वह दूसरों की पीड़ा महसूस कर रहा था ।तो फिर तुरंत बात बदल कर कहता ….”पापा चाँद  बहुत खूबसूरत है ना”? और मैं कहता ….”तेरे लिए ऐसी ही चाँद सी दुल्हन लाऊँगा” और वह जो भी समझता तुरंत खिलखिलाकर हँस  देता।

 बचपन के दिन इसी तरह बीत गए। बड़ों को यह एहसास जल्दी नहीं होता कि बच्चे बड़े हो गए हैं। पर बच्चों को बहुत जल्दी यह एहसास हो जाता है कि हम बड़े हो गए। कॉलेज के दिनों में शिव की मुलाकात नंदा से हुई। वे दोनों बहुत तेजी से एक दूसरे के करीब आ गए। मैं भी कई बार नंदा से मिला । मुझे भी बहुत पसंद आ गई। थी ही वह बेहद खूबसूरत।” 

कहकर उन्होंने मुझे देखा ।…”बिल्कुल तुम्हारी तरह” कहकर नजर मुझ पर टिका दी ।मैंने कहा… “फिर”?…. फिर कुछ दिनों से वह उदास सा रहने लगा था। शिव जो हर बात मुझसे शेयर करता था। छुपाने लगा था। पूछने पर कुछ नहीं कहता ।”बस यूँ ही” कह कर उठ कर चला जाता। बात की तह तक पहुँचने के लिए मैं एक रोज नंदा के घर जा  पहुँचा । 

दरवाजा खटखटाने पर किसी की आवाज आई…” खुला है। आ जाइए। मैं जैसे ही दरवाजा खोलकर अंदर पहुँचा  तो  सामने जो लेडी थी मैं उसे देख कर ही समझ गया कि यह नंदा की माँ ही होगी। मुझे नमस्कार करते हुए वे बोली …”आइए भाई साहब “।मैंने कहा….” आप मुझे जानती हैं” ?…”जी”…” कैसे”?….. “वैसे ही ।जैसे आप नंदा को जानते हैं”। मैंने पूछा…” नंदा कहाँ है “?तो उन्होंने अंदर रूम की तरफ इशारा किया। मैं जैसे ही वहाँ गया तो मेरी आँखों को यकीन नहीं हो रहा था यह वही नंदा है जो मुझसे मिलती रही। मेरी आँखों में उमड़ते सवालों को देख उसकी माँ ने सूनी आँखों से उसकी तरफ देखते हुए कहा ….”इसे कैंसर है। वह भी लास्ट स्टेज पर”।



मैं  धम से वहीं बैठ गया। मुझे शिव की सारी परेशानी, उदासी समझ में आ गई। उसकी माँ ने मुझे पानी दिया और कहने लगी…. भगवान पता नहीं किस स्याही से मुकद्दर लिखता है जो किसी -किसी के लिए सिर्फ आँखों में पानी लाती है”। मैंने कहा….” जी बहनजी। मेरा शिव तो बचपन से ही बदनसीब रहा “।मैंने नंदा के सर पर हाथ फेरा और वहाँ से चला आया ।

घर जाकर देखा तो शिव शून्य  में निहारते खामोशी के साथ बैठा था ।जैसे ही मैं पहुँचा  वह मुझसे बच्चे की तरह लिपट गया यह कहते हुए कि….” पापा आप कहाँ चले गए थे? मैं कितना डर गया था “।मैंने उसके आँसू पोंछे और कहा…. “मैं तुझे छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा”। वह भी शायद एक सुकून भरा पल था जब शिव ने अपनी पीड़ा सिर्फ एक शब्दों में ही मुझे बता दी। उसके बाद नंदा चल बसी। हम बाप बेटे फिर पहले ही की तरह अकेले हो गए। वैसे तो दो लोग अकेले कैसे हो सकते हैं? फिर भी दो लोगों के साथ   होने के बावजूद अपने आप में अकेले होना ही शायद अकेलापन है ।एक दिन मैंने शिव को कुछ गुनगुनाते हुए सुना। मैंने कहा ….”बड़ा सुंदर गीत है बेटा “।

उसने कहा…” पापा ,आपको अच्छा लगा “?मेरे हाँ कहने पर उसने अपनी कविताएँ मुझे दिखाई जिसमें उसका पूरा दर्द मुझे नजर आ रहा था ।औरों के लिए कविता ही होती। पर मैंने उसमें उसकी तन्हाई, बेबसी और पीड़ा सब पढ़ ली। फिर वही किताब के रूप में तुम्हारे सामने है। बेटा तुम कहो ..”कैसी लगी तुम्हें”?। मैंने अपनी आँखों में आए आँसुओं को पीते हुए कहा …”बहुत अच्छी है अंकल”। तभी हमें बाइक की आवाज सुनाई दी। पलट कर देखा तो शिव चले आ रहा था।

….” बेटा, तुम्हें तो मैंने फोन भी नहीं किया। फिर तुम कैसे”?…” अरे पापा यहाँ से गुजर रहा था। इनकी गाड़ी दिखी तो चला आया।  मैंने कहा…. “आपकी कविताएँ ….वह बहुत हैरान होकर के पहले मुझे फिर अपने पापा को देखने लगा। तभी अंकल ने कहा…. “मैंने बताया है”। …” आप भी ना पापा “कह कर वह सर खुजाने लगा ।….”आपको पसंद आई मेरी कविता”?

 मैंने हामी में सर हिलाया। तभी उसके पापा बोले…” मैं अभी आता हूँ ” कहकर चले गये । शायद वह हमें अकेले छोड़ना चाहते थे। पर क्यों ?तभी शिव कहने लगा….” मेरा नाम तो आपको पता ही है। क्या मैं भी आपका नाम जान सकता हूँ “?

मैंने उसे गहरी नजरों से  देखा और कहा…” जी। मैं नंदा”। यह सुनते ही उसे एक झटका लगा ।उसने कहा….” यह नहीं हो सकता”। हालांकि यह उसने अपने आप से बहुत धीरे से कहा था ।फिर भी मैंने सुन लिया। मैंने कहा….” नाम इत्तेफाकन एक जैसे हो सकते हैं”। तब उसने कहा…” जी, पर हर बात में इत्तफाक नहीं होता”। कहते हुए उसने एक फोटो मेरे सामने रख दी। जिसे देखकर मैं चौंक पड़ी क्योंकि वह हूबहू मेरी हमशक्ल थी। अब मेरे होंठ बुदबुदा उठे….  “ऐसा नहीं हो सकता”

किसी खामोश कहानी की तरह रहता है।

दर्द हर आँख में पानी की तरह रहता है।

विजया डालमिया  

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