तुम्हीं  मेरी बेटी तुम्हीं  बहन हो – पूनम अरोड़ा

शीनू शादी के बाद जब भी पिता से कहती कि “इस बार भाई दूज पर शायद न आ पाऊँ ” तो पिता की उल्लसित आवाज एकदम बुझ जाती, क्षीण हो जाती लेकिन फिर भी वो बार मनुहार करके इमोशनल ब्लैक मेल करते कि “तुम्हारे  भाईयों  को निराशा होगी उनका मस्तक सूना रह जाएगा  ,त्यौहार की रौनक फीकी हो जाएगी फिर हम भी  दीवाली से ही तुम्हारे इंतजार  में  रहते हैं  और फिर मेरी बहन भी नहीं है तुम्हीं  मेरी बेटी तुम्हीं  बहन हो।

मै  भी  टीका लगाने के लिए तुम्हारी  राह देखता रहता हूँ  चाहे एक दिन को आ जाना बेटा !!माँ भी उदास हो रही हैं  तुम्हारी ।”

उनकी इतनी भीगी सी आवाज और भीगे एहसासों  को महसूस  कर शीनू खुद को वहाँ  जाने से रोक नहीं  पाती थी ।कभी-कभी  तो वो जानबूझकर  भी अपनी मनुहार  करवाने को पापा से आने को इंकार  करती ताकि वो उसे लाड़ से जबरन आने को  जिद करें ।

सच में  उसके जाने से घर में  रौनक आ जाती । ढेरों  खाने पीने के आइटम, मिठाइयां होते हुए पापा बाजार भागे रहते सुबह शाम कभी कचौड़ी कभी समोसे, जलेबी कभी पकौड़ी,  और कभी रबडी के दोने ले कर आते । भाई कहते “इतना तो आप दीवाली पर या हमारे जन्म दिन पर भी कभी  सामान नहीं  लाते जितना कि अब ला रहे हो” तब पापा कहते” तुम लोगों ने तो हमेशा यहीं  रहना है यह तो दो दिन में  फुर्र हो जाएगी तब कैसे मैं  अपनी बिटिया का लाड़ कर पाऊँगा ।”

माँ त्योहारों  के कारण थकी होने के बाद भी चाव चाव में  रसोई में  जाकर कभी बर्गर, कभी उपमा, कभी इडली डोसे बनाती ।



वह कहती पास बैठ कर गप्पें  मारो। खाना बाजार से आर्डर कर देंगे  तो कहती” बाजार वाले माँ जैसा बना पाएँगे क्या ?”और  शीनू  निरूत्तर  हो जाती।

सच में  वहाँ  जाकर एक तरफ तो ऐसा लगता  कि  वह  वही बचपन की माँ  की लाड़ली पापा की परी है तो दूसरी तरफ उनकी ऐसी आवभगत को देखकर लगता कि  जैसे वह कोई  वी आई पी मेहमान है  लेकिन जो भी था उन अनुभूतियों को शब्दों में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता

वहाँ  जाती तो थी बस दो तीन जोड़ी कपड़े और मिठाई फ्रूट एक बैग में  ले के लेकिन जब आती तो साथ मे तीन बैग होते होते एक में  — वहाँ  से नए मिले मेरे और घरवालों  के कपड़े  और गिफ्ट्स  ,एक में  —मिठाइयाँ  और ड्राई फ्रूट्स और एक में — गृहस्थी  के रोज के सामान जैसे बडिंयाँ ,अचार ,देसी दालें,पापड़ और न जाने क्या क्या रख देतीं  मम्मी  उसमें  जो  उसे  घर में  बैग खाली करने पर पता चलता।

पापा नहीं  रहे अब तो । भाई भाभी  ही  सर्वस्व थे  अब पीहर में । मम्मी भी अपनी स्वेच्छा  से कुछ  मन का नहीं  कर पाती थीं अपने घर की रानी  घर की मेहमान  की तरह की तरह  ही रह रही थीं ।

नियमन नियन्त्रण  उन्हीं   दोनों  के  हाथ में  था ।

इस बार शीनू ने  पहले वाली बातें, पापा की जिद, मनुहार   याद करते हुए भाई को फोन करके कहा  कि ” हो सकता है व्यस्तता  के कारण इस बार भाई दूज पर वहाँ  न आ पाऊँ और कहकर प्रतिक्रिया  की इंतजार  करने लगी । भाई ने  तुरंत ही कहा ” कोई नहीं  पहले अपना घर  देख यहाँ  तो सौम्या (भतीजी )

है ही उससे टीका करवा लूँगा । टेक केयर “

स्वरचित—– पूनम अरोड़ा

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