Moral stories in hindi:
मेरी ननद सुधा दीदी अनिरुद्ध से करीब सोलह साल बड़ी थीं।
तब मैं करीब पंद्रह – सोलह साल की किशोरी इंटरमीडिएट की छात्रा थी।
जब उन्होंने मुझे अपने इकलौते छोटे भाई की भावी पत्नी के रूप में स्नेहवश मुझे मेरी एक सहेली के विवाह में देख कर पसंद किया था।
अमूमन सामान्य घरों में यह हक सिर्फ बेटे की मां अथवा उसके पिता का होता है।
अनिरुद्ध के पिता वन विभाग में कार्यरत थे। इस वजह से उनकी पोस्टिंग हमेशा पहाड़ों और जंगलों में ही रआ करती थी।
वहां उच्च शिक्षा की सुविधा नहीं थी।
फलत: कौलेज के समय से ही अनिरुद्ध ने दीदी के संरक्षण में रहते हुए अपनी पढ़ाई- लिखाई कम्प्लीट कर के सर्विस में आए थे।
इस वजह से ही मेरी सासु मां ने यह हक भी सुधा दीदी को ही सौंप दिया था।
दीदी खुद भी हौस्टल में रह कर ही अपनी पढ़ाई पूरी कर के टीचिंग के जौब में आई थीं।
इसलिए होस्टल में होनेवाली तमाम तरह की परेशानियों से अवगत थीं। अतः अनिरुद्ध को अपने पास रखने की ज़िम्मेदारी उन्होंने स्वयं स्वीकार की थी।
बहरहाल ,
अब वे अपने ससुराल में खुशी -खुशी बस रही थीं। लेकिन अभी भी हमारे घर के हर कार्य- कलापों पर उनकी स्वीकृति की मुहर लगनी जरूरी थी।
अपनी ग्रेजुएशन कम्प्लीट करने के कुछ दिनों के पश्चात जब मैं विवाह कर के सुधांशु के घर आई तो उन दोनों भाई – बहनों की बौडिंग देख कर बेहद हैरान हुई।
वे दोनों बिना नागा फोन पर घंटों बातें किया करते। यों तो माएके में ससुराल की चुगली करने के लिए लड़कियां बदनाम रहती हैं पर यहां तो मामला बिल्कुल उल्टा था।
शुरू – शुरू में तो बहुत कोफ्त होती थी। मेरे भी भाई थे। मैं भी उनसे बातें किया करती थी।
पर इन दोनों के जैसे ? नहीं !
इन दोनों का प्यार ही अनोखा था।
कभी-कभी मुझे लगता कि,
जैसे दूर रह कर भी वे अपनी चलाने से बाज नहीं आतीं। मैं ने मन ही मन उनका नाम सुधा दीदी की जगह ‘हिटलर दीदी’ रख दिया।
वैसे वे मुझको बहुत मान दिया करतीं एवं बाद में सासु मां के नहीं रहने पर मेरा ख्याल बिल्कुल मांजी की तरह ही रखतीं।
इसलिए मैं भी उन दोनों की इस आपसी व्यवहार के बीच में नहीं पड़ने का निश्चय किया और अपनी गृहस्थी और बच्चों में मगन रहने लगी।
मेरे दोनों बच्चे भी उनसे सम्मोहित थे।
अनिरुद्ध तक तो ठीक था पर अब बच्चों में भी बूआ के प्रति वहीं समर्पण वाले भाव नजर आने पर मुझे अपनी सत्ता डगमगाती नजर आने लगी थी
मैं अंदर से एक सीमा तक उनसे डरती हुई मन ही मन ईर्ष्या भाव पालने लगी।
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बाद के दिनों में उनके खुद के बढ़ते बच्चों की वजह से थोड़ी व्यस्तता के चलते जब उनका घर में आना- जाना कम हुआ तब कहीं जा कर मैंने चैन की सांस ली।
लेकिन क्या हुआ जो वे आ नहीं पाती थीं ? अब दोनों भाई -बहनों में दिन में दो- दो बार बातें होने लगी थीं।
कभी तो रात में सोने के वक्त भी फोन आ जाया करता लेकिन तब अनिरुद्ध समझदारी दिखाते और मुझे डिस्टर्ब ना करने के लिए ड्राइंग रूम में चले जाते। मैं भी यह सोच कर संतुष्ट रहती कि ,
” चलो जान बची तो लाखों पाए “
यह सब चल ही रहा था कि एक दिन अचानक अनिरुद्ध की खराब हो गई और वो भी इस कदर कि डाक्टरों ने यह कहते हुए जबाव दे दिया,
” मिसेज सिन्हा, भगवान् की शरण में जाएं”
फिर मेरी हालत समझ सकते हैं।
मैं बदहवास थी। अस्पताल में ही बने छोटे से मंदिर में दिन रात ईश्वर के चरण पकड़ कर बैठी रहती।
खाने- पीने, सिंदूर और टीका किसी चीज का होश नहीं था।
सुधा दीदी आ गई थीं। विवश हो कर छोटे से शीशे से अनिरुद्ध को एक टक देखती रहतीं।
अगस्त के महीने में राखी नजदीक थी। पर अनिरुद्ध को दूर से ही देखती हुई वे ना तो रो पा रही थीं और ना कुछ कर पा रही थीं ।
आई.सी. यू में रहने की वजह से उसे छूना तो दूर फटकने की भी मनाही थी। अचानक वे मुड़ी मेरे नज़दीक आईं और अपने ओढ़े हुए दुपट्टे की किनारी निकाल कर मेरी कलाई में बांध दिए ,
“तुम्हारे हाथ में बांधी यह रक्षा सूत्र हमारे अनिरुद्ध की रक्षा करेगी “
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फिर मेरे सूने माथे को देख कर अस्पताल में भगवान को चढ़े सिंदूर से ही मेरी मांग भर कर माथे पर बड़ी सी बिंदी लगा दीं,
” जब तक ये मांग और ये सूना माथा इनसे भरे- चमकते रहेंगे मेरे भाई को कुछ नहीं होगा “
करीब सात दिनों के बाद अनिरुद्ध को होश आया था। डौक्टरो द्वारा उन्हें खतरे से बाहर बताए जाने से मैं और सुधा दीदी एक दूसरे के गले से लिपटे हुए फफक कर रो पड़े।
उन नमकीन आंसुओं की धार में मेरे मन के सारे मैल बह कर धुल गए थे।
मैं दिल से इन दोनों भाई- बहनों के एक दूसरे के प्रति उस समर्पित भाव के आगे नतमस्तक हो गई थी।
सीमा वर्मा / नोएडा