हरसिंगार खिल उठे ……. – लतिका श्रीवास्तव

….देर रात  बगल के मकान से आती खटर पटर की आवाजों ने मुझे बिस्तर छोड़ने पर विवश कर दिया ….चोरी की नित बढ़ती वारदातों ने हम सब कॉलोनी वालों को अतिरिक्त सतर्कता प्रदान कर दी थी..!थोड़ी आहट लेते हुए धीरे से दरवाजा खोल कर मैने जायजा लेने की कोशिश की तो देखा  बगल के नवनिर्मित लंबे समय से खाली पड़े मकान को अपना घर कहने वाले लोग मय सामान आ गए हैं और सामान उतारने जमाने की कवायद में जुटे हैं…!

नवागंतुकों के प्रति सुखद एहसास लिए मैं तत्काल उनकी सहायतार्थ उत्सुक हो वहां पहुंच गई….

आश्चर्य हुआ देख कर केवल दो ही सदस्य तिस पर महिलाएं एक बुजुर्ग सी और एक अधेड़ सी…..मां बेटी को देख……स्वयं भी महिला होने के कारण मेरे अंदर सहज सहानुभूति का एहसास प्रबल हो गया मैंने तुरंत निकटस्थ पड़ोसी का अपना परिचय देते हुए सहायता की पेशकश की परंतु उनकी रूखी सी प्रतिक्रिया ने मेरे तीव्र होते उत्साह पर पानी फेर दिया….!

फिर भी मैंने हार नहीं मानी और तुरंत अपने घर से गरम चाय और पीने का पानी ले आई…अब उनकी प्रतिक्रिया में आश्चर्य था पर बुजुर्ग मां द्वारा तुरंत चाय स्वीकार करना मुझे  आत्मिक संतोष से भिगो गया…..उनकी बेडिंग अभी नहीं पहुंची थीं तो मैने तत्काल अपने घर से दो मेट्रेस और ब्लैंकेट की व्यवस्था कर दी….अब वो मेरे प्रति काफी सहज दिखे ….बेटी ने मुझे धन्यवाद भी कहा…!

 

धीरे धीरे परिचय होने से उनकी ज़िंदगी की परतें खुलने लगीं …..

 

बेटी जिसका नाम हरसिंगार था अविवाहित थी ….बुजुर्ग मां की देख भाल करती रहती थी….वैसे वो पांच भाई बहन थे हरसिंगार जिसे घर में सब सिंगार और स्कूल में कोई जैस्मिन तो कोई परिजात बुलाते थे सबसे बड़ी थी….बचपन में अपने पापा की सबसे प्यारी परी थी…जब वो हंसती तो मानो हरसिंगार के फूल बिखर जाते थे इसीलिए उसके पापा ने उसका नाम हरसिंगार रख दिया था….. पूरी कॉलोनी में हुड़दंगी के नाम से मशहूर थी…..पर अभी वो स्कूल में ही थी कि पापा के असामयिक निधन ने उसके बचपन को सयाना और हुड़दंगियों को असाधारण विराम दे दिया था…. अति शीघ्र  परिवर्तित हालातो से समझौता  सा कर लिया था उसने ..अपनी उम्र से कहीं ज्यादा बड़ी हो चुकी थी वो…दोनों भाईयों के कैरियर बनाने और बहनों की पढ़ाई और शादी ब्याह करने में उसकी शादी की उमर चुपके से कब गुजर गई किसी को भनक तक नहीं लगी….पढ़ाई में मेधावी हरसिंगार को गांव के प्राथमिक स्कूल में शिक्षिका की नौकरी में संतुष्ट होना पड़ा था क्योंकि वो मां और परिवार के साथ ही जुड़ी रहना चाहती थी….।

 




उसके नाम में तो सिंगार था लेकिन किसी भी तरह के हार श्रृंगार से वो कोसों दूर रहती थी ….सहज सादगी की सुगंध में रची बसी अपनी मां और नौकरी के कर्तव्य निर्वहन में जिंदगी को एकनिष्ठा से जिए जा रही थी….अपनी ख्वाहिशों को अपनी कर्मभूमि में घुसपैठ की इजाजत कभी नहीं दी उसने…।

पर एक दिन उसके उस छोटे से गांव के स्कूल के आकस्मिक निरीक्षण के लिए एक नव नियुक्त अधिकारी प्रभास का आगमन मानो हरसिंगार की जिंदगी में सच में पारिजात के पुष्प बिखरा गया…हरसिंगार के कार्य व्यवहार से अत्यधिक प्रभावित प्रभास ने उस स्कूल को उत्कृष्ट पुरस्कारों हेतु चयनित कर लिया और हरसिंगार को विशेष प्रमाणपत्र से सम्मानित किया…..

उस दिन हरसिंगार के होंठो पर फिर वही हंसी खिली थी जिसके कारण उसे हरसिंगार कहते थे…..बहुत खुश थी आज वो जिंदगी में पहली बार उसकी व्यक्तिगत योग्यता और क्षमता को स्वीकारा गया था सार्वजनिक सम्मान से नवाजा गया था….उत्कृष्ट स्कूल हेतु विकास के कई कार्यों हेतु प्रभास का वहां आना और कई प्रस्तावों की स्वीकृति हेतु हरसिंगार को प्रभास के ऑफिस उसके हस्ताक्षर हेतु जाना पड़ रहा था…..जिंदगी मानो नई करवट लेने को आतुर थी…

 

पर कहते हैं ना कि हरसिंगार के फूल सबको खुशियां और सुगंध बांटने के लिए होते हैं स्वयं की खुशी का समझौता करने के बाद…….हरसिंगार ने तोअपने सुखों से समझौते करके अपने भाई बहनों के सुखी संसार रचे थे परंतु किसी को अपने सुखी संसार से बाहर आकर उसके संसार को भी सुखी बनाने की रंच मात्र परवाह नहीं थी…मां बुजुर्ग थी विवश थी क्या कहती…मां सबके लिए बोझ बन चुकी थी जिसे हरसिंगार के हवाले करके वो अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त थे….!

 

हरसिंगार की ये आत्मिक प्रसन्नता नवीन उत्साह जिंदगी के प्रति एक नवीन आकर्षण उसके घरवालों से ही सहन नही हुआ तो फिर आस पड़ोस और सहकर्मी तो अपनी दहकती हुई ईर्ष्या की आग बुझाने के लिए सतत प्रयत्नशील थे ही…. बातों का बतंगड़ बनते देर नहीं लगी..प्रभास के निष्कपट प्रयास हरसिंगार की अभेद्य खामोशी और घरवालों की निरंतर कुचालों से..निराश प्रभास के दिल में सबने हरसिंगार और उसकी मां के विरुद्ध जहर घोल दिया ..प्रभास हरसिंगार को अपने साथ ले जाना चाहता था …मां के बिना अपनाना चाहता था ….जो हरसिंगार को किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं था…..”तुम्हारी जिंदगी में मेरा कोई महत्व नहीं है ना ही कभी रहेगा सिर्फ तुम्हारी मां का ही रहेगा…..”कहकर प्रभास चला गया था…हरसिंगार मानो अपनी ही खुशी में भस्म हो चुकी थी….एक बार फिर से अपनी जिंदगी से समझौते कर लिए थे उसने…मां की देखभाल उसके लिए सर्वोपरि खुशी थी..अब घरवाले भी प्रसन्न थे….उनका मनचाहा जो हो गया था….




 

…..लेकिन अब हरसिंगार का मन उस गांव से अपने परिवार जनों से और स्कूल से उचट चुका था …अपने बारे में लोगों द्वारा गढ़ी जा रही ऊल जलूल बातों से वो तंग आ चुकी थी….इसलिए उसने अपना ट्रांसफर यहां करवा लिया था..

 

…..मैने बहुत करीब से उसे देखा था परखा था… कुछ ही दिनों में मुझसे जुड़ाव हो गया था उसका .. जिज्जी बोलती थी मुझे….भोर की प्रथम किरण के साथ उसकी सुबह अपनी मां के साथ ही होती थी….मां के साथ योगा….तुलसी वाली चाय हल्का ताजा नाश्ता अपने हाथों से बना के मां को खिलाना….सुबह से मां के पसंद की रामायण का संगीत…पूजा के फूल ….फिर खाना बनाकर खिलाकर स्कूल जाना ….स्कूल से वापिस आकर छोटे बच्चों की ट्यूशन ….ढेर सारे प्यारे प्यारे बच्चों से घिरी  वो वाकई उस समय अपनी निश्छल हंसी से हरसिंगार सी छटा बिखेर देती थी….

 

बुजुर्ग मां हर पल अपनी इस सरल निष्कपट बेटी के लिए ईश्वर से दुआ मांगते नहीं थकती थीं….साथ ही अपने इस संसार से जाने के बाद उसकी अकेली हो जाने वाली  ज़िंदगी की बेतरह चिंता भी करती रहती थीं….प्रभास की तारीफ़ और खुद को हरसिंगार की संवरने जा रही जिंदगी को उजाड़ने का दोषी मानती थी और अक्सर मुझसे अपनी ये व्यथा साझा किया करतीं थीं…..!

हरसिंगार से जब कभी मैं इस बारे में चर्चा करना चाहती या उसके त्याग की मिसाल देने का उपक्रम करती वो हमेशा मुझे टोक देती थी नहीं नहीं जिज्जी इसमें त्याग तपस्या जैसा महिमा गान क्या करना!…ये समझौता भी नहीं है समझौते में तो एक प्रकार का दुख या कुछ  सहने का एहसास रहा आता है …मां की खुशी मां की सेवा और ख्याल ही मेरे लिए सर्वोपरि है मेरी खुशी है…..आपको पता है जीज्जी पापा ने मेरा नाम हरसिंगार एकदम सही रखा है ….सबके लिए खुशी बांटना ही मेरा ईश्वरीय धर्म नियत है…..




 

लेकिन तुम्हें कभी खुद की शादी ना होने पाने का अफसोस नहीं होता अपने घरवालों के कारण तुम्हे अपनी ख्वाहिशों से हर बार समझौते करने पड़े तुम्हे गुस्सा नहीं आता मेरे कई बार पूछने पर उसने मुझसे ही पूछ लिया था जीजी आपकी तो शादी हो गई है ना क्या अब आपको कोई समझौते नहीं करने पड़ते!!!क्या आपकी जिंदगी की सारी बातें आपकी इच्छा अनुसार आपकी खुशी अनुसार ही होती हैं!! मुद्दा जिंदगी में समझौते करने या ना करने का नहीं है मुद्दा है आपकी खुशी का आपके संतोष का अपने ईश्वरीय कर्तव्य पालन में आने वाली मुश्किलों को संभाल कर संतोष से अपना जीवन पथ आगे ले जाने का….!

मैं निरुत्तर सी अपने घर वापिस आ गई थी।

अचानक एक सुबह मेरी डोर बेल बज उठी मैने सोचा हरसिंगार होगी ..दरवाजा खोला तो एक सुदर्शन सा अजनबी युवक खड़ा था मुझसे पूछने लगा क्या आप किसी हरसिंगार को जानती हैं..!मैने देखा साथ में उसके माता पिता भी थे……

पता नहीं उसके व्यक्तित्व और बोली से अनायास ही मेरे मुंह से निकल पड़ा …. आप प्रभास हैं क्या!!

वो आश्चर्य चकित था …आपको कैसे पता मैं प्रभास हूं!!

इस कैसे का उत्तर देने के लिए मैं तत्काल प्रभास को हरसिंगार के घर ले गई….. देखो तुम्हारी जीजी आज किसे लेकर आईं हैं…!मेरी आवाज़ सुनते ही वो बाहर आ गई और प्रभास को देख जड़वत सी हो गई…..!

हरसिंगार सुनो तुमने अपनी जिंदगी में किए समझौतों को ईश्वरीय धर्म माना है …. तो आज तुम्हारी खुशी ही मेरा ईश्वरीय धर्म नियत किया गया है …इसकी खातिर तुम आज सच में मेरे साथ एक समझौता कर लो….मां के साथ भी और मां के बाद भी अपनी मां की ही खुशी की खातिर मुझे माफ कर दो …..वादा करता हूं तुम्हे अपने ईश्वरीय कर्तव्य मां की खुशी पूरी करने में मेरे जैसा सहयोगी नहीं मिल पाएगा एक मौका दे दो….!

 

मै आज उन हरसिंगार के फूलों को उस बुजुर्ग मां की आंखों में खिलते हुए देख रही थी…..।

#समझौता 

लतिका श्रीवास्तव 

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