हारा हुआ जुआरी – निभा राजीव “निर्वी”

रंजीत बिस्तर पर बैठा गोद में लैपटॉप लिए कुछ काम कर रहा था। वहीं से उसने अनन्या को आवाज लगाकर एक प्याली चाय लाने को कहा। अनन्या ने फटाफट चाय बनाई और चाय लेकर उसके पास पहुंच गई। उसने चाय की प्याली वहीं सिरहाने वाली मेज के पास रख दी और वापस रसोई तक पहुंची भी न थी तब तक रंजीत की चीखती आवाज आई ,”जाहिल औरत!!मां बाप ने काम करने की कुछ तमीज भी सिखाई है या नहीं!

बुरी तरह से जला डाला मुझे और  लैपटॉप को भी बर्बाद कर दिया….” सहमी हुई अनन्या लौट कर वापस आई। उसे देखते ही रंजीत ने एक तमाचा उसके गाल पर रसीद कर दिया और दांत पीसते हुए बोला, ” यह देख, क्या किया तूने। चाय ऐसे रखी कि मैं जैसे ही चाय लेने लगा तो चाय गिर गई। कुछ अक्ल है या नहीं तुम्हारे अंदर…..” अनन्या समझ गई कि रंजीत ने लैपटॉप की तरफ देखते देखते चाय की तरफ हाथ बढ़ाया होगा और चाय हाथ लग कर गिर गई होगी।

मगर वह कुछ बोलती तो रंजीत और भड़क जाता इसलिए अनन्या अपमान का घूंट पीकर चुप रह गई। सासू मां भी बड़बड़ाने लगी, ” यह डायन तो मेरे बेटे के पीछे हाथ धोकर पड़ गई है, पता नहीं चाहती क्या है कलमुहीं….. इसके बाप ने जैसे एक सुखल्ली सी चेन देकर मेरे बेटे को खरीद लिया हो, ऐसे धौंस दिखाती है।” …… ससुर भी आग्नेय नेत्रों से उसकी ओर देखकर अखबार पटक कर चल दिए। कट कर रह गई अनन्या। वहां किसे सुनाती अपनी व्यथा……

         अनन्या के विवाह को 2 साल हुए थे। रंजीत के दादा जी इस शहर के बहुत बड़े उद्योगपति थे और उनका बहुत बड़ा कपड़ों का व्यवसाय था। रंजीत के दादाजी ने अनन्या को एक विवाह में देखा था तो उसके सौम्य रूप और सुसंस्कारों से बहुत प्रभावित हो गए थे और उन्होंने उसी क्षण निश्चय कर लिया था कि अनन्या को ही अपने घर की बहू बनाएंगे। जब उन्होंने यह बात घर में कहीं तो यह रिश्ता किसी को पसंद नहीं आया क्योंकि अनन्या काफी गरीब घर से थी और रंजीत के मां-बाप को और रंजीत को मोटे दहेज की चाहत थी।

पर दादाजी  के हठ के आगे किसी की एक न चली और अनन्या इस घर की बहू बनकर यहां आ गई। विवाह में उसके पिता कुछ अधिक नहीं कर पाए। सिर्फ रंजीत को उपहार स्वरूप एक सोने की चेन दी थी और बारातियों का स्वागत उन्होंने बहुत अच्छी तरह से किया लेकिन इसके लिए ही उन्हें अपनी गांव की जमीन भी बेचनी पड़ी थी। यह सब देखकर अनन्या बहुत व्यथित हो गई थी पर उसके पिता ने उसे समझा-बुझाकर इस विवाह के लिए राजी कर लिया था। उसके माता-पिता इसी बात से फूले नहीं समा रहे थे कि उनकी बिटिया का ब्याह में बड़े घर में हो रहा है।



           विवाह के बाद कुछ दिन बहुत अच्छी तरह से बीते मगर होनी के आगे किसकी चलती है… विवाह हुए चार ही महीने बीते थे कि एक रात हृदय गति रुक जाने से स्नेहिल दादा जी का निधन हो गया। और उसके बाद से ही अनन्या के ऊपर व्यंग्य बाणोंऔर प्रताड़ना का पहाड़ टूट पड़ा। शायद वे लोग यही चाहते थे कि किसी भी प्रकार से अनन्या तंग आकर स्वयं ही यहां से चली जाए और रंजीत का दूसरा विवाह हो जाए। परंतु अनन्या अपने माता-पिता के सम्मान और उनके दिए गए संस्कारों के कारण सबकुछ चुपचाप सहती जा रही थी और सब कुछ अब तक अपने मां बाप से छुपा कर रखा था। सारी पीड़ा…सारा दर्द.. अपने में समेट कर पी लिया था।

             आज अनन्या का जन्मदिन था। सुबह-सुबह उसके मां और पिताजी ने फोन किया था। पिताजी ने कहा कि वह आज उससे मिलने उसके घर आ रहे हैं। अनन्या कांप कर रह गई। वह नहीं चाहती थी कि उसके पिता इस घर में आएं और अपमानित होकर वापस जाएं। उसने पिता जी से कहा ,” आप व्यर्थ में परेशान न हों बाबूजी, बात तो हो ही गई है…” परंतु पिताजी नहीं माने और कहा कि मैं आज तुुझसे मिलने अवश्य आऊंगा। आज तेरा जन्मदिन जो है..” अब अनन्या कर भी क्या कर सकती थी सिवाय उनकी प्रतीक्षा के… शाम होने वाली थी।

तभी बाहर एक ऑटो आकर रुका और उसमें से उसके पिताजी हंसते मुस्कुराते हुए उतरे । अनन्या दौड़कर वहां पहुंची। उसने पिता जी के पैर छुए और उनके सीने से लग गई। रोकते रोकते भी आंसू है छलक ही आए। इस पर  पिता जी ने मुस्कुरा कर कहा, ” अरे अब क्यों रो रही है पगली, मैं आ तो गया हूं तुझसे मिलने..” अनन्या ने अपनी पीड़ा छुपाते हुए पिताजी से कहा,” कुछ नहीं बाबूजी, बहुत दिनों बाद आपको देख रही हूं न तो खुशी के आंसू छलक आए।” 

      फिर अनन्या ने पिताजी को अंदर लाकर बिठाया।  पिताजी कुछ फल मिठाई और घर में सब के लिए कपड़े लेकर आए थे। अपने पिता की आर्थिक स्थिति समझते हुए अनन्या समझ रही थी की इन उपहारों के लिए उसके पिताजी को अपने घर के खर्चों में से कितनी कटौती करनी पड़ी होगी तब जाकर वह यह सब कुछ उन सब के लिए ला पाए होंगे। उसने रूंधे गले से कहा, “यह सब क्यों किया बाबूजी?” इस पर पिताजी ने मुस्कुराकर उसका गाल थपथपा दिया।



          पिताजी अकेले बैठे थे और घर में से कोई उठकर उनसे मिलने नहीं आया। वह उठकर रसोई में गई और सोचा कि पिताजी के लिए कुछ चाय नाश्ता बना ले, तभी सासू मां ने रसोई में प्रवेश किया और कटाक्ष करते हुए कहा ,” यहां पर कोई खैरात नहीं बंट रही है कि हम हर किसी को चाय नाश्ता करवाते रहें…..जाओ जाकर बैठो अपने बाप के पास और उसको जल्दी से विदा करो यहां से।” कुछ नहीं बोल पाई अनन्या। उसने चुपचाप पिताजी के लाए फलों में से ही कुछ फल काटे और तश्तरी में रखकर पिताजी के पास ले गई।

पिता जी कुछ बोले तो नहीं लेकिन शायद उन्होंने सब कुछ सुन लिया था उन्होंने मुस्कुरा कर कहा, “नहीं बेटी मैं तो तुम्हारे घर का पानी भी नहीं पियूंगा। तुम यह सब करके बेकार ही परेशान हो रही हो। अब मैं भी चलता हूं। तुम्हारा जन्मदिन था तो तुम्हें देखने की इच्छा हो रही थी और तुम्हारी मां ने भी कहा था कि तुमसे मिलकर तुम्हारा हालचाल लेता आऊं।” तभी रंजीत भी आ गया।

उसने एक नजर अनन्या के पिताजी पर डाली और फिर अपने कमरे में जाने लगा। उसके इस व्यवहार से अनन्या बहुत आहत हो गई, पर फिर भी हृदय पर पत्थर रखकर उसने रंजीत को आवाज देकर कहा,”सुनिए, पिताजी आए हैं… देखिए ना हमारे लिए उपहार भी लेकर आ गए हैं। बेकार ही इतना परेशान हो गए…आइए,इनका आशीर्वाद ले लीजिए….. फिर आप कपड़े बदलने कमरे में चले जाइएगा…” ….उसके इतना कहने की देर थी कि रंजीत ने निहायत ही बदतमीजी से कहा, ” अरे उपहार लाए हैं तो कौन सा बड़ा एहसान कर दिया।

एक तो वैसे ही इनकी जेब फटी हुई है ….इनसे तो कुछ उम्मीद करना ही बेकार है ..भगवान जाने कौन से पाप किए थे कि तुम लोगों के कंंगले खानदान से हमारा नाता जुड़ गया और यह जो उपहार लेकर आए हैं ना या तो इन्हें वापस दे दो या इन्हें नौकरों में बांट दो। ऐसे कपड़े हम नहीं पहनते… जाने चले आते हैं कहां कहां से मुंह उठाए।”……. इतना सुनते ही अनन्या के सब्र का बांध टूट गया।

वह गुस्से से कांपती हुई चीख पड़ी- “…..बस कीजिए….बहुत हो चुका….. खबरदार!!!….आप सब इतने दिनों तक मुझे प्रताड़ित करते रहे और मेरा अपमान करते रहे, मैंने सब सहन कर लिया। पर आज आपने सारी सीमाएं पार कर दीं। आपने मेरे बाबूजी का अपमान किया है। इसे मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकती। मैं आज और इसी समय आपका यह घर छोड़कर अपने पिता के साथ वापस जा रही। थूकती हूं आप पर और आपके घर पर। मुझसे मिलने या मुझसे संपर्क करने की  चेष्टा मत कीजिएगा।

” रंजीत एक पल को तो उसका यह रौद्र रूप देखकर हतप्रभ रह गया मगर फिर संभलते हुए चीख कर कहा, ” हां हां जा! अपनी मनहूस सूरत लेकर यहां से चली जा…..मुझे क्या पागल कुत्ते ने काटा है जो तुझसे मिलने की कोशिश करूंगा..” आंसू पोंछते हुए अनन्या फटाफट अपना सामान बांधने लगी। पिताजी ने उसे समझाने की कोशिश की परंतु अनन्या का तो जैसे रूप ही कुछ और हो गया था। वह बिल्कुल अडिग थी।

अपना निर्णय सुना देने के पश्चात अब उसका मन शांत हो गया था। उसने शांत स्वर में पिता जी से कहा ,” बाबूजी, मैं सब कुछ बर्दाश्त कर सकती हूं पर अपने पिता का अपमान नहीं…. आप मुझे घर ले चलिए…. जिस घर में मान न हो वहां से संबंध विच्छेद हो जाना ही श्रेयस्कर है… मैं जैसे तैसे ट्यूशन पढ़ाकर अपने आगे की पढ़ाई पूरी करूंगी और आप पर कभी बोझ नहीं बनूंगी..” 

रो पड़े पिताजी, “तुझ से किसने कह दिया बिटिया कि तू मेरे ऊपर बोझ है। तेरा घर है तू जब चाहे आ सकती है और जितने दिन चाहे रह सकती है।” भावुक होकर अनन्या पिता के सीने से लग गई। दोनों पिता- पुत्री घर से निकल गए। पर न तो किसी ने उनसे बात की और ना ही किसी ने उनको रोकने का कोई प्रयास किया।



          समय के गर्भ में क्या छुपा है यह कोई नहीं जान सकता ।अनन्या के उस घर से निकलते ही मानो लक्ष्मी ही रुठ गई। रंजीत के पिता को  व्यवसाय में बहुत ही बड़ा घाटा हुआ और ऐसी स्थिति हो गई कि वे दिवालिया हो गए। पूरा परिवार दाने-दाने को मोहताज हो गया। ऐसी स्थिति में रंजीत से कोई विवाह तो क्या उसकी तरफ देखता भी नहीं था। काम पाने को अब रंजीत दर दर भटकने लगा । मगर कौशल और अनुभव के अभाव में उसे कहीं भी ढंग का काम नहीं मिल पाया।

          उधर अनन्या ने भी मायके में ट्यूशन लेना शुरू कर दिया और अपनी आगे की पढ़ाई पुनः प्रारंभ कर दी।  इस बात को 8 साल बीत चुके थे। अब अनन्या एक डॉक्टर बन चुकी थी और बहुत ख्याति प्राप्त कर रही थी।

           उस दिन वह क्लीनिक में अपने केबिन में बैठी थी, तभी रिसेप्शनिस्ट का फोन आया, ” मैम, कोई रंजीत साहब आपसे मिलना चाहते हैं।”  रंजीत का नाम सुनते ही अनन्या को ऐसा लगा जैसे सैकड़ों बिच्छुओं का डंक एक साथ उसे लग गया है। मगर उसने फिर स्वयं को संयत किया और शांत स्वर में रिसेप्शनिस्ट से कहा , “उनसे कह दो कि मैडम बिजी हैं और अभी किसी से नहीं मिल सकती।” यह कह कर उसने फोन रख दिया। 5 मिनट के बाद ही रिसेप्शनिस्ट का पुुन: फोन आया, “मैडम, वह किसी भी तरह से नहीं मान रहे हैं

और एक बार आपसे मिलने के लिए जिद लगाए बैठे हैं।” अनन्या वहां कोई तमाशा नहीं बनाना चाहती थी इसलिए रिसेप्शनिस्ट को बोल दिया ,”ठीक है, उन्हें अंदर भेज दो।”…. कुछ ही क्षणों के बाद रंजीत उसके सामने खड़ा था। बिखरे हुए बेतरतीब से बाल, उतरा हुआ चेहरा, मुड़े तुड़े कपड़े…पागलों जैसी हालत हो चुकी थी। अनन्या को देखते ही वह हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और कहने लगा ,”अनन्या मुझसे बहुत बड़ी भूल हो गई ।मैंने तुम्हारे साथ बहुत बड़ा अन्याय किया और बहुत ही बुरा व्यवहार किया, पर मुझे क्षमा कर दो अनन्या….

जो हुआ अब उसे भुला दो हम फिर से एक नए जीवन की शुरुआत करेंगे। चलो अनन्या, मेरे साथ अपने घर चलो ।” अनन्या अपनी कुर्सी पर शांतिपूर्वक बैठी रही। रंजीत की बातें सुनकर उसके चेहरे पर एक व्यंग्य भरी मुस्कुराहट आ गई। फिर उसने रंजीत से कहा, ” कौन हैं आप?? मैं तो नहीं जानती आप को…”  तिलमिला कर रह गया रंजीत, “यह क्या कह रही हो अनन्या???  मैं तुम्हारा पति रंजीत… कुुछ भी हो पर क्या अपने पति से कोई ऐसे व्यवहार करता है।” अनन्या ने शांत किंतु दृढ़ स्वर में उसकी आंखों में आंखें डालकर एक एक शब्द को चबाते हुए कहा, “पति????

इस शब्द का अर्थ भी समझते हो तुम?? और तुमने पति होने का कौन सा फर्ज निभाया? तुमने मेरे साथ जो भी किया, उसे तो शायद मैं भुला भी दूं किंतु मेरे पिता के साथ जो तुमने व्यवहार किया और उनका जो अपमान किया उसे मैं कभी नहीं भुला सकती। मेरे पिता मेरे लिए ईश्वर के समान है और तुमने मेरे ईश्वर की अवहेलना की और उनका अपमान किया।

इस बात के लिए मैं तुम्हें कभी क्षमा नहीं कर सकती।  मैं अब अपने जीवन में आगे बढ़ चुकी हूं और मेरे इस नए जीवन में तुम्हारे लिए कोई जगह नहीं है मिस्टर रंजीत!!! अब तुम जा सकते हो… मेरा भी घर जाने का समय हो गया है। मेरे मां-बाप मेरी प्रतीक्षा कर रहे होंगे….” यह कह कर अनन्या ने अपना बैग उठाया और केबिन से निकलकर गाड़ी की ओर बढ़ गई। रंजीत किसी हारे हुए जुुआरी की तरह बस उसे खड़ा खड़ा देखता रह गया।

#अपमान 

निभा राजीव “निर्वी”

सिंदरी धनबाद झारखंड

स्वरचित और मौलिक रचना

 

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