हमारी अनोखी मित्रता – पायल माहेश्वरी

 

हर साल जब मायके जाने की आती हैं बारी

मन में खिल जाती नवीन खुशियों की फुलवारी !!

 

मायके का लगाव उम्र के किसी भी पड़ाव पर कम नहीं होता हैं और  बचपन की अनगिनत अच्छी बुरी यादें मायके में जाकर फिर जीवन्त हो उठती हैं। 

 

  इस साल भी जब मायके जाने की बारी आई तो मन नवजात शावक की तरह उछलने लगा,माँ जो दरवाजे पर हमेशा राह निहारती हैं उनकी छवि आखों के सामने छाने लगी।

 

पर यह क्या? इस बार माँ की जगह वो मेरे स्वागत में खड़ा नजर आया, मुझे देखकर उसका रोम-रोम खिल गया,जैसे मेरे बिना वो अधूरा था ।

 

मुझसे भी रहा नहीं गया, मैंने उसकी तरफ कदम बढ़ाए, उसकी खुशबू को महसूस किया, उसकी चमकीली छवि को निहारा।

 

 ” तुम बिलकुल नहीं बदले,हर साल पहले से भी ज्यादा परिपूर्ण नजर आते हो ” मैंने हंसकर उससे कहा।

 


” पर तुम बहुत बदल गयी हो,कल तक जो नन्ही बच्ची मेरे साथ खेला करती थी, मेरा ध्यान रखती थी आज कभी-कभार मुझसे मिलने आती हैं ” वो नाराज नजर आया।

 

” मेरे प्रिय साथी, अब वो नन्ही बच्ची यानि की मैं किसी की माँ, किसी की पत्नी और किसी की बहू हूँ ,एक औरत ही होती हैं जो दो परिवारों का बोझ अपने कंधे पर सहर्ष उठाती हैं” मैंने गर्व से कहा।

 

“वो सब ठीक हैं, पर में तुम्हारे बिना अधूरा हूँ , तुम्हारे साथ और समय बिताना चाहता हूँ ” उसकी आवाज में उदासी नजर आयी। 

 

” अभी मैं पन्द्रह दिन तुम्हारे साथ हूँ, हम मिलकर पुरानी यादें ताजा करेंगे ” मैंने उसे आश्वासन दिया। 

 

   वो मेरी बात सुनकर अपनी टहनियों को लहराकर खुशी जाहिर करने लगा।

  

जी हाँ!! टहनियों को लहराकर।

 

मेरे मायके के बगीचे में वह पुरी शान के साथ लहलहा रहा था उसकी हरे पीले रंगों वाली छवि मनोरम थी,हर मौसम में उसका अलग रूप रंग नजर आता था, कभी फलों से लदा हुआ तो कभी सिर्फ पत्तो का आवरण ओढ़े इठलाता था,गर्मी, सर्दी बरसात हर मौसम में अडिग खड़ा रहता था।

 

आप सभी सोच रहे होंगे की मैं किसकी बात कर रही हूँ, चलिए मुद्दे पर आती हूँ, मैं मेरे मायके के बगीचे में लगे विशाल नीम्बू के पेड़ की बात कर रही हूँ जिस पर बरसों से बड़े बड़े रसीले कागजी नीम्बू उगते थे,बरसात के मौसम में असंख्य नीम्बू पाये जाते थे।

 


घर में नीम्बू रखने के बाद भी सभी रिश्तेदारों के यहाँ सौगात के रूप में नीम्बू भेजे जाते थे, वो विशाल पेड़ पुरे मोहल्ले के लिए नीम्बू आपूर्ति करता था, मोहल्ले के बच्चे जब चाहते तब नीम्बू तोड़ कर ले जाते थे, मेरे घर वाले भी काफी उदार किस्म के थे,वो बांटने का महत्व जानते थे।

 

कभी ऐसा प्रतीत होता था कि ये प्रकृति का नियम है अगर आप दूसरों के जीवन में खुशियां फैलाने का काम करे तो प्रकृति आपको दुगुना फल देती हैं, नीम्बू का पेड़ शायद जड़ होकर भी मनुष्य से ज्यादा चेतना रखता था,और छोटे,बड़े, उच्च नीच का भेदभाव मिटाकर असंख्य नीम्बू प्रदान करता था, मानो जैसे उसका मन भी उसके मालिको की तरह निर्मल और विशाल था।

 

वह नायाब पेड़ भी मेरे घर की उस परिपाटी का सम्मान करता था जो पीढियों से चली आ रही थी”साई इतना दीजिए जिसमें कुटुम्ब समाए मैं भी भूखा ना रहूँ साधु ना भूखा जाय” खैर यह बांटने का सिलसिला चलता जा रहा था।

 

कहानी में नया मोड़ तब आया जब मेरी दादी माँ की तेजतर्रार व मुँह फट बहन मेहमान बनकर हमारे घर आयी जिन्हें हम सब बडकी मौसी के नाम से जानते थे  मौसी के तेज मिजाज के कारण उन्हें अपने घर में उचित स्थान व सम्मान नहीं मिलता था,इस कारण से वह अपनी बहन की संयुक्त परिवार व्यवस्था से ईर्ष्या करती थी।

 

इस बार मौसी की जलन का निशाना नीम्बू का पेड़ था,उनके अनुसार कांटेदार व खट्टे फल वाला पेड़ घर में लगाना अशुभ होता है,घर पर विपदा व बिमारी का साया पड़ता हैं, मेरी सीधी सरल दादी माँ उनकी अन्धविश्वास भरी बातों में आ गई और नीम्बू का पेड़ जड़ सहित उखाड़ने की बात सोचने लगी।

 

मेरे बालमन ने इस बात का विरोध किया, सभी घरवालों ने दादी को समझाने का प्रयास किया नीम्बू के पेड़ ने भी अपनी शाखाएँ झुकाकर रहम की जैसे दया दृष्टि मांगी पर दादी का फैसला अडिग था।

 

आखिर दुखी मन से पापा ने माली को पेड़ हटाने का बोला,वो सर्दी वाली रात थी और पुरे शहर में बिजली आपूर्ति सेवा किसी कारण से बन्द थी,घनघोर अँधेरा छाया था,तभी देर रात किसी के चिल्लाने की आवाज सुनकर हम सब बगीचे की और भागे वहां जाकर मद्धम रोशनी में एक अनजान आदमी को कराहते हुए पाया, पता चला वह चोर था चोरी की नीयत से दीवार फान्द कर घर में दाखिल हुआ था पर अँधेरे में अपने भारी वजन को लेकर नीम्बू के पेड़ पर गिर पड़ा, नीम्बू के कांटो से लहू-लुहान पड़ा था, पके नीम्बू का रस उसकी आखों में जलन पैदा कर रहा था,नीम्बू का पेड़ भी अधमरा सा हो गया था।

 


जैसे जाते जाते पेड़ ने कोई कर्ज चुकता किया था इस घटना ने दादी माँ की आँखे खोल दी,मन का वहम और अन्धेरा छंट गया, दादी माँ ने पेड़ की जड़ो को यथावत रहने दिया, अगले साल तक पेड़ फिर से हराभरा होकर लहलहा रहा था और सबसे ज्यादा खुश दादी माँ थी।

 

इस साधारण घटना को लेकर मन ने ये मंथन किया की इन्सान कृतघ्न हो सकता है, पर प्रकृति कभी धोखा नहीं देती, हम स्वयं ही अपने स्वार्थ की सजा भुगतते हैं।

 

बांटने से हमेशा सुख प्राप्त होता है, अंधविश्वास का कोई ओर ना छोर होता हैं।

 

 मैं और वही नींबू का पेड़ दोनों अतीत की पुरानी घटना में खो गये थे ,तभी माँ की आवाज कानों में पड़ी। 

 

” कितनी देर तक बाहर नींबू के पेड़ को निहारती रहेगी,तेरे आने की खुशी में इस बार इस पेड़ ने भी इतने नींबू दिये हैं की बांटने पर भी खत्म नहीं हो रहे हैं, जाते समय अपने साथ नींबू लेकर जाना।”

 

और मैंने मुस्कुराते हुए नींबू के पेड़ को देखा,हमारी अनोखी मित्रता की राजदार सिर्फ हवाएं थी।

 

 

धन्यवाद ।

पायल माहेश्वरी।

यह रचना स्वरचित और मौलिक हैं।

 

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