गुमशुदा – गीतांजलि गुप्ता

बहुत याद करने पर भी उसे कुछ याद नहीं आ रहा था न घर याद था न नाम कुछ भी याद नहीं उसे। भूख प्यास से तड़प रहा था। मैले कपड़े गंदे हाथ देख विचलित हो रहा था। सड़क के किनारे पटरी पर सोया पड़ा था। दूर देखा तो शहर दिखाई दे रहा था। सड़क पर गाड़ियां दौड़ रही थीं। उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी।

कुछ सन्यासी दिखाई पड़े मन में विचार कौंधा कि क्यों ना इन लोगों के पीछे हो लिया जाए। उसने वैसा ही किया। धीरे धीरे उनके साथ ही चल पड़ा कुछ दूरी पर एक सन्यासी ने प्रश्न किया “कौन हो और हमारे साथ क्यों आ रहे हो।” उसने बताया कि “मुझे याद ही नहीं आ रहा कि मैं कौन हूँ और कहाँ से आया हूँ। कृपा करके मुझे अपने साथ आने दीजिए।” सन्यासी ने उसे सभी के साथ चलने दिया। सात आठ किलोमीटर चलने पर आश्रम आ गया। सन्यासी ने उसे भोजन दिया और आराम करने को कहा।

लाख सोंचने पर भी कुछ याद नहीं आया। सन्यासी को उस पर तरस आ गया। उन्हें ने उसे समझाया कोई कोई इंसान वृद्ध अवस्था में भूलने के रोग से पीड़ित हो जाते हैं और यह ही उस के साथ हुआ लगता है। सन्यासी ने गुरू से आज्ञा मांग उसे आश्रम में ही रख लिया।

शांत वातावरण में जैसे उसे नई जिंदगी मिल गई। वह धीरे धीरे उसी दुनिया में शामिल होने लगा बस उसके वस्त्र सन्यासी से नहीं थे। आश्रम से ही उसे दो जोड़ी कपड़े मिल गए थे वहीं के कामों में उसे अच्छा लगने लगा। सुबह शाम गुरू जी के मधुर प्रवचन सुनता और खुश रहता। आश्रम में सब एक दूसरे का सहयोग करते दुखी जनों की सेवा करते बहुत शान्ति व प्रेम से रहते थे।



सुबह शाम आश्रम से निकल जाता घूमता फिरता। कभी कभी रास्ते में पड़ने वाली एक चाय की दुकान पर बैठ जाता वहीं पड़ा अख़बार उठा पढ़ने लगता। आज के अखबार में उसकी निगाह एक कोने पर ठहर गई अरे ये तो उसकी ही तस्वीर है, “जिस पर लिखा था राधेश्याम गंगानगर से लापता हैं जो भी इनकी ख़बर करेगा उसे उचित इनाम दिया जाएगा।” नीचे पता और फ़ोन नंबर भी लिखा था। अख़बार पुरानी तारीख का था। जल्दी से वहां से उठा और आश्रम लौट आया। इतने समय से उसने दाढ़ी नहीं बनाई थी ना ही बाल कटाये थे इसलिए कोई उसे पहचान ही नहीं पाया होगा।

वापस आ आश्रम की चारपाई पर लेट गया। याद तो उसे कई दिन पहले ही सब आ गया था परंतु  कभी वापस अपने घर जाना ही नहीं चाहता था। बेटे बहु द्वारा किये गए अपमान उसे कचोटते रहते। खाना देते समय बहु की घूरती निगहें भुलाए भी नहीं भूलती। बेटे का अपरिचितों जैसा व्यवहार हर पल हृदय को घायल करता रहता।

पत्नी को गुजरे तीन वर्ष हो चुके। उसके जाने के बाद से हर दिन उदास और उदास होता ही गया। मस्तिष्क ने जैसे साथ देना छोड़ दिया था। उदासीनता और अकेलेपन के कारण ही शायद कुछ समय के लियें याददाश्त जाती रही होगी। सौहार्द वातावरण पा कर मन व मस्तिष्क दोनों चलने लगे। बेटे ने समाज व रिश्तदारों के दवाब में ये इश्तिहार छापवाया होगा। बाप की चिंता का नाटक करना भी तो ज़रूरी हो गया होगा वर्ना उसकी बला से मैं मरूं या जिऊँ।

आज उसे तसल्ली हो गई कि वह खोए हुए लोगों की सूची में शामिल हो चुका है। घर वालों के ख़राब बर्ताव के कारण ही तो उस दिन रोता हुआ घर से भागा था। बेटा बहू से प्रताड़ित जीवन उसे अब दुबारा मंजूर नहीं जीवन की सभी जिम्मेदारी राधेश्याम अच्छे से निभा चुका था। अब  उसने गुरु जी से दीक्षा लेने का मन बना लिया ताकि सदा के लियें इस आश्रम में रह सके। घर वापस गया तो शायद बेटा एक दिन वृद्धाश्रम अवश्य छोड़ आएगा।

गीतांजलि गुप्तानई दिल्ली©️®️

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