” गोरा- चिट्टा दूल्हा ” – सीमा वर्मा

‘ अरी ओ राजरानी, अब ये साज-श्रृगांर , पाउडर-लाली सब तेरह दिन तक बंद ‘

‘ नहीं करना है तुम्हें यह सब… नहीं करना चाहिए तुम्हें ‘

चाची की भारी आवाज सुन कर स्नेहा की आंखों में मोटे-मोटे आँसू भर गये थे।

लेकिन चाची ‘अचला’ का दिल नहीं पसीजा।

इसके साथ ही शुरु हो गई थी मातृ-पितृ विहीन स्नेहा पर उसकी चाची द्वारा दी जाने वाली अनवरत प्रताड़ना यात्रा।

ग्यारह वर्षीय स्नेहा ने मौत को इतने  करीब से इसके पहले नहीं देखा था।

वह आठ साल की थी जब उसके पिता का देहावसान हुआ था। यह घटना उसकी स्मृति पर पहली चोट थी।

तब माँ ‘ गीता’  ने नन्हीं स्नेहा के बलबूते ही भरी जवानी में अपने वैधव्य को दरकिनार कर उसकी परवरिश में किसी प्रकार की कोताही नहीं बरती थी ।

स्नेहा ने भी माँ के त्याग और परिश्रम का पूरा-पूरा खयाल करती हुई हमेशा पढ़ाई -लिखाई में चाची की बेटी सुहानी से आगे रही।

जहाँ सुहानी का अधिकतर समय खेल-कूद और भाईयों के संग लाड़-प्यार में बीतता वहीं स्नेहा माँ के साथ घर के काम-काज निपटाती हुई भी क्लास में भी फर्स्ट आती हुई हमेशा चाची के आँख की किरकिरी बन जाती।



इस सब हालात से बिल्कुल अंजान  सुहानी और स्नेहा दोनों बहनें एक दूसरे पर जान छिड़कती हुई समय की रफ्तार के साथ -साथ आगे बढ़ती हुई बड़ी होती जा रही हैं।

सुहानी कितनी प्यारी गोल-मटोल सी गुडिय़ा जैसी लगती है।  स्नेहा सोचती और घंटो उसे अपनी बांहों में झुलाती रहती।

एवं सुहानी को भी स्नेहा दीदी के साथ गीत गाना और उसके साथ मिल कर डांस करने में बहुत मजा़ आता।

कि अब अचानक स्नेहा पर यह विपदा का पहाड़ टूट पड़ा।

इधर कुछ दिनों से उसकी माँ गीता की तबीयत ठीक नहीं चल रही थी।

लेकिन सभी अपने-अपने में मस्त उस बिचारी के हाल जानने की फुर्सत किसे थी।

स्नेहा भी कुछ नहीं समझ पा रही थी उसे जब भी समय मिलता वह माँ के हाथ-पैर में तेल लगाने बैठ जाती है।

पर माँ को इसपर भी चैन नहीं मिलती देख हिम्मत करके एक दिन चाचू से बोल बैठी थी,

‘माँ की तबियत ठीक नहीं है चाचू,

चाचू कुछ कहते इसके पहले ही चाची ने बात लूट ली थी ,

‘ आए-हाए… तभी बिटिया रानी कहने आई है।

तेरी माँ क्या चल-फिर भी नहीं सकती ?

खुद नहीं आ सकती थीं क्या ? जो तेरे मार्फत से कहलवाया है ?



स्नेहा बिचारी चुपचाप अपना सा मुँह लेकर वापस माँ के सिराहने बैठ बुखार से तप्त हो रहे कपाल को सहलाने लग पड़ी थी।

और बात आई-गई सी हो कर रह गई थी।

कुछ दिनों के बाद ही हृदयरोग से जर्जर हो रखे गीता के शरीर ने आखिर में जबाव दे दिया।

अचानक आए हार्ट अटैक से माँ ने स्नेहा की आंखों के सामने या यों कहिए उसकी गोद में ही  … अंतिम सांस ली है।

मुँह में आग एवं श्राद्ध कर्म भी हतभागी स्नेहा ने ही किए ।

उसे अग्नि कर्म निपटाते साँझ हो गयी थी

दूसरे दिन सबेरे उठते ही चाची का यह प्रहार ?

तब से लेकर आज तक पढ़ाई के साथ खेल , सहज-बचपन जनित उछल-कूद तक पर चाची की कड़ी निगाह जहाँ उनकी अपनी बेटी ‘सुहानी ‘ पर लाड़ बरसाती वही स्नेहा तक आते-आते वह लहर सूखी नदी बन जाती।

लेकिन वचन और कर्म की पक्की स्नेहा ने भी कभी चाची की बात नहीं उठाई है।

धीरे-धीरे समय निकलता गया।

बनाव-श्रृंगार से उसे अरुचि सी हो गई।

बहरहाल दिन निकलने के लिए होते हैं निकलते जा रहे हैं।

दोनों बहनें एक ‘श्याम’ और एक ‘श्वेत’ एक स्वभाव से नर्म तो दूसरी गर्म लेकिन आपस में प्रेम भाव की रत्ती भर भी कमी नहीं ।

गोरी-चिटट्टी  सुहानी अपने सौन्दर्य से गर्वित हुई माँ के द्वारा लाई गयी प्रसाधन की तमाम वस्तुओं को शान से स्नेहा को दे आती ,

‘ मुझे इसकी जरुरत नहीं है।

ले लगा ले दीदी,  शायद कोई गोरा-चिट्टा दूल्हा मिल जाएगा वर्ना इस सांवले रंग पर तुझे तो कोई मिलने से रहा ‘

स्नेहा हल्के से मुस्कुरा कर उसकी पीठ पर एक धौल लगा देती…



‘ तू अपनी देख, मुझे तो जब मिलना होगा मिल ही जाएगा ‘

दोनों की ही अपनी अलग-अलग विशेषताएं एवं स्वभाव होने के बावजूद एक दूसरे के प्रति अगाध स्नेह भाव।

जैसे एक नदी के दो किनारे।

कालातंर में अचानक से जब उसी सांवली-सलोनी स्नेहा के लिए बड़े घर से अति मनभावन सुहाना विवाह प्रस्ताव आ गया था।

जिसे चाची झेल नहीं पाई थी।

एवं स्नेहा को इसकी भनक तक नहीं लगने दी थी।

लेकिन उनके व्यवहार में अचानक आए इस परिवर्तन को उनमें आए यों अचानक  बदलाव को स्नेहा भाँप नहीं पाई ।

आखिर भाँपती भी किस तरह ?

वो तो घर के बाहर ही बाहर जब पहली बार उसकी जगह सुहानी ने ले ली थी। चाची की मीठी- मीठी बातें … ?

उनमें में आए नाटकीय परिवर्तन की पोल तो तब खुली थी।

जब लड़के वालों ने घर आ कर स्नेहा के हाथ की बनी मीठे खाने के आग्रह को लाख उपाय करने पर भी चाची टाल नहीं पाई थीं,

‘ बना दे स्नेहा, मीठे गाजर का हलवा ‘

स्नेहा चुपचाप जरा सा भी उफ्फ नही करती हुई किचन में जा खड़ी हुई।

और तैयार मीठे को लेकर बनी-ठनी सुहानी चली गयी थी ड्राइंग रूम में

अपनी बहन स्नेहा की जगह।

इधर घर में विवाह की तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं ।

चाची की जुबान से हर वक्त टपकती शहद की धार में उभ-चुभ होती स्नेहा अकेले में अपने भाग्य को कोस – कोस कर रोती रहती।



विवाह मंडप में जब स्नेहा की जगह सुहानी को बिठाने की  तैयारी पूरी हो गई थी।

द्वार पूजन के समय दरवाजे के पीछे से गोरे-चिट्टे दूल्हे को देख बेचारी स्नेहा उदास हो … विवश सी आहें भरती रह गई।

उसे बाहर आने की सख्त मनाही थी

मंडप से बुलावा… आया…

‘ ‘स्नेहा बिटिया’ … को लेकर आएं ‘

स्नेहा के साथ ही सुहानी के कानों तक भी यह आवाज आई थी।

‘ किसी हथौड़े जैसी घन्न से पड़ी थी यह बुलाहट उन दोनों ही के कानों में ‘

हैरत में डूबी खड़ी है स्नेहा और ठगी हुई सी महसूस कर रही है सुहानी।

‘ माँ… ये क्या ? , ‘

‘ चाची… ‘ स्नेहा कुछ भी नहीं बोल पाई

— अचला

‘ अब ये क्या करेगी जा कर ? ‘ चाची ने रास्ता रोक रखा है।

इधर भरे मंडप में स्नेहा का इंतजार हो रहा है ,

उधर कमरे में माँ -बेटी का टकराव अपनी चरम सीमा पर जा पहुँचा है।

कोने में खड़ी डरी-सहमी स्नेहा थर्र-थर्र काँप रही है।

–सुहानी

‘ स्नेहा दीदी पर बहुत अत्याचार तो कर लिया है माँ पर अब और नहीं कर पाऊंगी ‘



‘ सदा ही इनका हक छीन कर आप मुझे देती आईं हैं और इस बिचारी ने कभी उफ्फ तक नहीं की है और ना ही कभी अपने होठ  खोले हैं।

लेकिन इस बार तो आपने हद्द की सीमा पार कर दी है आपने मुझसे, अपनी बेटी तक से भी छल किया है माँ ‘

‘ लेकिन अब और नहीं!

आखिर इनके अरमानों की चिता पर मेरे सपनों का महल मैं कैसे खड़ा कर पाऊंगी माँ ? ‘

कहती हुई फूट-फूट कर रो पड़ी है सुहानी।

और आंखें तो!

स्नेहा की भी भरी हुई हैं …

लेकिन छोटी बहन सुहानी के प्रति कृतज्ञता भरे निश्चछल भाव से उसके रोम-रोम सिहर रहे हैं।

स्वरचित /सीमा वर्मा

नोएडा

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