‘ एक निर्णय ‘ – विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : माताजी , एक वृद्ध महिला दरवाज़े पर खड़ी हैं, उन्हें आपके पास भेज दूँ?” चपरासी ने पूछा।जवाब में हल्के रंग की कलफ़दार साड़ी पहने एक गौर वर्ण महिला ने कहा, ” हाँ-हाँ, उन्हें अंदर ले आओ।” माताजी ने उस महिला का वृतांत सुना और एक सेविका को उन्हें रूम नंबर बारह में आदर सहित ले जाने का आदेश देकर स्वयं रजिस्टर में उस महिला का नाम,उम्र इत्यादि लिखने लगी।

‘माताजी’ नाम से जाने वाली इस महिला का नाम आनंदी देवी है।अपनी उम्र के अड़सठ बसंत देख लेने वाली आनंदी देवी कभी आनंदी नाम की हँसमुख, चंचल और कक्षा में अव्वल आने वाली लड़की हुआ करती थीं।दो भाईयों की इकलौती बहन और पिता की लाडली आनंदी ने जब दसवीं से आगे पढ़ने की इच्छा जाहिर की तो भाईयों ने सहर्ष सहमति दे दी लेकिन तभी बुआजी ने अपने रिश्ते के एक भतीजे हरदेव बाबू जो शहर में सरकारी नौकरी करता था,को आनंदी के लिए चुन लिया।पिता बहन की इच्छा टाल न सके, स्वयं भी अच्छा वर हाथ से जाने देना नहीं चाहते थें, इसलिए बेटी से क्षमा माँग उन्होंने आनंदी का विवाह हरदेव बाबू से कर दिया।

ससुराल में आनंदी को खाने-पीने की तो कोई कमी नहीं थी लेकिन उससे बात करने वाला कोई नहीं था।हरिदेव बाबू तो रात में देर आते और खाकर सो जाते थे।सास-ससुर अपनी ही दुनिया में खोए रहते थें।पति के तानाशाह स्वभाव के कारण वह स्वयं के अस्तित्व को लगभग भूल-सी गई थी।चकरी की तरह दिनभर पूरे घर में घूमती रहती, शाम को सास के पैर दबाना और रात को पति के, उसकी दिनचर्या थी।सास तो उसे कुछ कहती नहीं थी लेकिन जब हरदेव बाबू अपने मित्रों के बीच उसे गँवार कहकर उसे अपमानित करते तो वह खून का घूँट पीकर रह जाती थी।इसी में चार बरस बीत गए। बच्चे न होने के कारण अब सास उसे ‘बांझ ‘ होने का ताना देने लगी जो उसके लिए अति पीड़ादायक थी।दो साल तक डाॅक्टरी इलाज कराने के बाद उसे एक बेटा हुआ।बेटे के साथ ही वह हँसती-बोलती,उसी में ही वह अपना भविष्य देखने लगी थी।


समय का पंछी उड़ता गया,उसका बेटा साहिल स्कूल जाने लगा।उसे पढ़ाने और होमवर्क कराने के बहाने एक बार फिर से वह किताबों से जुड़ गई।साहिल दसवीं पास करते ही काॅलेज की पढ़ाई के लिए दूसरे शहर चला गया और आनंदी फिर से अकेली हो गई।साल भर बाद सास-ससुर ने भी दुनिया को अलविदा कह दिया, हरदेव बाबू ने भी अस्वस्थता के कारण एक वर्ष पूर्व ही रिटायरमेंट ले लिया।

आनंदी ने सोचा था कि पढ़ाई पूरी होते ही साहिल का विवाह कर देगी, फिर वह बहू के साथ बाकी जीवन काट लेगी लेकिन इंसान का सोचा कब पूरा हुआ है जो आनंदी का होता।साहिल ने पढ़ाई पूरी होते ही अपने मित्र के पिता के फ़र्म में नौकरी कर ली और मित्र की बहन जो कि अपने पिता के साथ ही ऑफ़िस जाया करती थी,से ही विवाह करने का फ़ैसला कर लिया।

न चाहते हुए भी उसे बेटे को विवाह की रज़ामंदी देनी पड़ी।बहू तो मुश्किल से चार दिन ही उसके पास रही होगी,फिर तो ऐसी गई कि ससुर के काम-क्रिया में भी नहीं आई।पति के गुज़र जाने के बाद बेटा उसे यह कहकर उसे अपने साथ ले गया कि यहाँ अकेली क्या करोगी, वहाँ सबके बीच रहोगी तो मन लगा रहेगा।वह नहीं समझ पाई कि बेटा उसे घर की देखभाली के लिए ले जा रहा है।पंद्रह दिन बीतते-बीतते पूरे घर की ज़िम्मेदारी उस पर आ गई।कुछ दिन तो सब ठीक-ठाक चला, फिर बहू ने अपने तेवर दिखाने शुरु कर दिए।उसके काम में मीन-मेख निकालना तो जैसे उसकी आदत ही हो गई थी।अब उसकी उम्र भी साठ की हो रही थी,बात-बात पर बहू के हाथों अपमानित होना, उसे बहुत खलता था परन्तु अपनी यह पीड़ा वह किससे कहे?बेटे ने तो यहाँ तक कह दिया था कि गाँव का घर बेचकर उस ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाओ लेकिन उसने साफ़ इंकार कर दिया था।जीते-जी अपना हाथ तो वह कभी नहीं काटेगी।


एक दिन उसने काॅलोनी की कुछ महिलाओं को उसने भजन गाते सुना तो रोज शाम को वह भी उनमें शामिल होने लगी।वहाँ जाने पर उसने देखा कि उसके उम्र की तकरीबन सभी महिलाएँ कभी पति के आसक्ति  में तो कभी पुत्र-मोह के कारण स्वयं के अस्तित्व को भूल चुकी हैं।

उसकी पोती स्कूल के लिए ‘आत्मसम्मान’ विषय पर एक डिबेट तैयार कर रही थी।उसने अपने स्कूल में तो कई डिबेट किये थे,यही सोचकर उसने पोती की मदद करनी चाही तो पोती ने तीखे स्वर में कहा, ” आत्मसम्मान का मतलब आप क्या जाने? पहले अपने पति से अपमानित होती थीं और अब अपनी बहू से।आपका तो सम्मान ही नहीं है, आत्मसम्मान तो बहुत दूर की बात है।” सुनकर वह अचंभित रह गई।क्रोध में ही सही,उसकी पोती ने उसके सोए आत्मसम्मान को जगा दिया था।

उस रात वह करवटें बदलती रही, आगे का सफ़र अकेले तय करने का एक निर्णय लेकर वह तड़के ही बेटे के नाम ‘ मैं जा रही हूँ ‘ का एक नोट लिखकर अपने घर वापस आ गई।घर काफ़ी बड़ा था,पति के पेंशन के रुपये से ही रंगाई-पुताई कराके उसमें बिजली-पानी की व्यवस्था करवाई और निश्चय किया कि अपने जैसी सभी महिलाओं को वो आत्मसम्मान के साथ जीना सिखायेंगी।इस तरह से वह आनंदी देवी से माताजी बन गई और इस घर का नाम रखा ‘ माताजी निवास’ जहाँ रहने वाली सभी महिलाएँ अपने आत्मसम्मान के साथ जीवन-यापन कर रहीं हैं।सिलाई-बुनाई करने,अचार-पापड़, नमकीन इत्यादि बनाने के व्यवसाय से जुड़कर वे सभी आत्मनिर्भर भी हैं।


माताजी जब नई आई महिला का वृतांत सुन रहीं थी तब उनके मन में यही विचार आया कि महिला को यूँ ही कमज़ोर कहा जाता है।यहाँ आई तकरीबन सभी माताएँ अपनी बहू के हाथों ही अपमानित हुई होती हैं।अगर हम सभी एक-दूसरे के सम्मान की रक्षा करें तो…।खैर, उन्होंने गरदन हिलाकर अपने विचार को झटक दिया और रजिस्टर में नई माताजी का विवरण लिखकर उन्हें उनका काम बताने रूम नंबर बारह की ओर चल पड़ी।

 #आत्मसम्मान          

——– विभा गुप्ता 

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