दिव्या(आखिरी भाग ) – आरती झा आद्या : Moral stories in hindi

“रिकार्डिंग सुनकर सब स्पष्ट हो जाएगा माते। कल दिव्या रिकॉर्डिंग सुन ले। सुनने के बाद उसके मन में आये सारे संदेह दूर कर दूँ। उसके बाद आप सब भी रिकार्डिंग सुन सकते हैं।” दिव्या की दादी के सवाल पर बारी बारी से सभी को देखता हुआ राघव कहता है।

“आज तो मैं ही कई बार सुनूँगा। फिर अपने मन में आये प्रश्नों को लिख कर जवाब तैयार करूँगा। जिससे दिव्या के सारे सवालों का जवाब दे सकूँ।” राघव अपनी योजना बताता है।

“ठीक है बेटा। मैं अपने कमरे में जा रही हूँ।” बोल कर दिव्या की दादी खड़ी हो गईं।

“हम लोग भी चलते हैं”..राघव कहता है।

दिव्या आज सुबह से ही बहुत खुश थी। कुछ ना कुछ गुनगुना रही थी। दिव्या ने सुबह की पहली किरण के साथ ही अपनी आत्मा में एक नई ऊर्जा का आभास किया। उसकी मुस्कान में सूर्य की किरणें भरी थीं, जैसे की खुशी सूरमा बन उसके हृदय को छू रहा हो। गुनगुनाहट के साथ वह अपने जीवन की प्रतिदिन की शुरुआत को एक नए उत्साह से आगे बढ़ा रही थी। उसकी आँखों में चमक, मुस्कान में मिठास और दिल में नई राह की उम्मीद थी। इस नए दिन की भरपूर ऊर्जा और प्रेरणा के साथ दिव्या ने आज के चुनौतीपूर्ण पलों का सामना करने के लिए खुद को तैयार किया था।

चंद्रिका जो कि अपनी बेटी के इस रूप पर मोहित हो रही थी… कहती है.. “आज तो मेरी बिटिया बहुत खुश है। नजर ना लगे” कहकर अपनी आँख से हल्का सा काजल लेकर दिव्या के गाल पर लगा देती है।

दिव्या माँ के गले से लिपट दुलार दिखाते हुए कहती है… “आज रिकॉर्डिंग सुनकर मैं सब कुछ जान लूॅंगी।” उसके चेहरे पर खुशी और उत्साह से भरी मुस्कान थी, जिसमें उसका प्यार और मान परिलक्षित हो रहा था। उसने आज को एक नए आरंभ का रूप देने का निश्चय किया था और इसका अहसास चंद्रिका को उसकी मुस्कराहट देख कर हो रहा था।

रिकॉर्डिंग सुनाने से पहले राघव दिव्या को सचेत करते हुए कहता है.. “बिल्कुल संयत रहना बेटा.. ध्यान से सुनना। ये लो डायरी और कलम, सुनते हुए कोई भी प्रश्न या कोई बात मन में आये तो लिख लेना। फिर उस पर हम डिस्कस करेंगे।”

दिव्या के साथ राघव भी बहुत ध्यान से सुन रहे थे। राघव के बार बार आगाह करने के बाद भी सुनते सुनते दिव्या के चेहरे पर व्यग्रता और अकुलाहट के भाव आने लगे। उसके बदलते भाव को देखते ही राघव रिकॉर्डिंग बंद कर देता है। दिव्या जो कि बहुत ही ध्यान से सुन रही थी… खुद को वही महसूस भी कर रही थी… अचानक बंद होते ही राघव पर चीख पड़ी – “बंद क्यूँ कर दिया आपने”… 

राघव पहली बार दिव्या को गुस्से में देख रहा था.. चीख इतनी तेज थी कि दरवाजे के पार चली गई… जिसे सुनकर चंद्रिका और आनंद भी लगभग दौड़ते हुए दिव्या के कमरे तक पहुंचे… दरवाजा बंद होने के कारण उन्हें वस्तुस्थिति का पता नहीं चल सका।

राघव ने दिव्या से कहा, “तुम्हारे चेहरे पर जो व्यग्रता और अकुलाहट है, वो मुझे सही में तंग कर रही है। मैं नहीं चाहता कि तुम्हें किसी बुरे अनुभव का सामना करना पड़े।” राघव श्रद्धापूर्ण आँखों से दिव्या को देखता सिर झुका कर धीरे से कहा, “तुम बहुत ही साहसी हो, दिव्या।”

राघव की आँखों में दिव्या के प्रति सम्मान और प्रशंसा की अभिवक्ति थी, जिसने दिव्या को साहस महसूस कराया। यह वाक्य दिव्या के लिए एक उत्साहपूर्ण और समर्थन भरा संदेश था, जो दिव्या को उसकी क्षमताओं पर गर्व करने का संकेत दे रहा था।

दिव्या ठीक तो होगी ना… चन्द्रिका आनंद के साथ दरवाजे से हटती हुई पूछती है। उसके मन पर अभी चिंता के काले बादलों ने बसेरा कर लिया था।उसकी दुख से भरी हुई आँखों में असमर्थता और तनाव का बोझ था।

“राघव सम्भाल लेगा… चिंता मत करो।” आनंद के बोलने के अंदाज से लग रहा था जैसे वो चंद्रिका को कम खुद को ज्यादा आश्वस्त कर रहा था।

अब तक दिव्या की दादी भी “क्या हुआ.. सब ठीक है ना”.. पूछते हुए अपने कमरे से बाहर आ गई थी।

“हाँ माँ… सब ठीक है.. आप आराम कीजिए” आनंद खुद को सामान्य दिखाते हुए कहता है।

दिव्या अभी भी गुस्से से राघव को देख रही थी और राघव उसकी आँखों में आँखें डाले शांत भाव से सामने बैठा था… बिना किसी प्रत्युत्तर के…

राघव के प्रेम भरी आँखों की शांति देखते देखते दिव्या का गुस्सा भी शांत हो गया। कमरे में नीरव शांति छा गई थी। राघव अपनी आँखें बंद कर लेता है और दिव्या को कुछ देर अपने आप में छोड़ देता है। वो इंतजार कर रहा होता है दिव्या के खुद से बोलने का।

लगभग आधे घंटे के बाद दिव्या बिल्कुल संयत हो जाती है। तब वो राघव को पुकारती है…

“चाचा जी”… 

“हाँ बेटा”…राघव आँखें खोलता हुआ कहता है।

“मैं अभी ही पूरी रिकॉर्डिंग सुनना चाहती हूँ।” दिव्या शांत सधे स्वर में कहती है।

“ठीक है.. जरूर.. लेकिन व्यग्रता के बिना। अगर तुम व्यग्र हुई, उत्तेजित हुई तो आज तक का सारा उपचार व्यर्थ हो जाएगा। खुद को शांत रखने की सारी जिम्मेदारी तुम्हारी है। कर सकोगी!” राघव दिव्या से अपने शब्दों पर जोर देता हुआ पूछता है।

“जी.. कर लूँगी मैं…. मैं अब और इंतजार नहीं कर सकती.. आज ही पूरी बात जानना चाहती हूँ।” दिव्या बहुत ही शांति से जवाब देती है।

दिव्या के लिए एक एक पंक्ति, एक एक बातें, घटनाऍं दिल दहलाने वाली थी। फिर भी वो पूरे संयम से सुनने की कोशिश कर रही थी।

अंतिम पंक्ति खत्म होते होते दिव्या फूट फूट कर रोने लगी और उसके होंठों पर तत्काल एक ही सवाल था – “क्यूँ”… 

आज उठकर राघव दिव्या को गले लगा लेता है और जी भर कर रोने देता है। कुछ देर बाद अपने आँसू खुद ही पोछती हुई खिड़की खोल कर दिव्या खड़ी हो गई। 

राघव समझ रहा था कि फिलहाल वो खुद के साथ अकेले रहना चाहेगी। राघव ये भी जानता था कि ऊहापोह की स्थिति में दिव्या को अकेले भी छोड़ नहीं सकते हैं। इसलिए बिना किसी आवाज के राघव वही कुर्सी पर बैठ गया। एक घन्टे तक उसी स्थिति में खड़े रहते हुए अचानक दिव्या का ध्यान टूटा। उसे लगा वो कमरे में अकेली है। एक गहरी साँस लेती हुई जैसे ही घूमती है.. उसकी नजर आँखें बंद कर कुर्सी पर बैठे राघव पर पड़ती है।

दिव्या राघव को आश्चर्य से देखती हुई अपनी बात अधूरी छोड़ देती है, “आप यहाँ.. ऐसे.. मुझे लगा”…

“कि तुम कमरे में अकेली हो.. नो माई डियर… अब तुम प्रश्न पूछ सकती हो।” राघव कुर्सी छोड़कर खड़ा होता हुआ कहता है।

दिव्या बिना कुछ बोले डायरी आगे कर देती है। उसमें उसने अपने सारे सवाल लिख रखे थे।

“सवाल तुम खुद पूछोगी”… राघव डायरी दिव्या की ओर घुमा देता है और कहता है।

दिव्या कुछ देर चुप रहती है। राघव समझ रहा था कि दिव्या के मन में अभी प्रश्नों के बवंडर उठ रहे होंगे, जो की दिव्या की साँसों के अस्वभाविक आरोह अवरोह से स्पष्ट परिलक्षित हो रहे थे। एक गहन मंथन के बाद दिव्या ने बोलना शुरू किया तो फिर बोलती ही चली गई…..

समाज औरतों के साथ इतना घृणित कार्य क्यूँ करता है कि वो अपना जीवन खत्म ही कर दे। ये समाज पुरुष प्रधान इसीलिये है कि पुरुष बलशाली हैं। फिर वो अपने से निर्बल की रक्षा करने के बदले अत्याचार कैसे कर सकता है। ये पुरुषों का कौन सा पुरुषार्थ है। एक साॅंस में बोलकर दिव्या चुप हो गई।

“तुम्हारी बात अक्षरशः सत्य है। पुरुष मानसिक रूप से औरतों से कमजोर होते हैं। उनकी सत्ता उनके हाथ से ना निकल जाए, शायद यही सोच उन पर हावी होती है। इसे भी स्त्रियाँ ही समाप्त कर सकती हैं। अपने बेटे को.. जो कि आने वाले कल का पुरुष होगा.. उसके पुरुषार्थ को.. उसके दायित्व को.. उसकी सोच को एक सही दिशा दिखा कर… समाज में औरतों पर हो रहे अत्याचार के विरुद्ध अन्य औरतों का साथ देकर.. 

लेकिन इसका मतलब हरगिज ये नहीं है कि पुरुषों का कोई दायित्व नहीं है। अगर संस्कार की नीव औरतें रखती हैं तो उसे सींचना पुरुषों का ही दायित्व है।

“सही कह रहे हैं आप.. अगर देवदासियों से राज्य की महिलाएँ घृणा नहीं करती और इस कुप्रथा के खिलाफ आवाज उठाती तो शायद इस तरह दुनिया से किसी को विदाई नहीं लेनी पड़ती। अगर पिता अपनी स्वार्थ सिद्धि भूल बेटी को थोड़ी देर के लिए ही सही देवी सा सम्मान देकर उन्हें देवदासी बनने पर मजबूर ना करते तो भी हालात कुछ और होते। हम हर बात में पाश्चात्य संस्कृति पर पहुँच जाते हैं या अंग्रेज और मुगल करने लगते हैं। देवदासी तो हमारी अपनी प्रथा रही है। आज उसका विस्तृत और अपभ्रंश रूप वेश्यावृत्ति है। इसमें कितनी लड़कियों.. कितनी बच्चियों का सौदा किया जाता है… जैसे वो कोई निर्जीव वस्तु हो.. जिसका अपना कोई मान.. कोई इच्छा ही ना हो … दूसरों की संस्कृति की बुराइयाँ देखने के बदले हम अपनी बुराइयों को खत्म करने पर जोर देते तो क्या ये ज्यादा उचित नहीं होता? दिव्या शून्य में ताकती बोले जा रही थी और राघव चुपचाप उसके चेहरे की उभरती मिटती रेखाओं को चुपचाप देख रहा था।

उनका खुलापन हमें कचोटता है पर हम कंबल के नीचे जो घी पीने का उपक्रम करते हैं.. उसका क्या.. 

राघव सोच रहा था.. इतनी छोटी उम्र में कितनी बातें दबी हुई थी इसके अंदर। इसी कारण ऐसी परिस्थिति देखने पर इसका अंतर्मन आपा खो देता था। खैर राघव उसे बोलने दे रहा है… सारा गुबार जितनी जल्दी निकल जाए.. उतनी जल्दी मुख्यधारा में लौट सकेगी।

“खुद को शरीफ कहते समाज को शर्म भी नहीं आती है…ऐसे में चरित्रहीन औरतें कैसे हुई… चरित्रहीन तो ऐसे पुरुष हुए…फिर चरित्र प्रमाणपत्र बनाने का दायित्व पुरुषों का कैसे हो सकता है या उन स्त्रियाँ का भी दायित्व कैसे हो सकता है.. जो स्त्री होकर दूसरी स्त्री की मजबूरी का मज़ाक बनाती है… इन फैक्ट किसी को चरित्र प्रमाण पत्र देने वाले हम कौन होते हैं। क्या कभी किसी ने उनकी मजबूरी जानने की कोशिश की। दलदल में धकेलने वाले लाखों हैं… दलदल से निकलने में सहयोग करने वाले मुट्ठीभर। फिर घर के पुरुष औरतों का बाहर निकलना क्यूँ बंद करवा देते हैं। घर से निकलना बंद तो उन पुरुषों का होना चाहिए जो समाज में दो मुँहे साँप की तरह होते हैं।” आज दिव्या उफनती नदी की तरह लग रही थी… जो अपने वेग से बिना किसी रुकावट के हर गंदगी बहा ले जाना चाहती थी। हर उस पत्थर को रास्ते से हटा देना चाहती थी। जिसने समाज को विकृत बना दिया था। 

राजा का अंतःपुर और मुगलों के हरम की स्थिति क्या इससे अलग थी। एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए सारा जोर दूसरों की औरतों को हड़प कर ही होता था। राज्य में चलती हुई कोई सुन्दर स्त्री दिख गई तो उसे अंतःपुर या हरम में होना ही चाहिए। ऐसी मानसिकता क्यूँ… यही स्थिति अभी भी है.. रास्ते में फब्तियाँ कसना.. इतना मजबूर कर देना कि या तो वो इसे अपनी किस्मत समझ कर जान दे दे या घर से निकलना छोड़ दे और कुछ नहीं हुआ तो तेजाब तो है ही ना..सदियों से यही तो होता आ रहा है.. … कहाँ जाएगी… क्यूँ है हमारे समाज की ऐसी सोच…. कब और कैसे समझेगा समाज कि औरतें भी साँस लेती इंसान हैं। कब और कैसे बदलेगा ये समाज। विज्ञान ने तरक्की कर ली.. पर ज्ञान वही के वही है.. ज्ञान के नाम पर शून्य ही हैं…क्यूँ नहीं जनसमुदाय इसके विरोध में आगे आता है। इसके लिए क्रांति क्यूँ नहीं होती? जब किसी लड़की पर अत्याचार कर दुनिया से रुखसत कर दिया जाता है तभी जनसमुदाय का सैलाब क्यूँ?” बोलते बोलते दिव्या की साँसें तेज चलने लगी थी। उत्तेजना से दिव्या की आवाज़ अवरुद्ध होने लगी, जोकि दिव्या चुप होने पर मजबूर करती है।

राघव उठकर दिव्या को पानी देता है। दिव्या एक साँस में ही इस तरह पानी पीती है, जाने कब से वो प्यासी थी।

राघव उसके बोलने का इंतजार करने लगा। जब उसे लगता है कि दिव्या कुछ और नहीं बोलेगी तब वो बोलने के लिए मुँह खोलता है। अभी उसने एक शब्द भी नहीं बोला था कि दिव्या बोलना शुरू कर देती है।

“मैंने सोच लिया है.. चाचाजी.. मैं पढ़ाई पूरी कर ऐसे दलदल में फँसी महिलाओं, लड़कियों, बच्चियों के लिए काम करुँगी। मेरा ये जीवन उनको ही समर्पित होगा। जो काम तब अधूरा रह गया था वो अब पूरा करुँगी मैं।” ये बोलते समय दिव्या के चेहरे पर अलग सा ही तेज था, मानो कई दीप एकसाथ जलकर मार्ग दिखा रहे हो। शायद ये शब्द दिव्या नहीं प्रियंवदा बोल रही थी।

दिव्या की बात सुनकर राघव के मन में चंद्रिका की आवाज़ गूँज उठती है। जब उसने बताया था कि दिव्या का कहना है.. देवी माँ ने उसे विशेष कार्य करने के लिए भेजा है… शायद वो विशेष कार्य यही है।

“ठीक है.. तुम्हें जो भी करना होगा.. करना.. हम सब तुम्हारे साथ होंगे।” दिव्या की ये सारी बातें भी राघव भविष्य को सोच कर रिकार्ड कर लेता है।

दिव्या के चेहरे पर और उसकी अंतरात्मा में रूई के फाहे सी उज्ज्वल शांति वातावरण को भी शांति प्रदान कर रही थी।

राघव दिव्या के दैदीप्यमान और दृढ़ संकल्पित चेहरे को देखकर अपने देश में ही रहने का और दिव्या का हर क़दम पर साथ देने का निर्णय ले चुका था और आज दिव्या लॉ की डिग्री लेने के साथ साथ अपनी माॅं चंद्रिका से “रक्षंदा बालिका गृह” का उद्घाटन भी करवा रही थी।

समाप्त

 

आरती झा आद्या

दिल्ली

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