दावानल – राहुल वालिया

दोपहर:

लंबी उड़ान के पश्चात केचन कौए ने तनिक विश्राम करने की सोची। घने बरगद के पेड़ का कोई विकल्प न दिखा तो उसकी मोटी टहनी को क्षणिक आश्रय बना लिया। चोंच में दबाये रोटी के टुकड़े को पंजे से जकड़ा और आँखें मूंदने का प्रयास करने लगा। तभी एक चिर-परिचित गंध ने सुषुप्त केचन को पुनः चैतन्य अवस्था में धकेल दिया।

“अरे जगनी! तुम यहाँ?” केचन ने अधखुली पलकों से अपनी सहभागनी की ओर देखा।

“हाँ! सोचा थोड़ा सुस्ता लूं। मुई गर्मी में पंख जले जाते हैं।” जगनी ने अपने पंखों को बरगद की छाया में झाड़ते हुए कहा।

“मगर आप यहां? अरे वाह! खूब बड़ा रोटी का टुकड़ा मिला है आपको।” जगनी ने केचन की कमाई को भांप लिया था।

“हाँ! चलो, अब वापिस चलते हैं। वैसे तुम क्यों निकली घर से? बच्चों के पास रहने के लिए कहा था न मैंने?” केचन ने स्वर थोड़ा कर्कश किया।

“बच्चे ठीक हैं। आप चिंता न कीजिये। सब समझा कर ही निकली थी।” जगनी ने केचन को आश्वस्त करते हुए कहा। ” और आप जाईये अब घर! आप को तो चोंच भर मिल गया है। मैं खाली हाथ न जाने वाली! बच्चों को खिलाईये आप। रेवा तो पेट का ताव सह लेगी मगर विकला? चिल्ला-चिल्ला कर जंगल सिर पर उठा रहा होगा।”


जगनी की आधी बात सुन कर ही केचन ने अपने पंखों को अगली यात्रा हेतु मुस्तैद कर लिया था।

शाम:

“सुनो! कितने समय से आपको ढूंढ रही हूँ। आप यहाँ बैठे हो? क्या देख रहे हो? जंगल की आग और यह धुआं? सारा जंगल छान मारा, घोंसला न मिला। सोचा बच्चे आपके साथ निकल गए होंगे। और आप यहाँ बैठे हो? विकला और रेवा कहाँ हैं? निवाला दिया था न उन्हें? रोटी तो अब भी आपने पैरों में जकड़ कर रखी है। इतनी भी क्या जल्दी थी उनके परों को उड़ान देने के लिए? जाओ अब! ढूंढ कर लाओ।” जगनी की अनवरत बातों को केचन सुन तो रहा था परन्तु उत्तर देने की स्थिति में नहीं था। जंगल की आग के उठते धुएं से कंठ अवरुद्ध था शायद या अवसाद ने वाक्-तंत्र को घोंट दिया था। वेदना, अवसाद अक्सर स्वर छीन लेती है। शायद यही केचन के साथ हुआ था।

तभी रुंधे हुए गले के साथ अस्पष्ट स्वर में केचन के वाक् निकले।

“चलो जगनी! आज हम भी आदम-जात की भांति पका हुआ खाते हैं।”

इस से पहले जगनी कुछ समझ पाती, केचन ने हलकी उड़ान के साथ रोटी के टुकड़े को धधकती ज्वाला में फेंक दिया। आग के गोले का चक्कर काटते हुए, रोटी के टुकड़े की परवाह न करते हुए स्वयं को आग की ज्वाला में झोंक दिया। केचन के पंख मखमल के कपडे की भांति सिकुड़ चुके थे। धरती पर गिरते ही उसने जगनी की ओर देखा। जगनी सब समझ चुकी थी अब तक! जगनी ने भी उड़ान भरी। रोटी का टुकड़ा अभी भी आग के ताप में पक रहा था। जगनी के पंख भी मखमल की भांति सिकुड़ चुके थे। केचन के पंजों में आग के ताव से कुछ यूँ सिकुड़न हुयी कि जगनी के पंजों से उलझ गए। मात्र दस गज दूर रोटी का टुकड़ा भी इस दावानल में राख में परिवर्तित हो चुका था।

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