दाई माँ – ऋतु गुप्ता

कैसी हो बहुरिया,अब  कौन सा महीना चल रहा है ,बताओ तो..

सोसायटी में सफाई करने आती परसन्दी काकी ने कुछ ही समय पहले रहने आये रितेश की पत्नी रीमा से पूछा…

रितेश और रीमा को लगभग 1 वर्ष हो गया था, बिहार के गांव से यहां शहर आए।रितेश यहां किसी कंपनी में कार्यरत है, उसके बड़े-बड़े सपने हैं, कि वह यहां खूब सारा पैसा कमाएगा,बच्चों को अच्छी शिक्षा देगा , गांव में भी मां, पिताजी के लिए खूब सारा पैसा भेजा करेगा और कोई भी कोर कसर न रखेगा अच्छे जीवन निर्वाह मे…

समय खूब हंसी खुशी गुजर रहा है, पूरा परिवार बहुत खुश है, रीमा को यहां शहर में ज्यादा किसी से बोलना चालना नहीं होता क्योंकि शहर में लोग फ्लैटों में ही रहते हैं और यहीं तक सीमित हो जाते हैं।

 रीमा ठहरी गांव में खुली हवा में परिवार के बीच रहने वाली लड़की इसलिए जब भी परसंदी काकी रीमा से हंसी मजाक करती हैं, हाल चाल पूछती है तो उसे अच्छा लगता है कि कोई तो अपना है यहां…

 वो गांव में मां को भी बताती है कि परसंदी काकी किस तरह उसे प्यार करती है,मां भी कहती है बेटा आदमी अपनी जात से ज्यादा अपने व्यवहार से पहचाना जाता है।

 यादों से बाहर आते हुए रीमा परसंदी काकी से कहती है काकी छठा महीना लगा है ,बस सब राजी खुशी हो जाए फिक्र लगी रहती है…




 ना ना बहुरिया फिक्र ना करो,इस वक्त पर फिक्र नहीं सिर्फ खुश रहते हैं , और देख लीजै मुझे तो लागै है लक्ष्मी ही आने वाली है तेरे घर मे…

 रीमा ने रितेश की तरफ देखा जो आजकल कोरोना के कारण घर से ही काम कर रहा है,

 रितेश खुश हो कर कहता है कि  तुम्हारे मुंह में घी शक्कर काकी, जो तुम्हारी बात सच हुई तो, तुम्हारे लिए बढ़िया से साड़ी जमफर मेरी तरफ से..

 रीमा काकी से पूछती है इतने यकीन से कैसे कह सकती हो काकी..कि बेटी ही होगी।

 काकी… अरे बहुरिया ये मेरा उम्र भर का अनुभव है कि इस कोठरी के अंदर  छोरा है कि छोरी ,पेट और चाल ढाल से पढ़ लूं हूं मैं….

 ना जाने कितने जापे करें है इन हाथों ने गांव में ..

 मजाल जो एक भी जापा बिगडा हो …

 ये तो अब लोग दाईयों से ज्यादा अस्पताल और डाक्टरो पर विश्वास करने लागे है और ठीक भी है समय के साथ-साथ सब कुछ बदलता ही है।

 कुछ समय बीतता है और एक दिन रीमा को असमय ही दर्द होने लगते हैं, अभी तो महीना भर बाकी है ,कोरोना का माहौल है अस्पताल में जगह नही मिलती,कोई आस पास डॉक्टर भी नही मिलता ,जिस डॉक्टर का इलाज चल रहा है वो भी अचानक छट्टी पर है, करें तो क्या करें, गांव जाने और गांव से किसी को आने में भी समय लगेगा…

 तभी रितेश कहता है परसंदी काकी को पूछ कर देखते हैं , रीमा भी हां करती है, क्योंकि कोई और इस संकट में समझ नही आता,

 परसंदी काकी कहती है देख ले बेटा,जापा तो मैं अच्छे से कर सकूं हूं, पर तुम ठहरे बड़े ऊंचे धर्म के और  मैं ठहरी सफाई करने वाली …




 रितेश कहता है मैं धर्म से ज्यादा कर्म पर विश्वास करता हूं काकी आपको ही इस समय  सब संभालना होगा…

 परसंदी काकी सब कुछ संभाल लेती है और एक नन्ही सी बिटिया को रितेश के हाथों में सौंपती है , और कहती है, मैं ना कहती थी कि लक्ष्मी ही आवेगी ..

 रितेश कहता है तो अब बताओ काकी साड़ी जमफर कैसे रंग, डिजाइन के लोगी ..

 दोनों खिलखिला कर हँस पड़ते हैं..

 रितेश कहता है,  आप तो हमारे लिए भगवान का रूप हो काकी …जो अगर आज आप न होती तो …

 बस कर बेटा …मैं भी तो तुम्हारी मां जैसी हूं और कौन मां परेशानी में अपने बालकों को अकेला छोड़ती है..

 सच में इंसान जात से बड़ा या छोटा नही होता है ,वो बड़ा होता है,अपने कर्मों से..

 आज कोरोना काल में मैं हर उस सफाई कर्मचारी को सलाम करती हूं जिन्होंने पूरी लगन व निष्ठा के साथ अपना फर्ज निभाया है,और इस जंग मे मानवता का साथ निभाया है।

इस भयावह काल में हमने बहुत कुछ खोया है लेकिन इस कोविड काल ने हमे ये भी सिखाया है कि कोई भी इंसान जात पात से,या धर्म से बड़ा या छोटा नही होता ,वो तो बड़ा होता है अपने कर्मों से… इंसान के कर्म ही उसकी पहचान है।

अपनी कलम से

ऋतु गुप्ता

#भेदभाव

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