छोटा शहर (भाग1 ) – श्रीप्रकाश श्रीवास्तव : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : सुनंदा खुश थी। उसके दोनों औलादों की घर गृहस्थी सेटेल हो चुकी थी। बेटा दिल्ली में बैंक में लग गया तो वही बेटी दामाद चंढीगढ में। बेटी की शादी इलाहाबाद में की मगर दामाद की नौकरी चंढीगढ में थी। जो दिल्ली से ज्यादा दूर नहीं था। वह जब भी दिल्ली जाती तो देानेां जगह आराम से दो तीन महीना बिता कर आती।

सुनंदा के पति वकील थे। यह उनका खानदानी पेशा था। ससुर स्वयं एक नामी गिरामी वकील थे। अच्छा खानदान देखा। रहन सहन देखा। सो सुनंदा के पापा ने उसकी शादी भदेाही में कर दिया। वह पापा के इस फैसले से नाखुश थी। कहां लखनऊ, कहां छोटा सा कस्बानुमा भदोही। पापा के सामने एतराज जताना कोई आसान काम नही था।

फिर भी हिम्मत करके अपनी मां से बोली,‘‘मम्मी, क्या किसी बडे शहर में मेरी शादी के लिए  कोई रिश्ता नहीं मिला जो पापा मुझे एक अदने से शहर में भेंज रहे है?’’सुनंदा का लहजा शिकायत भरा था। 

‘‘ वे तुम्हारे पिता है। तुम्हारी बेहतरी वे अच्छी तरह जानते है,‘‘मां  ने जवाब दिया। 

‘‘वह गांव की तरह है,’’सुनंदा कही।

‘‘ ऐसी बात नहीं है। भले बडे शहरों के तामझाम नहीं है मगर वहां भी लेाग संपन्न है। तुम वहां सुखमय जीवन गुजार सकोगी।मां भी पापा की भाषा बोल रही थी। ‘‘ लखनऊ हो बनारस तुम कहीं भी आराम से आ जा सकती हेा। सबसे बडी बात है वहां के लोगों में अब  भी एक दूसरे के प्रति अपनापन है। जो तुम्हें बडे शहरों में मिलने  वाला नहीं।’’ मां कहती रही।

‘‘उससे क्या फर्क पडने वाला। आखिर आप भी गांव छोडकर लखनऊ में रह रही है?‘‘सुनंदा कही।

‘‘तुम्हारे पापा की नौकरी है इसलिए रह रहे हैं अबजब इतना लंबा अरसा यहां बिता दिया तो यहीं बस गये।‘‘मां बोली।

अंततः बेमन से सुनंदा को शादी के लिए तैयार होना पडा। इसके बावजूद बडे शहर का मोह सुनंदा से नहीं छूटा। सुनंदा ने जैसे तैसे अपना उम्र काट लिया मगर वह नहीं चाहती थी कि उसका बेटा  इस शहर में रहे। इसलिए दोनों को उच्च शिक्षा के लिए बाहर भेजा। वह जानती थी कि एकबार दोनों बाहर की दुनिया देखेंगे तो शायद ही इतने छोटे शहर की तरफ रूख करें। हुआ भी ऐसा। बेटी की शादी जहां होना था वहां हुआ।

मगर  जब बेटे की बारी आयी तो उसने साफ साफ मना कर दिया कि वह दिल्ली छोडकर इतने छोटी जगह नहीं आने वाला। सुनंदा खुश थी। इसी बहाने उससे भी भदोही छूटेगा। न कोई घूमने की जगह न ही ढंग का रेस्टूरेंट। न ही उसके मन लायक लोग। बोल चाल भी पूरी तरह गंवई । उसे भी उन्हीं लोगों का तौर तरीका अपनाना पडा। जो उसे नागवार लगा। सुनंदा अब बहुत कम ही भदोही में रहती। वहां उसे आराम था।

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श्रीप्रकाश श्रीवास्तव

वाराणसी

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