चने वाला – संगीता श्रीवास्तव

वह एक शाम थी। मैं ट्रेन से उतर कुछ फल और बिस्कुट के पैकेट्स को ले लंबी- लंबी डेंगे मारती टैक्सी स्टैंड जा रही थी। मैं लोकल ट्रेन से ही कार्यालय आती जाती थी।उस दिन मुझे जल्दी घर पहुंचना था क्योंकि मैं अपनी 3 साल की बीमार बेटी को बूढ़ी सास के पास छोड़ आई थी। मैं पास ही शहर में एक सरकारी कार्यालय में काम करती थी। उस दिन मुझे तनख्वाह मिलनी  थी इसलिए मुझे कार्यालय जाना पड़ा ,नहीं तो नहीं जाती। मेरे पति कुछ दिनों से शहर से बाहर अपने ऑफिस के काम से गए हुए थे। मैं टैक्सी स्टैंड पहुंचने ही वाली थी कि पीछे से आवाज आई-“ओ बिटिया, ओ…. बिटिया…. रुकना जरा।”पीछे मुड़कर देखी, एक बूढ़ा जिसके कंधे पर  चने की टोकरी लटक रही थी, हांफते हुए मेरे पास पहुंचा। हांफते हुए कहने लगा – “बिटिया तोहार बटुआ गिर गया था जब तुम फल खरीद के तेजी से जा रही थी।मेरा कलेजा धक से किया ।ओह!आज तो मेरी सारी तनख्वाह चली जाती , मैं बड़बड़ाई ”  उसने मुझे पर्स थमाया। उसे  आश्चर्य से देखती हुई अपना पर्स ले ली। मैंने पर्स से कुछ रुपए निकाल उसे देना चाहा ,पर वह फीकी मुस्कान बिखेरते हुए बोला,”क्यों बिटिया इसकी कीमत देवत है? रख ले बच्चों के काम आएंगे” और वह तेज कदमों से, चने वाला….चनेवाला कहते हुए चला जा रहा था और मैं उसे देखती रह गई।

                      मैंने टैक्सी ली, घर पहुंची। बेटी तेज बुखार से तब रही थी। मेरी सास उसे बर्फकी पट्टियां दे रही थीं। मैं तुरंत उसे अस्पताल ले गई। बहुत सारे जांच हुई और इलाज शुरू हुआ। धीरे-धीरे सुधार होने लगा और सुबह डॉक्टर ने घर ले जाने की इजाजत दे दी। मेरी तनख्वाह का आधा से अधिक हिस्सा खत्म हो गया। खैर, मेरी बेटी बच गई। मुझे रह-रह कर उस चने वाले की याद आ रही थी। यदि उसने मेरी पर्स ना लौटाई होती तो  कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता।

     मैं जब भी कभी ट्रेन से आती जाती और कोई चने वाला … चने वाला कहते हुए सुनाई पड़ता तो मेरी निगाहें बरबस उस ओर खींच जाता कि कहीं वही चने वाला तो नहीं!!

कई महीने बीत गए पर वह बुढ़ा चने वाला मुझे नजर नहीं आया। एक दिन ऐसा हुआ, स्टेशन पहुंची तो पता चला ट्रेन इंजन खराब होने की वजह से आधे घंटे लेट है। मैं प्लेटफार्म पर ही यात्रियों के बैठने के लिए बनी कुर्सियों पर एक तरफ बैठ गई और एक पत्रिका खोल पड़ने लगी। कुछ ही देर बाद चने वाला… चनेवाला कहते हुए कोई इधर ही आ रहा था। मेरा ध्यान उधर गया। अरे, या तो वही बूढ़ा है! मैं अल्हादित हो उसे पुकारी। मेरी आवाज सुन वह आया। “मुझे पहचाना बाबा!” मैंने पूछ दिया। कुछ पल स्मरण करने के बाद वह खुश हो तपाक से बोला,”अरे तुम वही बटुवा वाली बिटिया हो न?”   “तुमने ठीक पहचाना बाबा!”मैंने कहा।




बातचीत में मैं उसके घर वालों के बारे में पूछ बैठी।मेरा पूछना था कि उस बूढ़े की आंखों से आंसू छलक पड़े। मैंने पूछा,”क्या हुआ बाबा?”  “कुछ नहीं बिटिया,बस यूं ही।”

“तुम्हारा घर कहां है? तुम्हारे घर में और कौन-कौन हैं?” मेरा इतना कहना था कि वह फूट-फूट कर रोने लगा। “ओह! क्या हुआ बाबा? तुम रो क्यों रहे हो?”

” हां बेटी, ये आंसू ही तो शेष रह गए हैं।”

“मैं कुछ समझी नहीं बाबा।”

“क्या करोगी जान कर बिटिया।”मैंने उसके कंधे पर हाथ रख कर कहा,”बताओ न बाबा।” “अच्छा, तू कह रही है तो बता रहा हूं।”उसने गहरी सांस लेते हुए कहनी शुरू की- “लगभग 20 साल पहले की बात है। मेरा भी घर संसार था। बीबी थी दो बच्चे थे। बेटी जो 5 साल की थी और बेटा 10 साल का था। मेरी छोटी सी चाय की दुकान थी जो झोपड़ी से सटे थी। अचानक एक दिन बहुत तेज आंधी आई और मेरी झोपड़ी में आग लग गई। बीवी और बच्चे सहित पूरी झोपड़ी आग में स्वाहा हो गई। मैं उस समय बाजार से कुछ सामान लेने गया था। खबर मिलते ही दौड़ा- दौड़ा आया तब तक मेरा सब कुछ बर्बाद हो चुका था। मैं बर्बाद हो गया बिटिया।”कहते हुए वह अंगोछे से आंसुओं को पोंछने लगा।

“सरकार ने मुआवजा देने का आश्वासन दिया लेकिन आज तक नहीं मिला। तब से मैं इसी प्लेटफार्म पर रहता हूं और अपनी जिंदगी को किसी तरह घसीट रहा हूं।”  इस दर्द के माहौल को बदलने के लिए मैंने कहा,  “चने नहीं खिलाओगे ‌बाबा ?”   ।”अरे, क्यों नहीं बिटिया!अभी बनाए देता हूं।”उसने झटपट मुझे चने दिए। मैं उसे पैसे दे चने खा ही रही थी कि ट्रेन की सीटी सुनाई पड़ी। मैंने दौड़ कर अपना सीट लिया। खिड़की से बाहर झांका, देखा वह बूढ़ा आंसू पोंछते, चने वाला…. चने वाला कहते हुए चला जा रहा था। उसकी कहानी सुन मैं अंदर ही अंदर रो रही थी। आंखें बंद किए उसी की  बातों में खोई थी कि कब मेरा स्टेशन आ गया पता ही नहीं चला। टैक्सी ली और घर पहुंची।

जब कभी भी वह मुझे मिलता मैं उससे चने जरूर खरीदती।

   ……और एक दिन जैसे ही ट्रेन रुकी, बहुत भीड़ नजर आई और लोग किसी को पीटे जा रहे थे। मैं स्थिति से परिचित होने के लिए भीड़ की ओर लपकी। भीड़ को चीरते हुए अन्दर की ओर गई। अरे,यह तो वही बूढ़ा है। मैं चिल्लाई,”क्यों पीट रहे हो इसे, क्या किया है इसने? छोड़ दो इसे।”

पर भीड़ की आवाज में मेरी आवाज दब गई। लोग पीटते हुए उसे थाने की ओर ले गए उसके जाने के बाद पता चला कि ट्रेन की बोगी में वह चने बेच रहा था।उस बोगी में अन्य हॉकर्स भी थे।इस बीच किसी सज्जन की पत्नी का पर्स चोरी हो गया। पत्नी के शोरगुल करने पर सभी हॉकर्स उतर गए और वह वहीं बैठा रह गया।उस महिला ने हल्ला शुरू कर दिया कि इसी बूढ़े ने मेरी पर्स चुराई है। इसने कहीं छुपा दिया है। फिर होना क्या था…., लोगों ने उसे मारना शुरू कर दिया। पीटने के बाद लोग उसे थाने को सुपुर्द करने जा रहे हैं। मैं तिलमिला उठी। ओह नहीं! वह ऐसा नहीं कर सकता।यह तो बहुत बड़ा अनर्थ हो गया। मैं कुछ कर न पाई।रात हो चुकी थी इसलिए ‌मैं सीधे घर चली आई।रात भर मैं करवटें बदलती रही, नींद नहीं आई। सुबह बगैर कोई काम किए मैं थाने पहुंची। देखा , वह बूढ़ा मरा पड़ा है। मैं चीख पड़ी और बेहोश हो गिर पड़ी थी। कुछ देर बाद मुझे होश आया। पता चला लोगों ने उसे मार-मार कर अधमरा कर दिया था। थाने पहुंचने के कुछ घंटे बाद उसकी जीवन लीला समाप्त हो गई थी। मैं घर पहुंची। मैं बूढ़े की मृत्यु से आहत हो कई  दिनों तक बीमार पड़ी रही।अब‌ भी मुझे उसकी मौत का‌‌ सदमा पकड़े हुए है। अक्सर रात में मैं बड़बड़ाती हूं…… इसे मत मारो, इसने पर्स नहीं चुराए….. इसने पर्स नहीं चुराए…..।

#मासिक_प्रतियोगिता_कहानी 

स्वरचित , अप्रकाशित

संगीता श्रीवास्तव

उत्तर प्रदेश, लखनऊ।

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