चाहत – डाॅ संजु झा

चाहत की कोई  सीमा नहीं होती है। इच्छाएँ अनंत हैं।उन पर लगाम लगाना आवश्यक है।कभी-कभी मनुष्य अपनी असीम तथा फालतू चाहत के हाथों की कठपुतली बनकर जिन्दगी भर कष्ट उठाता है।अंत में पश्चाताप के सिवा उसके हाथों में कुछ नहीं रह जाता है।

आज मैं बेटे की चाहत सम्बन्धी एक कथा लेकर उपस्थित हूँ।रंजना जी और रतीश बाबू को दो बेटियाँ थीं।दोनों की जिन्दगी खुशहाल थी।रतीश बाबू के लिए  बेटा-बेटी में कोई अन्तर नहीं था।उन्होंने अपनी पत्नी से कहा -” देखो! रंजना,मैं दोनों बेटियों को ही पढ़ा-लिखाकर काबिल बनाऊँगा।आजकल लड़कियाँ भी लड़कों की तरह जिन्दगी के प्रत्येक  क्षेत्र में लम्बे-लम्बे डग भरती नजर आ रहीं हैं।लड़कियाँ ऊँचे  पदों पर पदासीन अपने कामों से समाज में नया आयाम  लिख रहीं हैं।अपनी शक्ति और अधिकार  के बल पर समाज को चमत्कृत कर रहीं हैं।मुझे बेटों की कोई चाहत नहीं है।”

रंजना जी मन-ही-मन पति की बातों से पूर्ण  सहमत नहीं थीं।उनके दिल में एक बेटे की चाहत अवश्य  थी,परन्तु खुलकर पति के समक्ष बोल नहीं पाती थीं।कुछ दिनों बाद रंजना जी के देवर के बेटे की छठी-पूजा थी।पूजा में वे  पति औरअपनी दोनों बेटियों को लेकर पहुँची।उन्हें बेटियों के साथ देखकर उनकी पड़ोस की सास पूछ बैठी-“बहू!तुम्हारी दो बेटियाँ ही हैं?एक भी बेटा नहीं है?”

बात तो कोई  बहुत बड़ी नहीं थी,पर पूछने का अन्दाज  ने रंजना जी को आहत कर दिया।रही-सही कसर देवरानी

 ने अपने बेटे को उनकी गोद में न देकर  पूरी कर दी।रंजना जी ने इन सब बातों को अपने दिल  पर ले लिया।

घर आकर रंजना जी ने अपने पति से कहा-“मुझे तो अब एक बेटा चाहिए  ही।समाज में इतना अपमान  और जिल्लत मैं नहीं झेल सकती।”पति रतीश जी ने उन्हें काफी समझाने की कोशिश की,परन्तु बेटे की चाहत उनपर हावी हो चुकी थी। कुछ समय बाद बेटे की चाहत में  उन्होंने तीसरी बेटी को जन्म दिया। इस बार भी पति रतीश जी ने उन्हें समझाते हुए कहा -“अब तो तुम्हारी जिद्द पूरी हो गई!अब हम तीनों बेटियों का ही पालन-पोषण अच्छे से करेंगे।वे ही हमारा नाम रोशन करेंगी।”




पति की बातों पर उस समय तो रंजना जी खामोश ही रहीं,परन्तु उन्होंने बेटे का न होना अपनी जिन्दगी में मान-अपमान का विषय बना लिया था।

हमारे पुरूष प्रधान समाज में वर्षों से ऐसे रीति-रिवाज चले आ रहें हैं,जिनमें बेटियों को हीन और बेटों को महत्वपूर्ण दर्शाया गया है।इन रीति-रिवाजों की जकड़नों  के कारण रंजना जी की बेटे की चाहत कम होने के बजाय बढ़ती ही जा रही थी।कुछ दिनों बाद रंजना जी अपने जेठ के बेटे के उपनयन-संस्कार में पहुँची।रीति-रिवाजों के समय किसी ने उनके मर्मस्थल पर चोट करते हुए कहा-“अरे! बेटियोंवाली से रस्म करवाना शुभ नहीं होता है।इससे कोई रस्म मत करवाओ।”

लोगों के ताने सुनकर रंजना जी अपमान का घूंट पीकर रह गईं।

घर आकर उन्होंने एक तरह से प्रण लेते हुए  अपने पति से कहा -“मैं मर जाऊँ तो भी कोई गम नहीं,परन्तु मैं एक बेटे की चाहत पूरी करके ही रहूँगी।”

पति के लाख समझाने पर भी उनपर कोई असर नहीं हुआ। कुछ दिनों बाद उन्होंने फिर एक बेटी को जन्म  दिया।इस बार उनके पति ने गुस्से में कहा -” तुम्हें कुछ समझ में नहीं आता है।चार-चार बच्चियों का पालन-पोषण और शिक्षा आसान नहीं है।अब बेटे की चाहत की जिद्द  खत्म करो।”

प्रत्येक  बार  की तरह इस बार  भी रंजना जी खामोश ही रहीं,परन्तु बेटे की चाहत का समंदर उनके अन्दर हिलोरें ले रहा था,जिसे वह किसी हालत में अधूरा नहीं छोड़ना चाहती थीं।जब पाँचवीं बार रंजना जी ने गर्भधारण किया,तो उनके पति का धैर्य जबाव दे दिया।उन्होंने रौद्र  रुप धारण करते हुए  पत्नी से कहा -“मुझे पांचवीं संतान किसी हालत में नहीं चाहिए। चाहे वो लड़का ही क्यों न हो!”




रंजना जी ने अपनी चाहत पूरी करने हेतु पति से भी ज्यादा रौद्र रूप धारण करते हुए कहा-“चाहे मेरी जान क्यों न चली जाएँ,परन्तु मुझे एक बेटा चाहिए  ही।मैं समाज के तानों को जिन्दगी भर नहीं झेल सकती।”

 

संयोगवश पति के खिलाफ जाकर रंजना जी ने पाँचवीं बार बेटे को जन्म दिया।उनकी चाहत पूरी हो चुकी थी।अब रंजना जी चारों बेटियों की अपेक्षा बेटे का विशेष ख्याल  रखतीं।सभी के पास अपनी चाहत और अपने बेटे का गर्व से बखान करतीं,मानो बेटे को जन्म देकर उन्होंने दुनियाँ फतह कर ली हो!

उनके पति रतीश जी ने समझदारी दिखाते हुए  चारों बेटियों की अच्छी शिक्षा दिलवाई। सभी बेटियाँ पढ़-लिखकर नौकरी करने लगीं। सभी का शादी-ब्याह अच्छे घरों में हो गया।रंजना जी का बेटा इंजिनियरिंग करके नौकरी करने विदेश चला गया।अब रंजना जी के दिल में बेटे की शादी की चाहत अंगड़ाईयाँ ले रही थीं।एक दिन बेटे ने उनकी चाहत पर तुषारापात करते हुए कहा-“माँ! मैंने यहाँ विदेशी लड़की से शादी कर ली है।अब मुझे यहाँ की नागरिकता मिल जाएगी और परिवार भी।”

धीरे-धीरे रंजना जी बेटे के उपेक्षित व्यवहार  से अंदर-ही-अंदर घुटने लगीं।बेटे के खिलाफ पति से कुछ बोल नहीं पातीं।बेटा शुरुआत  में तो साल-दो-साल में आ जाता था,परन्तु पाँच साल से उसका आना बन्द हो चुका था।कभी-कभार फोन आ जाता था।तनाव और अवसाद के कारण रंजना जी की तबीयत खराब  रहने लगी।चारों बेटियाँ माता-पिता का ख्याल  रखतीं।

बेटे की याद में रंजना जी का दर्द  बार-बार आँखों के रास्ते बह निकलता।रंजनाजी पति के सामने अपनी गल्ती स्वीकार्य करते हुए कहतीं-“मैं इसी बेटे की चाहत में अपना सर्वस्व न्योछावर करती रही।मेरी चाहत और अरमान  दोनों खोखले साबित हुए।”

रतीश जी पत्नी की भावनाओं को समझते हुए सोचते हैं-“बेटे का मोह भी कैसा  है,जिसके सामने संसार  के सभी मोह बेबस हो  हथियार  डाल देते हैं? वही बेटा कैसे इतना निर्मोही  हो जाता है कि  माता-पिता का मोह भी उसे बंधन जान पड़ता है और वह इस स्नेह और ममता के बंधन से मुक्त  हो जाना चाहता है। भाग-दौड़ भरे उनके जीवन  में माता-पिता की चाहत के लिए  शायद कोई जगह नहीं है।”

रंजना जी आगे बढ़कर पति के सीने से लग जाती हैं।आँसुओं के साथ उनकी संपूर्ण अव्यक्त व्यथा भी बह निकली।अपनी खोखली चाहत के लिए उनके पास पश्चाताप के सिवा कुछ नहीं बचा था।

 

समाप्त। 

लेखिका-डाॅ संजु झा।

 

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