बिटिया – मीरा परिहार : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : नैना अपने पति के साथ ही दिहाड़ी मजदूर का कार्य करती थी। दूसरा राज्य ,दूसरी भाषा …पर काम की वजह से एक लम्बा अरसा वह इस पराए शहर में रह रहे थे। एक खाली पड़े प्लाट में अपना रहने लायक ठिकाना बना कर आनंद मय जीवन व्यतीत करते थे । यहीं उनके बच्चे लल्लन,कल्लन और बैनी पैदा हुए। धूप, गर्मी, सर्दी में बच्चे भी अपने माँ, बाबूजी के सारे में खेलते रहते।

नैना सबेरे ही सबकी रोटी भात बना कर बाँध लाती और सब मिलजुल कर खाते पीते रहते। लल्लन स्कूल जाने लायक हो गया था तो उसका स्कूल में दाखिला भी करवा दिया और वह दिमाग से अच्छा था , अतः उसकी पढ़ाई सुचारू रूप से चल रही थी । बालू के ढ़ेर पर वह भी अपनी किताब कापी लेकर अपने काम को पूरा करता रहता। कल्लन का मन पढ़ने में नहीं लगता था अतः उसे स्कूल भेजा ही नहीं गया।

बैनी अभी पैदा हुई थी ,माँ जब काम करने लायक हो गयी तो एक बिछोने पर उसको बुला कर ईंट ढोने का कार्य करती रहती और रोने पर उसे दूध पिला फिर से बिछोने पर सुला अपने काम में तल्लीन हो जाती। आते-जाते उस पर नजर भी रखती, दुलार भी कर देती।  वह बड़ी होने लगी,पैदल चली तो मां ने पैजनिया पहना दीं, हाथों में कंगन भी पहना देती और काले घुंघराले बालों को कस कर कान के पास दोनों ओर बांध दिया करती । 

अड़ोस- पड़ोस की महिलाओं द्वारा समय-समय पर कभी कपड़े तो कभी खिलौने दे दिए जाते,कभी बिस्किट टाफियां । बच्चे खेलते कूदते बड़े होने लगे । बैनी स्कूल जाने लायक हुई तो उसके मां,बाबा इस बात के लिए तैयार ही नहीं थे । उनका कहना था कि हमारे खानदान* में लड़कियों को कोई नहीं पढ़ाता।

घर का काम-काज करेगी, फिर ब्याह कर देंगे। बिटिया तो सब ही की पराई होती हैं। प्लाट के बगल में ही डाक्टर साहब रहा करते थे जिनके यहाँ से नैना और उसका पति  पानी भर लिया करते थे तो आत्मीय संबंध बन गये थे। उन्होंने समझाया,” बैनी के बाबू ! अब समय बदल गया है, पढ़-लिख कर तुम सब का जीवन बदल सकता है। तुम बिटिया का नाम स्कूल में लिखवा लो , जरूरत पड़ने पर पैसे की मदद हम कर दिया करेंगे। स्कूल में बात करके बताना कितना खर्च आएगा.. ठीक है ! “

डाक्टर साहब की बात को नैना टाल नहीं सकी , उसने बैनी का लल्लन के स्कूल में ही नाम लिखवा दिया। बैनी भी खुशी-खुशी जाने लगी और अपने भाई के साथ ही पढ़ती -लिखती रहती, घर का काम भी करती। लल्लन पंसारी की दुकान पर सामान उठाने- रखने का काम करने लगा, ग्राहकों के हिसाब का पैसा भी संभालने लगा ,पर कल्लन क्या करता ?

कभी उसे रिक्शा चलाने के लिए उसके बापू कहते तो कभी अपने साथ भी गिट्टी तोड़ने, सीमेंट बालू उठाने के काम पर‌ लगाये रखते। लल्लन के व्यक्तित्व में निखार आने लगा ,उसने बिजली वालों के साथ काम करके बिजली फिटिंग का काम भी सीख लिया। देखते देखते बैनी भी कक्षा दस पास कर चुकी थी ।

माँ बापू चिंतित रहते ,शादी कैसे करेंगे। समय-समय पर वे अपने राज्य में जाकर अपनी पुश्तैनी जमीन पर अपना घर भी बना आते थे और कुछ समय बाद फिर से मजदूरी पर लग जाते थे। बैनी अब हाईस्कूल की परीक्षा दे चुकी थी और अपने खर्च के लिए नर्सरी के बच्चों को पढ़ा कर  जरूरत के लिए पैसे पा जाती थी। ख़र्च की ओर से मां-बापू को नहीं सोचना पड़ता था पर विवाह की चिंता उन्हें सताती थी।…..

जब प्लाट के मालिक रिटायर होकर आ गये और अपने रहने के लिए मकान बनाने के लिए नैना और उसके पति से कहा, उन्होंने भी खाली करने की बात मान ली और अपना सामान अपने गाँव में पहुँचा दिया। ‌‌पर मकान ‌बनाने के लिए उन्होंने अपना डेरा वहीं फिर से बना लिया। जो ईंटें मकान बनाने के लिए आयी थीं उन्हीं को दो कमरों का आकार देकर बसेरा फिर से गुलजार हो गया।

फर्क सिर्फ यह था कि पहले मिट्टी से लीप पोत कर अपने घर को आबाद किया था जो कि बाउंड्री के अंदर था पूरा प्लाट ही अपना था तो ईंधन,चूल्हा, नहाने का स्थान सभी का सुभीता था ,बाहर वालों की नजर पड़ती थी तो केवल अलगनी पर टंगे हुए कपड़ों पर । झोपड़ी में मिट्टी से फिक्स किए हुए शीशे पर कभी-कभी राहगीर अपना चेहरा देख कर जुल्फें भी संवार लिया करते थे।

आज ये टेम्पेरेरी लाल ईंटों के कमरे जिनमें बिजली के बल्ब भी चमकते थे रात को , बाउंड्री बाल से बाहर थे और उनमें होने वाली गतिविधियों पर आने जाने वालों की नजर पड़ ही जाती थी। बालू के ढ़ेर पर बैठी पढ़ाई करती हुई बैनी सबके लिए एक उदाहरण थी। आस-पास के बड़े घरों वाले कहते , विद्यार्जन के लिए धन से ज्यादा लगन की जरूरत होती है और वह लाखों पैबंद के बीच भी खूबसूरती का पैमाना बन जाती है।

बैनी पतीली में भात देख ले, बैनी! भैया को खाना लगा देना, बैनी कपड़े फैला दे की आवाजें कितनी ही बार उसके हौसले पस्त करने की कोशिश करतीं पर वह भी किसी खास मिट्टी से बना कर भेजी थी ईश्वर ने। आनंद के बहते स्रोत की तरह वह बाहर,अंदर न जाने कितनी ही बार आती-जाती। साथ के बेलदार, राजमिस्त्री सभी उसकी प्रशंसा करते और अपने बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित करते। कुछ नवजातों को मांएं बेफिक्र होकर बालू के ढ़ेर पर

बैनी की निगरानी में सुला देतीं। एक घर को बनने में कितने दिन लगते हैं ? अधिक से अधिक छ:माह …बैनी का ग्यारहवां तो निकल गया लेकिन बारहवीं के लिए फिर से कोई व्यवस्था देखनी थी इसी शहर में। इस बार उसे सहारा मिला,उनका ही जिनके प्लाॅट में वह सपरिवार सालों से रहते आ रहे थी। खाली स्थान पर एक छोटा सा कमरा उनके लिए बनवा  दिया गया ।

बैनी की बारहवीं होने के बाद पूरा परिवार अपने गाँव चला गया। राह आसान नहीं थी लेकिन इरादे भी जिद्दी थे। पास के काॅलेज में उसे प्रवेश मिल गया और वह मनोयोग से अपनी यात्रा पर चल पड़ी। गाँव में अभी भी बच्चों का रुझान पढ़ाई की ओर कम ढिलाई की ओर अधिक था, अतः उसने अपने घर की दीवार को ही ब्लैक बोर्ड बना कर,फ्री कोचिंग लिख दिया  । उत्सुकता वश लोग आते , पता करते और अपने बच्चों को बैनी दीदी के पास पढ़ने बैठा देते।

कहते हैं गरीबी सौ पर्दौं में भी नहीं छिपती ,सभी जानते थे कि बैनी के बापू एक बेलदार हैं और माँ खेतों में फसल पर गेहूं काटने या आलू खोदने का काम कर लेती और जब खेत खाली होते तो  फिर उसके बाद गाँव में कोई काम नहीं मिलता । बैनी के बापू के लिए भी यहाँ अधिक अवसर नहीं थे। अतः वह अक्सर शहर में में ही अपने काम के सिलसिले में रहते। घर पर माँ,लल्लन, कल्लन और बैनी ही रहा करते थे।

लल्लन को एक दुकान पर‌ हिसाब किताब करने का काम करता लेकिन वेतन बस काम चलाने लायक मिल पाता । कल्लन को बेलदारी या मजदूरी के कार्य मिलते जिन्हें वह करना ही नहीं चाहता था। उसे लगता , उसकी बहन और भाई पढ़ें-लिखे हैं अगर वह मजदूरी करेगा तो उसकी इज्जत क्या रहेगी । पूरे दिन घूम-फिर कर शाम को ऐसे ही लौट आता। माँ शुरू में बैनी को उसके साथ जाकर काॅलेज तक छोड़ने जाती और लेने भी जाया करतीं क्योंकि उनको लगता कि जमाना खराब है। अभी गाँव के चाल-चलन से परिचित भी नहीं है।

दूसरी बात उसके समाज में लड़कियां पढ़ भी नहीं रही थीं तो हर वक्त शादी करने का दबाव उसके रिश्तेदारों की ओर से बना रहता। ऐसा भी नहीं था कि उसे प्रशंसा नहीं मिलती हो। बहुत से जानने वाले उसकी सराहना भी करते और प्रोत्साहन भी । अखबार पढ़ने के कारण बहुत सी योजनाओं की जानकारी उसे रहती जिससे वह सबको परिचित करवाती और बैंक, नगरनिगम, सरकारी कार्यालयों जैसे बहुत से काम  करवाने के लिए शहर जाकर मददगार का काम करती।

छुट्टी के दिन पेड़ की छांव उसका कोचिंग सेंटर हो जाता ,जहाँ वह बच्चों के सवालों को हल करवाने में मदद करती। दो-तीन साल के अंतराल बाद वह एक विद्यालय की प्राचार्या की नजर में आ गयी और उनके सानिध्य में उसने उनकी संस्था ज्वाइन कर ली जो कि बस्तियों, बंजारों के बच्चों को प्रशिक्षण देकर स्कूल पहुँचाने में मदद करती थी।

छब्बीस जनवरी आने को थी … दो दिन पहले प्राचार्य दीदी ने बताया ,” बैनी तुमको प्रशासन के द्वारा पुरस्कृत करने का पत्र आया है ,मेरे साथ चलना ,अपने माँ-बापू को भी को भी लेकर चल सकती हो। “

बैनी इस खबर से बहुत खुश हुई और अपनी माँ को बताया… “अम्मा छब्बीस जनवरी को शहर चलना है कालेज वाली बहिन जी कह रही हैं।”

अम्मा ने संकोचवश कहा, “मैं अनपढ़ कहाँ जाऊँगी ,तुम बहिन जी के संग ही चले जाना , ” लेकिन बैनी के बाबू चाहते थे कि वे बिटिया को अपनी आँखों से पुरस्कार लेते हुए देखें।

वह खुश होकर कहने लगे ,” बैनी मैं चलूँगा तुम्हारे साथ और अम्मा भी। कल बाजार से अपने लिए बढ़िया सा कुर्ता -पायजामा और तुम्हारी अम्मा के लिए साड़ी लेकर आते हैं। तुम अपने लिए भी ले लेना,जो चाहो। अब इतना तो कमा ही लेते हैं कि सबके लें कपड़ा खरीद लैं और फिर खान-पियन की कौनहु परेशानी नाहीं है  सरकार बदौलत।”

अपने बापू की बातें सुनकर बैनी के पंख लग गये और पूरी रात उसे यही सपने आते रहे कि हे भगवान पता नहीं कैसे मैं सामना करूँगी सबका ,पता नहीं कौन से सवाल पूछने लगें पुरस्कार देने वाले। मन में ही प्रश्न तैयार किए और उनके उत्तर भी । क्या नाम है ? कैसे पढ़ाई की ? किसने सहायता की ? तभी उसे अपने शुरुआती दिनों के डाॅ साहब याद आ गये …झट से उनका नाम याद किया और अपनी डायरी में नोट कर लिया … फिर कालेज की प्राचार्या जी का नाम याद आया और अपनी माँ जिन्होंने कदम-कदम पर उसका साथ दिया।

अगर माँ का साथ नहीं मिलता और बापू का संरक्षण नहीं होता तो कैसे कर पाती यह सब ,गाँव वालों का साथ , काॅलोनी वालों की मदद सभी उसके मन पटल पर चित्रों की तरह तैरने लगे। दूसरे दिन बाजार जाकर सबने अपनी जरूरत के सामान लिए और घर लौट आये। बैनी ने अपने माँ-बाबूजी को भी समझा दिया कि जब कोई सवाल पूछने लगें तो कैसे जबाव देना है। छब्बीस जनवरी की सुबह भी आ ही गयी।

प्राचार्या जी , बैनी और उसके माँ-बाबूजी एक साथ ही समारोह स्थल पर पहुँचे। वहाँ अन्य बच्चे भी आये थे जिन्होंने अपनी कला या काम के माध्यम से कुछ अलग काम करके दिखाया था। बहुत से भाषण हुए,मान सम्मान हुआ और उसके बाद बच्चों को पुरस्कृत करने का समय आ ही गया। चुने गये सभी बच्चों को मोबाइल देकर पुरस्कृत किया गया। दूसरे दिन अखबारों में बैनी का नाम भी था , जिसमें उसने बताया था कि किस तरह शहर के डाॅक्टर साहब ने उसके माता-पिता को उसे पढ़ाने के लिए तैयार किया था ,

उसी का परिणाम यह हुआ कि वह आज इस मंच पर खड़ी है। डाक्टर साहब ने जब अपना नाम देखा तो खुश होकर घर में अपने बच्चों को बताया ,बच्चो ! देखो बैनी को सरकार से मोबाइल मिला है। मैं इसीलिए कहता हूँ कि अगर देना है तो शिक्षा का उपहार दीजिए.. प्रेरक बनिए…किसी के सपनों में रंग भर दीजिए… इंसान सही समय पर अपनी पहचान अवश्य बना लेता है…तभी फोन की घंटी बज उठी…

हेलो! कौन ?

हम बैनी के बापू …” साहब आपने हमारी बिटिया की जिंदगी बनाए दी … बैनी को कल फोन मिलो है हम उसहि से बात कर रहि ,आज हमारी आँखें खुल गयीं कि पढ़ाई सबके लैं कितनी जरूरी है। भगवान आपको सभी खुशियां दें ।”

“अरे बैनी के बाबूजी हम तो निमित्त हैं,असली तो तुम्हारी बिटिया की मेहनत और तुम्हारी रजामंदी से वह यहाँ तक पहुँची है। उसे मेरा आशिर्वाद देना और जितना आगे पढ़ना चाहे पढ़ाते रहना और सुनो जब शहर आओ तो मिलना आकर..” नन्ही कली” जब बड़ी होकर खिलती है तब ही न खुशबू देती है बैनी के बाबू!

मीरा परिहार….

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