बीत गई है स्याह विभावरी – अर्चना कोहली ‘अर्चि’

मूसलाधार बरसात में झरोखे के पास बैठी आकांक्षा का मन एक अबोध शिशु की भाँति खुशी से हिलोरें लेने लगा।आखिर हो भी क्यों न! तमस भरी रात्रि के अवसान पर सूर्योदय के समान उसके जीवन में भी तो सतरंगी प्रकाश फैल गया था।

अभी कुछ दिन पहले की तो बात है, जब कैंसर के खिलाफ़ जंग में उसने सफलता हासिल करके घर वापसी की थी। एक वर्ष पहले इस बीमारी ने उसकी खुशनुमा जिंदगी को पलभर में ही अमावस्या की कालिमा भरी रात्रि में बदल दिया था। इंद्रधनुष जैसे सतरंगी रंग पानी के बुलबुले की तरह कहीं उड़ गए थे। मायूसी ने उसके मन-मस्तिष्क पर अधिकार जमा लिया था।  शेखर का साथ न होता तो शायद उसकी जिंदगी की पतंग उड़ चुकी होती।

बरखा की रिमझिम फुहारें जैसे धानी धरा का आँचल भिगो रही थीं, वैसे ही बीते लम्हे भी  उसके अंतर्मन का स्पर्श कर रहे थे। उसे वह दिन फिर से स्मरण हो आया, जब पिछले साल मानसून की पहली बरसात ने उसके नेत्रों में अश्कों की बाढ़ ला दी थी। मँझधार में फँसी नैया की तरह उसका जीवन भी  हिचकोले खा रहा था।

एक चलचित्र की तरह वह घटना भुलाए नहीं भूलती, जब ऑफिस के किसी प्रोजेक्ट में व्यस्त होने के कारण उसे अधिकतर घर आने में देरी हो जाती थी, तभी अचानक से उसका स्वास्थ्य गिरने लगा। बहुत थकान और बैचेनी रहने लगी। पहले तो उसने इसे अत्यधिक कार्यभार समझा। लेकिन जब वजन कम होने लगा और व्यवहार में तलखी आने लगी, तो शेखर ने चिंतित होकर अस्पताल जाकर उसकी जाँच  करवाई।

कैंसर की पुष्टि होते ही मैं प्रतिमा की तरह जड़ ही हो गई थी। मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था, जो रिपोर्ट में लिखा है, वह सच है। एक और जगह भी जाँच करवाई, पर नतीजा वही। अब तो शक की गुंजाइश ही नहीं थी। उस समय शेखर ने एक मजबूत स्तंभ की तरह मेरे साथ दोनों परिवारों को भी सँभाला था, जो अनुकरणीय है।


मेरे इलाज में पानी की तरह पैसा बहाने से एकत्रित जमा-पूँजी भी समाप्त होने लगी थी। फिर भी बिना भविष्य की चिंता किए वह हर क्षण एक मज़बूत शिला की तरह डटकर साथ खड़ा रहा।  कैंसर से लड़ने के लिए मुझमें  सकारात्मक ऊर्जा भरता रहा। मेरे दिल में बसे भय के साथ- साथ नकारात्मक विचारों की सलवटों को भी बाहर निकालता रहा।

रेडियशन और कीमोथेरेपी के असहनीय दर्द में अकसर ही मैं हौसला छोड़ देती थी। तब एक उम्मीद की किरण जगाने में शेखर के साथ-साथ पूरा परिवार और मित्र भी मेरे संग थे।

जानती थी, मेरे साथ पल-पल शेखर और मेरे अपनों ने दर्द की चुभन को सहन किया है। वे भी तो जलते अंगार के समान जले हैं।  इसी कारण कीमोथेरेपी में  बाल झड़ने पर भी अपनों की खातिर चेहरे पर मैं झूठी मुसकान ओढ़ी रहती थी।

शेखर ने मेरे खान-पान का पूरा ध्यान रखने के साथ- साथ कैंसर की जंग जीत चुके लोगों की प्रेरणादायक कहानियाँ भी सुनाकर मेरे दिल में जीने की आस जगाई। इससे मुझे भी उम्मीद की एक डोर नज़र आने लगी थी। डॉक्टरों के हर सुझाव पर भी मैंने अमल किया।

आखिर सबके अटूट विश्वास और सकारात्मक ऊर्जा के बल पर मुझे फिर से जीवन जीने का सुअवसर मिला। उस समय सभी के मुखमंडल पर आई खुशी की लहर देखकर ऐसा लगा, मानो मैंने पारस मणि प्राप्त कर ली हो। इसे एक अप्रत्याशित घटना ही कहेंगे, जिस दिन मैंने कैंसर से मुक्ति पाई, उस समय भी मानसून की पहली बरसात की फुहारें थी।  बस अंतर यह था, जहाँ पहले दर्द का अंगार था वहीं अब खुशी की फुलझडियाँ हैं।

अतीत से निकलकर बाहर आई तो देखा, सामने से पतिदेव आ रहे थे, मेरे पास आकर बोले- ‘चलो, रिमझिम फुहार संग पकौड़ों का मज़ा लें। एक साल बाद यह मौका मिला है। बिन पकौड़ों और सजनी के भला कैसा सावन’!

अर्चना कोहली ‘अर्चि’

नोएडा (उत्तर प्रदेश)

मौलिक और स्वरचित

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!