” भूखिन ” – गोमती सिंह

 दिसंबर का महीना था।  सुबह के 7 बज चुके थे, आज भूखिन को सुबह उठने में देर हो गई थी।  वह जल्दी जल्दी बर्तन धो रही थी।  भूखिन को उस घर में काम करते हुए लगभग 25 वर्ष हो गये थे । उस घर में कितने गिलास कितने चम्मच यथा कितने कटोरियां आदि रोजमर्रा में उपयोग होती रहती थी उनकी गिनती घर की मालकिन से ज्यादा भूखिन को याद रहती थी । वह बर्तन धोते हुए कुछ बड़बड़ाते हुए कहने लगी—” कई  दिनों से कांसे की गुड़हा कटोरी नहीं दिख रही है।  ”  तभी अंदर से आवाज़ आई -भूखिन दीदी, ओ भूखिन दीदी चाय बनाने का पतीला पहले धोकर दे दो , चाय बनाने के लिए देरी हो रही है। ”  इतना सुनते ही भूखिन ने बर्तन की ढेर से चाय बनाने का पतीला निकाल कर साफ धोकर उसे रसोई घर की ओर देने के लिए चली गई। 

             इतने वर्षों से काम करते हुए वह उस घर में इतना रच बस गई थी कि वहाँ के हर एक सदस्यों को पारिवारिक रिश्तों का संबोधन देने लगी थी।

      यह कहना नहीं होगा कि भारतीय संस्कृति की यह एक विशेष खासियत है कि यहाँ के निवासियों का दिल बिलकुल पानी जैसा होता है, यानि कि वे जिसके साथ मिलते हैं उसी के रंग में रंग जाते हैं।  वैसे ही भूखिन भी पराया होकर भी उस परिवार में अपनें जैसे रिश्ते में रंग गई थी।  पतीला देते हुए वह पूछने लगी -” बहुरिया, वह कांसे की कटोरी मैं कई दिनों से नहीं देख रही हूँ , कहीं किसी के घर सब्ज़ी भाजी तो नहीं दिए है ?” इतना बोलकर वह जवाब का इंतजार किए बिना अपना आँचल सिर पर ओढती हुई बड़बड़ाते हुए मुड़कर चलीं गई । ” हाँ देख लो , कहीं दिए हैं तो वापस मांग लो ,ज्यादा दिन छोड़ देने से बर्तन गुम जाता है।  ”  इतना कहते-कहते भूखिन अपने काम में पुनः लग गई। 

               अब तक चाय बनकर तैयार हो गई थी और उस घर की  मालकिन ने एक केतली में चाय  तथा प्लास्टिक की टोकरी में  चाय पीने का मग लाकर टेबल पर रख दिया । घर के सभी  सदस्य  चाय पीने के लिए इकठ्ठे हो गये और मालकिन कमला की  मां  ने सभी को मग में चाय उड़ेलकल  दे दी । इसी बीच रोज की तरहभूखिन भी वहीं कोने में आ  कर बैठ गई ।

             उस घर की देखरेख,  वहाँ के बच्चों से  लेकर बुजुर्गों  तक के सभी के आदेशों का पालन करने को वह तत्पर रहती थी। लेकिन किसी बच्चे से भी बराबरी  की भावना उसके मन में नहीं आती थी ।



          जैसा कि कहा जाता है कि सम्मान मांगने की चीज नहीं है, सम्मान देने की चीज है।  इसे दूसरों को देकर स्वतः अर्जित  किया जाता है । अतः भूखिन वहाँ बराबर की कुर्सी पर लाख कहने से भी नहीं बैठती थी

 

मगर सभी लोग उसे उसके नाम से  सम्मानजनक आत्मीय  संबोधन देते थे ।

        जो सब की थाली में परोसा जाता था वही उसके भी थाली में परोसा जाता था।  इस तरह काम करते हुए दोपहर के 2 बज गए और उसके सुबह खा काम अब जाकर खत्म हुआ। ।

     घर के सभी सदस्यों के खाना खा लेने के बाद अब

भूखिन के खाना खाने का वक्त आया और।मालकिन कमला की मां ने  बड़े ही स्नेहिल आवाज़ में बोली चलो दीदी खाना खा  लो , और थाली में चांवल दाल  सब्ज़ी आदि परोस दिया। अपने मुंह में निवाला डालने से पूर्व वह घर प्रत्येक व्यक्ति के भोजन ग्रहण करने का ख्याल किया अंतर खाना खाते समय भूखिन अपनें बीती जिंदगी के बारे में सोचने लगी किस तरह दुल्हन  बनने के बाद व। बड़े अरमानो के साथ ससुराल गई पर वहाँ निठ्ठले, शराबी पति से पाला पड़ा। ।किसी तरह वैवाहिक जीवन साल दो साल  गुजरे फिर पति द्वारा प्रताड़ित किए जाने पर उसका साथ छोड़ दिया । पिता के साथ इस घर में काम करते हुए पिता के देहांत के बाद इसी घर को अपना आसरा बना लिया  । और जीवन-मरण इसी घर में तय कर लिया। 

       भूखिन अपने मिले हुए तनख्वाह को वहाँ के बच्चों के लिए अपने बच्चों जैसा खर्च कर दिया करती थीं।  भूखिन के निःस्वार्थ सेवा से मालकिन के घर में सुख , संतोष तथा सुव्यवस्था बनी हुई थी तथा भूखिन की भी सूनी सूनी जिंदगी उस पराये रिश्तों के साथ अपने पन में गुज़रती चली जा रही थी।

              ।।इति।।

           -गोमती सिंह

            छत्तीसगढ़

   स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित।

आप सभी के प्रति क्रिया के लिए प्रतिक्षारत। 

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