बालिका बधू-जयसिंह भारद्वाज

जब जब भी ज्योति अपने अतीत में झाँकती तब तब उसे अपने घरवालों से घृणा होने लगती और जब वह अपने भविष्य को देखती तो समाज और विशेषकर महिला समाज से वितृष्णा होने लगती। आइये! हम भी ज्योति सिंह कछवाह के भूतकाल में कुछ चहलकदमी कर लेते हैं।

आज से लगभग बीस वर्ष पहले उसके दादा जी के एक वचन के अनुसार कक्षा नौ की उसकी पढ़ाई बीच में रोक कर तेरह वर्ष की उम्र में उसका विवाह दादा जी के एक मित्र के तेईस वर्षीय बेटे नितिन सिंह कछवाह के साथ कर दिया गया था। जिस उम्र में उस समय की लड़कियाँ गुड्डे गुड़ियों से खेलती थीं उस समय ज्योति एक सम्पन्न और खुशहाल राजपूत परिवार की बहू बन गयी थी। दादा जी अपना कौल निभाते हुए बहुत प्रसन्न थे किन्तु ज्योति के पिता इस बात से बिल्कुल भी खुश नहीं थे और वे मर्यादावश अपने पिता के विरुद्ध बोल भी नहीं पाए। ज्योति की माँ ने भी असमहति के भाव लिए अपनी फूल सी बच्ची को विदा करते समय खून के आँसू रोये थे।

बच्चियों को वैवाहिक दायित्वों में विषय में क्या ज्ञान! किन्तु पति को अपने अधिकार चाहिए ही थे। ज्योति को अपने सास ससुर का भरपूर सहयोग था किंतु पत्नीधर्म के निर्वहन पर वे भी असहाय हो जाते कभी कभी।


ज्योति डरती थी नितिन के कष्टकारी व्यवहार से। उसे यह सब अच्छा नहीं लगता था और भाग कर सासू माँ से लिपट कर रोने लगतीं। यद्यपि ज्योति की हालत से उन्हें अपने आप पर क्रोध आता था किंतु अब बात बहुत आगे बढ़ गयी थी पीछे मुड़ना राजपूताना शान के विरुद्ध हो जाता इसलिये वे चाह कर भी कुछ नहीं कर पाती सिवाय उस रात उसे अपने पास सुलाने के। नितिन के अंदर का पुरुष इसे अपनी पराजय और उपहास मानने लगा। परिणामस्वरूप उसने अपनी दैहिक आवश्यकताओं के लिए अपने मित्र की पत्नी के रूप में एक नया ठिकाना खोज लिया और क्रमशः अपनी पत्नी ज्योति से विमुख होता गया।

विवाह के लगभग सात-आठ वर्ष बाद ज्योति ने आदित्य को जन्म दिया। उसे लगा कि बच्चा दाम्पत्य जीवन की कटुता में सेतु का कार्य करेगा किन्तु उसका यह भ्रम अगले कुछ वर्षों में टूट गया।

एक वर्ष के आदित्य को लेकर जब ज्योति अपने मायके आयी थी तब हफ्ते भर में अंदर ही नितिन आया और बेटे को लेकर वापस चला गया। ज्योति का हृदय विदीर्ण हो गया और फिर वह अगले डेढ़ दो वर्षों तक ससुराल नहीं गयी। बस यह ही वह समय था जब आदित्य भी ज्योति की पहुँच से दूर हो गया।

आज जब चौदह वर्षीय आदित्य को भोजन या कुछ खरीदने के लिए रुपये पैसे चाहिए तभी ज्योति के पास आता अन्यथा वह दादी-दादा या डैडी के पास ही रहता।

ग्रेज्युएट हो चुकी ज्योति की दुनिया में अब हताशा है, अविश्वास है, वियोग है, वैराग्य है और गहन सूनापन है। उसकी अलमारी कपड़ों, गहनों व प्रसाधन सामग्री से भरी पड़ी है किंतु ज्योति अब साधारण  से कपड़े पहनती और सास ससुर की प्रतिष्ठा के लिए अपने गले में भारस्वरूप मंगलसूत्र पहनती है।

उसकी सूनी दुनिया में प्रतिदिन तब कुछ हलचल होती जब वह गली के कुछ बच्चों को निःशुल्क ट्यूशन देती अन्यथा वही एकाकीपन, वही एकांत और वही मानसिक सन्ताप! ज्योति की डायरी इन्हीं पलों की सखी बन गयी। उसके मन में उमड़ती हर लहर को शब्दों के वस्त्र पहनाकर वह डायरी के किसी पन्ने में सजा देती है।

अपने पति नितिन से उपेक्षित ज्योति को उस महिला से अत्यधिक क्षोभ है जो एक पत्नी और माँ होते हुए भी किसी दूसरी माँ व पत्नी को तिरस्कृत करने का कारण बनी। उससे भी अधिक उस महिला के पति (नितिन के मित्र) पर क्रोध व घृणा आती जो कुछ रुपयों की ओट में निर्लज्ज की भाँति यह सब वर्षों से सहर्ष देख, सुन और समझ रहा है और अपनी पत्नी को अपने मित्र के समक्ष परोस रहा है … उफ्फ!

सास ससुर का स्नेह और उनकी जिम्मेदारी ज्योति को मरने नहीं देती जबकि बेटे और पति की उपेक्षा उसे जीने नहीं देती। राजपूत समाज में विधवाओं और तलाकशुदा स्त्रियों की दयनीय स्थिति को देख कर वह सम्बन्धविच्छेद के विषय में विचार भी नहीं कर पाती। इसी ऊहापोह की स्थिति में ज्योति वर्षों से एकाकी और इच्छारहित जीवन बस निर्लिप्त भाव से जिये जा रही है.. जिये जा रही है और जिये जा रही है… उफ्फ!

वाह रे भाग्य! कदाचित इसे दुर्भाग्य कहना अधिक उचित होगा।

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