मिश्रा जी कोर्ट में क्लर्क हैं। शहर में उनकी निष्ठा व ईमानदारी के बड़े चर्चे हैं। किसी का भी कुछ काम हो मिश्रा तैयार रहते हैं। ना कहना उन्होंने शायद सीखा ही नहीं।जज साहब से लेकर चपरासी तक सभी उनकी इज्ज़त करते हैं। कुछ पुश्तेनी जमीन भी है। फ़सल आदि की मदद से गृहस्थी की गाड़ी जैसे तैसे चला लेते हैं। उन्हें याद है कैसे पिता जी भी सबकी मदद किया करते थे। वे भी अपनी दुखीयारी बड़ी बहन को ले आए थे। माँ कुड़ती रहती कि अपने बच्चों के लिए तो पूरा नहीं पड़ता, ऊपर से इन बहन जी की सेवा करो। किन्तु पिताजी अपनी बहन के बिना एक कोर भी नहीं तोड़ते। वार त्योहार पर उन भुआजी के लिए भी नए कपड़े लाना नहीं भूलते। वे बाल विधवा थी। ससुरालवालों ने उन्हें नौकरानी ही बना दिया था। और यहाँ अपने भाई के राज में वे राजरानी बनकर रहती थी। धीरे धीरे सभी भगवान के प्यारे हो गए। बचे मिश्रा जी, उनकी धर्मपत्नी शुभधा और दो प्यारे से बच्चे। अब बस उन्हें अपने दोनों बच्चों शेखर व चंदा की अच्छी परवरिश करनी है। मात्र विद्यालय भेजने से शिक्षा नहीं मिलती है। माता पिता को उनके लिए उदाहरण बनना पड़ता है। दोनों बच्चों को पीढ़ियों से चले आ रहे श्रेष्ठ संस्कार देना उनके जीवन का लक्ष्य है। वे कभी अपना तकिया कलाम दोहराना नहीं भूलते हैं…
“बच्चों को दो अच्छे संस्कार,
तभी हो पाएगा उनका उद्धार।
अगर पकड़ा दी उन्हें नई कार
एक दिन हो जाएँगे वे बेकार।
लेकिन किस्मत का कोई भरोसा नहीं है। वह भी आगे आगे चलती है। कहते हैं धरम करते करम फूटते हैं। पत्नी शुभदा एक पार्टी के साथ बद्री केदार की तीर्थयात्रा पर जाती है। वहाँ एक सहयात्री को बचाने में वे स्वयं गंगा में समा जाती है। मिश्रा जी अकेले रह जाते हैं। अब उन्हें माता पिता दोनों का रोल निभाना है।
बेटा शेखर तो खैर दसवीं में है। माँ की कमी ने उसे अपनी आयु से ज़्यादा ही समझदार बना दिया है। चंदा अभी पाँचवीं कक्षा में है। वह है भी सबकी लाडली। रूप राजकुमारी सा पाया है। चाँदनी सा रंग, सुते हुए नैन नक्श और कमर तक लहराते केश। माँ ने चंदा से कभी कोई काम नहीं करवाया। वह थी भी इतनी नाज़ुक कि फल काटने में ही उसकी गुलाबी हथेलियाँ लाल हो जाती। ज़रा बैठक की सफ़ाई का कहो तो कमर में लचक आ जाती। ऐसे में बड़े भाई साहब सदा तैयार रहते अपनी दुलारी बहना की जीहुजूरी में। कोई हाँ से ना नहीं कह सकता चंदा को, भाई की मौजूदगी में।
मिश्रा जी के टोकने पर शुभदा कहती, “अरे ! इसे तो मैं खूब पढालिखा कर डॉ बनाऊँगी। और कोई राजकुमार ही ब्याह कर ले जाएगा। क्या ज़रूरत है भला इसे काम सीखने की। डॉ साहिबा दस नौकर रख लेगी। “
माँ के बिना चंदा की सारी जिम्मेदारी शेखर के मासूम काँधों पर आ जाती है। मिश्रा जी को नौकरी से वैसे ही फ़ुर्सत नहीं मिलती है। शेखर ने पिता को अपनी विधवा बहन की देखभाल करते हुए देखा है। अब चंदा के स्कूल की तैयारी करना, उसका बस्ता जमाना, होमवर्क कराना, उसकी पसंद का नाश्ता बनाना, आदि काम शेखर को करना है। काम करने वाली आँटी की बनाई दाल सब्जियाँ वो चखती भी नहीं। बस भैया के हाथ का या उनकी देखरेख में बना खाना ही वह खाती है। अड़ोसी पड़ोसी भी शेखर को समझाते, ” बेटा ! बहन को इतना सिर पर ना चढ़ाओ। उसे अपने आप भी कुछ करने दो। “
शेखर सबकी बातें हँस कर टाल देता , ” अरे ! वह बड़ी होकर सब सीख जाएगी। अभी तो मैं हूँ ना। ” सब तारीफ़ करते नहीं थकते कि भाई हो तो शेखर जैसा। “
शेखर स्वयं भी लॉ कर रहा है। वह अपनी पढ़ाई भी पूरी तन्मयता से करता है। उसे वकील बनकर बहन को डॉ जो बनाना है।
पत्नी की मृत्यु के साल भर पश्चात बरसी की तैयारियाँ करते मिश्रा जी गश खाकर अचानक गिर पड़ते हैं। और उनकी इहलीला भी समाप्त हो जाती है। ईश्वर को शायद यही मंजूर था शेखर की और भी परीक्षा लेनी थी। वह अपने आँसुओं को छुपाए सारी धार्मिक क्रियाएँ सम्पन्न करवाता है। किंतु छोटी बहन को कैसे सम्भाले ? छुटकी का तो रो रोकर बुरा हाल है। अकेलेपन के भय से उसे तेज़ बुखार आ जाता है। ददिहाल परिवार में कोई बचा ही नहीं है। ननिहाल में एक मौसी है।
वह उन्हें अपने साथ रहने के लिए बुला लेता है। वह चंदा को एक मिनिट के लिए भी अकेला नहीं छोड़ना चाहता है। घर का अकेला मर्द होने के नाते उसे खेत खलिहान व बाहर के अन्य काम भी करने है। मौसी के रहते उसे चंदा के अकेलेपन की चिंता तो नहीं रहेगी। मौसी बातों बातों में बड़े प्यार से व्यवहारिक तौर तरीके चंदा को समझाती रहती है।
अभी तक तो सब लोग शेखर को मुंशी प्रेमचंद वाले बड़े भाई साहब कह कर चिढ़ाते थे। अब तो सारे दायित्व निभाने हैं, एक पिता के भी। कुछ पलों में ही उसे पिता का दर्जा मिल गया है।
शेखर एक बड़े वकील के साथ काम करने लगता है ताकि वकालात की बारीकियाँ सीख सके। चंदा को बारहवीं की परीक्षा के बाद पी एम टी की कोचिंग के लिए भेजता है। साथ ही रात में अपने काम निपटाने के बाद चंदा की पढ़ाई भी देखता है। मौसी, शेखर के लिए एक अच्छी सी लड़की सुझाती है। शेखर को समझाती है कि चंदा को एक साथी भी मिल जाएगी। किन्तु शेखर तैयार नहीं होता है। उसके अपने तर्क हैं, “पहले मुझे अपनी बहन को डोली में बिठाना है। पापा के कर्तव्य मुझे पूरे करने हैं। फ़िर मैं अपने बारे में सोचूँगा। “
किन्तु चंदा कहाँ मानने वाली, ” भैया ! आप पापा के स्थान पर मेरा कन्यादान करेंगे। माँ की पूर्ति कौन करेगा ? मुझे तो पहले मेरी भाभी माँ चाहिए। “
लाड़ो का जवाब भाई को निरुत्तर कर देता है। उसे तो अपनी बहना की हर ख्वाइश पूरी करनी है,
” अच्छा बाबा मैं हारा तुम जीती। फ़िर पसंद कर लो अपनी भाभी। “
फ़िर क्या था, ननद रानी कर देती है शुरू जोर शोर तैयारियाँ। मौसी से पूछ पूछ कर रस्म रिवाज के अनुसार सब इंतज़ाम किए जाते हैं। शुभा बन जाती है चंदा की भाभी। भाभी को पाकर चंदा की खुशियों में चार चाँद लग जाते हैं।
अब तो वह डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही है। और वकील भाई साहब, डॉ साहिबा की सेवा में लगे रहते हैं। भाभी भी अपनी ननद जी के नाज़ नखरे उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ती है।
कुछ समय तक सबकुछ ठीकठाक चलता है। किन्तु शुभा को शेखर का अपनी बहन पर इतना प्यार लुटाना रास नहीं आता है। वह अवसर पाते ही पति को टोकना नहीं भूलती है, ” ठीक है, बहन पर लाड़ बरसाओ पर उसके भविष्य का भी सोचो। मैं भी उसका भला ही चाहती हूँ। उसे आगे का जीवन किसी अज़नबी के साथ बिताना है। “
शेखर अपनी बहन के खिलाफ़ एक शब्द भी सुनना नहीं चाहता है, “हमारे माँ पापा के जाने के बाद मैंने ही उसे पाला है। मैं उसके लिए पिता समान हूँ। मेरी माँ का भी वह आंखों का तारा थी।तुम्हें भी उसकी माँ बनना होगा। “
शुभा कहती है, ” ठीक है बाबा, मैं तो बस यही चाहती हूँ कि उसकी खुशयों को कभी ग्रहण ना लगे। “
” हाँ, मैं भी तुम्हारी बातों से सहमत हूँ। अब तुम्हें ही पता लगाना होगा कि चंदा को कैसा लड़का पसंद है। उसकी पढ़ाई भी पूरी होने को है। उसका ब्याह भी करना है। ” कहते हुए शेखर चंदा के कमरे की ओर चल देता है। वह सोने के पहले रोज देखता है कि चंदा ने दूध पिया या नहीं। उसे अच्छे से ओढ़ा कर व माथा सहला कर ही ख़ुद सोता है। शुभा भी भाई बहन के प्यार के समक्ष नतमस्तक है।
घर में शुभा की गोद भराई की चहल पहल है। भावी भुआ के पैर जमीन पर नहीं टिक रहे हैं। सब मेहँदी रचवाने में मशगूल हैं। चंदा को कहाँ फ़ुर्सत ? भाभी के लिए फूलों के गहने बनवा रही है।
मौसी अपनी मसखरी करने की आदत कैसे भूलती भला, ” अब तो चंदा जी के भाव घटने वाले हैं। भैया जी अपना प्यार नए मेहमान पर ज़्यादा लुटाएँगे। “
हाज़िर जवाबी में चंदा की बराबरी भला कौन कर सकता है, ” मौसी भैया का प्यार अलादीन का चिराग है, कभी ख़त्म नहीं होगा। “
गोद भराई कार्यक्रम की मुख्य आकर्षण चंदा जी ढोलक की थाप पर ठुमके लगा रही है…
गोकुल में उड़े रे गुलाल
आने वाले हैं नन्दलाल
तभी एक स्मार्ट सा नौजवान एक महिला के साथ प्रवेश करता है।
शेखर प्रश्नवाचक नज़रों से शुभा की ओर देखता है। चंदा नृत्य छोड़ भैया से परिचय करवाती है,
” ये हैं मेरे सीनियर, डॉ आशु,,,आशुतोष मेहरा। और आप हैं इनकी बहन मीता दीदी। “
कार्यक्रम सम्पन्न होने पर शेखर जिज्ञासावश पूछते हैं, ” चंदा ! बताओ तो ज़रा कौन थे वो दोनों। पहले कभी तुमने बताया नहीं। “
चंदा शर्माते हुए बताती है, ” भैया ! ये दोनों भाई बहन अकेले ही हैं। बहुत अच्छे हैं। और…। “
” और क्या ? तुम इन्हें चाहती हो। ये मेहरा हैं। हमारा इनका क्या मेल ?” शेखर नाराजी जताते हैं।
शुभा शांत करते हुए कहती है, ” मैं आपको बताने ही वाली थी। मैंने सब पता कर लिया है। आशुतोष हर मायने में चंदा के लायक है। हाँ, विजातीय अवश्य हैं किंतु आचार विचार में आपके जैसे ही हैं। “
फ़िर भी शेखर अपनी आश्वस्ती के लिए पूरी छानबीन करते हैं। तभी अपनी रजाबन्दी देते हैं।
घर की राजकुमारी की विदाई है। तैयारियाँ भी राजशाही तौर पर होने लगी। कोई कमी कैसे रहती।
डोली तैयार है और शेखर शुभा अश्रु छलकाते हुए विदाई गीत गा रहे हैं…
“भैया की मलिका तू
भाभी की है मुनिया
पराए घर को जाना है
हमारी शान तू चंदा
*पिया होंगे तेरे हमदम
मित्र हर बात में होंगे
तेरी हर कामना पूरी
खुशी का गान तू चंदा
*पूर्ण करना सभी कर्तव्य
अधिकार भूल न जाना
तेरा विश्वास ना टूटे
नहीं नादान तू चंदा
*गलतियाँ तू नहीं करती
ग़लत भी तू नहीं सहना
सामना अन्याय का करना
हमारा अभिमान तू चंदा
*तुझे गर मुश्किलें आए
हमको याद कर लेना
ये घर भी है तेरा अपना
हमारी जान तू चंदा