आओ लौट चलें – सरिता गर्ग ‘सरि’

  श्वेत झीने परिधान में सरोवर से  निकली सद्य-स्नाता तुम किसी तपस्विनी का रूप धरे मेरा तप भंग कर गईं। मृणाल सी कटि तक लटके श्याम वर्णीय भुजंग का दंश पीता मैं ,नैनों के जाल में उलझा,जाने कितने शैल – शिखर पार करता अनजान घाटियों में उतर गया। तुम मेरे पास ही थीं कि माँ ने झिंझोड़ कर मुझे जगा दिया। ‘उठ जल्दी से तैयार हो जा फिर लड़की देखने भी जाना है।’

      दरअसल जब भी छुट्टियों में घर आता माँ शादी के लिए मेरे पीछे पड़ जाती। इस बार भैया-भाभी कुछ लड़कियों की तस्वीरें माँ के पास छोड़ गए थे। मुझसे तो वो कह -कह कर थक गए थे पर माँ के इमोशन्स के आगे मुझे हथियार डालने पड़े। माँ ने कल शाम कुछ तस्वीरें मेरे सामने रख दीं और खाना बनाने चली गईं। मैने उनके जाने के बाद धीरे से सब फोटो उठाईं और एक एक कर अनमने मन से देखने लगा। आखिरी फोटो भी नीचे रखने जा रहा था, अचानक चौंक उठा। चेहरा  बहुत जाना पहचाना सा था। यह तुम ही तो थीं।

   बहुत ख़ूबसूसूरत कमल की पंखुड़ी सा स्निग्ध और भोला चेहरा। बहुत गौर से देखा हाँ यह तुम्हीं थी हमारी गली के आखरी कोने वाले मकान में  किराए पर रहने वाले पांडे जी की बेटी। मेरे ही कॉलेज में पढ़ती थी। चार साल पहले यहाँ से कहीं बाहर ट्रांसफर होकर तुम लोग चले गए थे। मेरी तुमसे कभी बात नहीं हुई थी, बस दो चार बार आमना -सामना जरूर हुआ था। पहली ही नजर में तुम अच्छी लगी थी ,पर कभी दोनों की तरफ से ही कोई बात नहीं हुई थी। कुछ दिन तुम्हारे बिना गली का वह कोना सूना -सूना लगा, फिर सब सामान्य हो गया था। तुम मेरे लिए एक याद भर थीं।

           आज तुम्हारी फोटो मेरे हाथ में है, लगता है कोई कारूँ का खजाना मेरे हाथ लग गया। क्या यह कोई ख्वाब तो नहीं, क्या तुम मेरी जीवन-संगिनी बनोगी? मैं विश्वास नहीं कर पा रहा था। माँ ने वापस आकर मेरे हाथ में फोटो देखा तो बोली अरे यही तो पांडे जी की लड़की है जो कुछ साल पहले गली के नुक्कड़ वाले घर में रहा करते थे। कल इनके घर ही जाना है हमें। आजकल दोबारा इसी शहर में आ गए हैं। कल तेरे भैया -भाभी भी आ जाएंगे। हम सब इक्कट्ठे ही चलेंगे और तुझे लड़की पसन्द आ गई तो बात पक्की कर आएंगे।

       खाना खाया और चुपचाप तुम्हारी तस्वीर उन तस्वीरों में से चुराकर अपने साथ ऊपर ले आया। काफी देर निहारने के बाद तुम्हारी तस्वीर छाती से लगा कर सो गया। मन में निश्चय कर लिया  तुम ही मेरी दुल्हन बनोगी।

       तुम्हारी तस्वीर तकिए के नीचे छुपाकर ,जल्दी -जल्दी जाने की तैयारी करने लगा। मन में उमंग और तन में तरंगित भावनाएँ समेटे उस पल का इंतजार भारी पड़ रहा था जब तुम कनखियों से मुझे देखती मेरे सामने होंगी।



           खैर वो पल आया ,हम मिले और हम दोनों की मौन स्वीकृति से हमारे परिवार में हर्ष की लहर दौड़ गई और हम एक दूसरे में खोए भविष्य के सपने संजोते ,भारी मन से एक दूसरे से जुदा हो गए।

           अक्सर कहानियों का अंत ‘और वो सुख से रहने लगे ‘ वाले अंदाज में होता है और कहानियाँ समाप्त हो जाती हैं परंतु हमारी कहानी अभी बाकी थी। विवाह के बाद के दिन बहुत खूबसूरत, रेशम से मुलायम और हसीन थे। हम दोनों एक दूसरे का बहुत खयाल रखते। मैं तुम्हारे सारे नाज -नखरे उठाता,हर फरमाइश पूरी करता। तुम भी मेरा बहुत ध्यान रखती । हम धीरे-धीरे एक दूसरे की आदतों से परिचित हो रहे थे। कभी तुम्हारी बात पूरी न होने पर तुम रूठ जाती और मैं  तुम्हें मनाता,कभी मैं रूठता तो तुम मेरे गले में बाँहें डाल देती।

   मैं ऑफिस से अक्सर देर से घर लौटता तो तुम फोन पर किसी न किसी से बातों में व्यस्त मिलती और मैं चिढ़ जाता था। मेरा मन करता जितनी देर मैं घर में रहूँ तुम मेरे आसपास रहो। मैं तुम्हें किसी के साथ बाँट नहीं पाता था, न तुम्हारी सहेलियों से ,न ही माता-पिता या किसी रिश्तेदार से। इसी बात को लेकर कभी कभी हमारी कहा सुनी भी हो जाती पर अक्सर तुम कुछ न कहती और चुपचाप मेरी सेवा में जुट जातीं।

    तुम्हारी माँ कई दिनों से बीमार थी, यह मैं जानता था। मैं ऑफिस से जब लौट कर आया तो माँ ने बताया तुम्हारा छोटा भाई हरीश बहुत रो रहा

था, तुम्हारी मां की तबियत काफी खराब थी इसलिए तुम मुझे बिना बताए माँ की इजाजत लेकर मायके चली गई।

      मन में तुम्हारे प्रति बहुत गुस्सा था कि तुम बिना मुझे बताए अपनी मां के घर चली गईं। तुम्हारे बिना घर बहुत सूना सा लग रहा था। रोज मेरे आने से पहले ही बदलने के लिए मेरे कपड़े तैयार रखती थीं, आज खुद अलमारी खोले खड़ा सोच रहा था क्या पहनूँ।

          कपड़ों के नीचे से एक लाल डायरी झांक रही थी। उत्सुकतावश उसे खोल कर देखा ,वह तुम्हारी डायरी थी। जल्दी से कपड़े बदले और आराम से लेट कर पढ़ने लगा। शायद तुम उसे मेरी अनुपस्थिति में लिखा करती थीं।



        शुरू के काफी पेज हमारी शादी के बाद के खूबसूरत दिनों के थे। उसके बाद सिलसिला शुरू हुआ मौन संघर्ष का। मैं एक साँस में तुम्हारी डायरी पढ़ता चला जा रहा था।कई जगह तुमने लिखा था ‘मैं जीना चाहती हूँ मगर इतनी बंदिशों में मेरा दम घुटता है’। मैं तो सोच रहा था मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ ,तुम्हारी शिकायत वाजिब तो नहीं लगती । आगे लिखा था ‘मुझे हर बात के लिए उनसे पूछना पड़ता है ,हर साँस के बाद दूसरी साँस की इजाजत लेनी पड़ती है। खाना उनकी पसन्द का, कपड़ा उनकी पसन्द का, किसका घर में आना उन्हें पसन्द है ,किसका नहीं। हर फैसला उनके हाथ में है। मैं क्या मिट्टी की गुड़िया हूँ जिसे सजा-सँवार कर वह अपना दिल बहलाते हैं। मैं भी कुछ क्षण अपने हिसाब से जीना चाहती हूँ।’

         मैं डायरी बन्द कर आंखें मींच कर सोचने लगा वाकई यह सब तुमने गलत तो नहीं लिखा। तुम शादी के कुछ समय बाद तक कितनी खिली -खिली रहती थीं। अब कितनी मुरझा गई हो। मैं असली वजह से अनजान रहा और सलीका भूल जाने का ताना भी तुम्हें देता रहा। मैं कितना स्वार्थी सा हो गया था मेरा रवैया तुम्हारे प्रति ठीक नहीं था। मैं तुम पर पूरा स्वामित्व चाहता था। माँ इस बीच दो बार खाने के लिए पूछ गईं मगर मैंने उन्हें कहा ऑफिस में आज पार्टी थी ,इसलिए खांना नहीं खाऊँगा।

       इस समय तुम्हारी कमी बेतरह खल रही थी। रात के दस बज रहे थे।

किसी तरह जल्दी से बिस्तर से उठ कपड़े बदले और मां से तुम्हारे घर जाने का कह कर निकल पड़ा । तुम्हारी माँ का घर अब भी ज्यादा दूर कहाँ था।

     दरवाजे पर मुझे देख तुम घबरा गई। मैंने अंधेरे में तुम्हारा हाथ पकड़ा पर तुम छिटक कर दूर चली गईं। शायद तुम यही सोच रही थी कि मुझे बिना बताए यहाँ आ जाने के कारण मैं बहुत नाराज हूँ ,पर मैं तो उस अंधेरे में तुम्हें प्यार करना चाहता था। तुम मुझे अपनी माँ के पास ले गई। कुछ देर मैं उनके पास बैठ हालचाल पूछता रहा इसके बाद वह सो गई।

        तुमने मुझे घर जाने के लिए कहा तो मैंने कहा आज ‘तुम्हारी माँ की तबियत ठीक नहीं मैं यहीं रुकूँगा’ और मैंने फोन करके अपनी मां से आज न लौटने की बात बता दी।

       तुम दूध लेकर आईं और मैने तुम्हें हाथ पकड़ कर अपने पास बैठा लिया। आज मेरे हाथ से यह दूध तुम पिओगी। मेरी जबरदस्ती पर तुमने दो घूँट भरे और मैंने गिलास मेज पर रख तुम्हें बाँहों में भर लिया और चुम्बनों की बौछार करते हुए कहा ‘मुझे माफ़ कर दो। मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता। आज के बाद तुम्हें मुझसे कोई शिकायत नहीं होगी’। आओ लौट चलें वहीं, जहाँ से सफर शुरू किया था । हम दोनों के आँसू एक दूसरे का चेहरा भिगो रहे थे। खिड़की से झाँकते पूनम के चाँद को बादलों ने अपने आगोश में ले लिया।

सरिता गर्ग ‘सरि’

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