गुलाबी-बसंत –     मुकुन्द लाल

  उसकी आंँखों के आगे एक चमकदार गुलाबी कोहरा छा गया था, जो धीरे-धीरे संगीतमय ध्वनि के साथ छटने लगा। वृक्षों पर हरी-हरी पत्तियाँ मंद वायु के झोंकों के सहारे गले मिल रही थी, डालियों पर बैठी कोयल कूक रही थी, ‘ बसंतआ गया’, फूलों पर गुंजार करते भौरें गुन-गुना रहे थे, ‘ बसंत आ गया’, गोधूलि की बेला में घर लौटते गोरू के गले की खनकती घुंघरू कह रही थी, ‘बसंत आ गया’।

  मादक, मनमोहक और रुपहली फिजाओं ने उसके दिल में मधुर एवं गुदगुदी से परिपूर्ण गुलाबी सरिता बहा दी थी। सौंदर्य और नशीली महक ने उसको मदहोश कर दिया था। उसकी आंँखों की हर्षित पलकें पल-पल गिरती। उसके रंगीले होठों पर मुस्कान थिरक जाती क्षण-क्षण। एक टीस हुई दिल में जो कागज पर शोला बनकर छा गई।

       मेरे प्रीतम,

              सर आंँखों पर, 

       कुशल से ही कुशल है । तुम्हारी आश में आंँखें बिछाये रहती हूंँ। मैंने कई बसंतों को देखा, लेकिन वे पतझड़ थे या गुलाबी बसंत कह नहीं सकती। इस बार आ जाओ प्रिये।… एक बार कम से कम गुलाबी बसंत के गुलिस्तां में। 

  तुमने मोर्चे पर प्रस्थान करते समय वचन दिया था कि आऊंगा, फाग की बाग सजाऊंगा… इतने निष्ठुर निकले… इतनी जल्दी भूल गये। मेरी इस नितांत असहनीय व दयनीय वेदना की जटिल परिस्थिति को जानकर भी अनजान बनते हो। ऐसा पाषाण बनने का कारण क्या है? अब कैसे… किन शब्दों में दिल की वेदना व्यक्त करूंँ?… तुम्हीं बताओ मैं क्या करूंँ!… 

                                                  तुम्हारी ही

                                                      गुलाबी 

   सपनीले, सुनहरे व सप्तरंगी अतीत का उन्मुक्त झोंका उसे उड़ा ले चला था यादों की मायानगरी में। 

  चारों ओर बहार छाई हुई थी। फूलों से लदी झाड़ियों ने अपनी खुशबू से माहौल को बेहद खुशनुमा बना दिया था। गुलाबी रंग से रंग गया था वातावरण। पेड़-पौधे, नदी-नाले, सड़क-गली, चलते-फिरते लोग, वहाँ का चप्पा-चप्पा गुलाबी रंग से दमक रहा था। लगता था दुनिया ही गुलाबी रंग में रंग गई है। 

  उसने सोचा ‘क्या मैं भी गुलाबी रंग में रंग गई हूंँ।’ उसने दर्पण उठाया। चेहरा देखा अपना, शर्म से सुर्ख हो गया था। बोझिल पलकें गिर गई। झटके से दर्पण उलट कर रख दिया, दुपट्टा मुंँह में रखकर खिलखिलाने लगी, फिर सहम गई, पिंजङे का पंछी अचानक चहक उठा, 


“बसंत आ गया!… बसंत आ गया!…” 

  बछड़ा डकारते हुए चिल्लाया, “बसंत आ गया! बसंत आ गया!” 

  किसी ने किवाड़ खटखटाया तुरंत उसने दरवाजा खोला, सामने वे फौजी ड्रेस में खड़े थे, नजरें मिली, नजरें गिरी, चेहरे पर लाली छा गई, लगा खुशी से नाच उठे, लेकिन पैरों को झूमने की इजाजत नहीं मिली, फिर भी तरंगित हो ही गई। 

                 ” ऊंह!… यह क्या कर रहे हैं, छोड़िये ना…” 

  “गुलाल ही तो लगा रहा हूँ… होली है न” 

  ” तुम बड़े वो हो… तुम्हें गोली चलाने से फुर्सत मिले तब तो” शरारत से उसने कहा। 

“नहीं जानती… मोर्चे पर गोली नहीं चले तो होली का हर्ष, दशहरे की शान और दीवाली की शोभा खतरे में पड़ जाएगी। “

 ” एक बात क्या कह दिया, बहस शुरू होगई… रह ही क्या गया है, मोर्चे पर गोली दागते हो और सालों बाद यहांँ आने पर दिल में गोली दागते हो।” 

  “नहीं प्रिये!… ऐसी बातें नहीं है, मैं तो तुम्हें जान से भी ज्यादा चाहता हूँ “कहते-कहते उसके साथ होली खेलने के लिए आगे बढता है। 

  वह खिलखिला कर हंँस पडती है, उसकी पकड़ से छिटककर कहती है,” पहले अपना रंगीन चेहरा साफ करो। “

 ” एक रंग में रंग जाएंगे आज” कहते हुए दौड़ पड़ा उसकी तरफ।” 

  वह कमरे में भागी। खिलखिलाहटें गूंजने लगी। 

  कौए की कांव-कांव की आवाज से गुलाबी की नींद उचट गई। रोशनदान से सुबह का प्रकाश आ रहा था, उसकी आत्मा कांपकर कह उठी, 

‘मैं सपना देख रही थी’। 

  उसका दिल कचोटने लगा। दीवाल पर टंगे हुए दर्पण में उसने देखा, लालिमा रहित सूनी मांग चीत्कार कर उठी, उसका दिल मर्माहत हो गया। अजीब सूनापन महसूस करने लगा। बगल में उसका चार-पाँच वर्ष का उसका पुत्र बिछावन पर सोया था। 

  उसकी नजर सामने फौजी ड्रेस में उसके पति बसंत की तस्वीर पर गई। दिमाग में आंँधी चलने लगी

  सारा गांव होली के उमंग में झूम रहा था। क्या बूढ़े, क्या जवान, सभी बच्चे बन गये थे। वायुमंडल में अबीर मिश्रित गुलाल की झीनी तह से वर्तित किरणों में दमकता पार्श्व अजीब ही रौनक बिखेर रहा था। न उस दिन कोई अमीर मालूम पड़ता था, न गरीब। सबका स्तर समान था और समानता के समतल पर आलोकित रंगीन लिपे-पुते चेहरे लिये युवतियां एक घर से दूसरे घर में होली खेलने जा रही थी। चारों ओर हंँसी का फव्वारा छूट रहा था। गलियों से ढोल मंजीरा बजाते, गाते, कूदते लोग जा रहे थे। एक झुंड ढोल की थाप पर गा रहा था, “लडका है गोपाल, लड़का है गोपाल, 


      खेलत गेंद गिरे जमुना में, 

    कूद पड़े यमुना में, लड़का है गोपाल।” 

हो, होली हो… हो… हो… हो… लड़का है.. हो.. हो।…

  कहीं से धुन सुनाई पड़ रही थी, 

  “गंगा तू काहे मिल गई यमुना में  

   लाये भागीरथ मनाय

    गंगा, तू… हो… हो… हो… होली हो… 

  वह अपने पुत्र को गोद में लिये खिड़की पर खड़ी इन दृश्यों को देख रही थी। आंँखों में सूनापन छाया हुआ था, क्योंकि उसका बसंत नहीं आया था। होली के दूसरे दिन बसंत का पत्र आया था। 

  प्रिये, 

 तुम्हारा प्रेम-पत्र मिला, पढकर मन झूम उठा और हर्ष के तरंगों के बीच तुम्हारी तस्वीर मेरे जेहन में नाचने लगी। तुम्हारा आलोकित चेहरा और बिताये गये तुम्हारे संग खूबसूरत पलों का एहसास मुझे व्याकुल कर देता है। मेरा दिल तुम्हारे पास आने के लिए तड़प उठता है। काश!… इस बार होली में आ पाता, लेकिन क्या करूँ!… एक ओर प्रेम की पुकार है, दूसरी ओर सीमा की, एक ओर रंग भरी पिचकारी है, दूसरी ओर गोली से भरी बन्दूक। 

  स्वयं फैसला करो प्रिये… घर के मोर्चे की ओर जाऊँ या सीमा के मोर्चे की ओर। पहले प्रेम है या कर्तव्य। 

  विशेष अगले पत्र में। मैं आशा करता हूंँ कि मेरा पुत्र भी देश का सच्चा सिपाही बनेगा। मेरा कमान कट चुका है। मैं दुश्मनों से मुकाबला करने जा रहा हूँ।… लौटकर आ गया तो फिर मिलूंँगा। 

                                               अलविदा 

                                          तुम्हारा ही बसंत

और एक दिन ऐसा भी आया, जब मरणोपरांत वह परमवीर चक्र लेने दिल्ली गई थी। जहाँ देश पर शहीद होने वाले वीरों को सेना की वीरता से विभूषित पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 

  मांँ!… मांँ!… उसके पुत्र ने नींद से जागते हुए कहा। 

  उसके विचार का तार यकायक टूट गया। 

  ढोल-मंजीरे की आवाज सुनकर उसके पुत्र ने कहा, ” मांँ आज होली है।” 

  “हांँ बेटा आज होली है।” 

    उसकी आंँखों से दो बूंँदें निकलकर लुढ़क पड़ी उसके गालों पर। 

     स्वरचित 

    मुकुन्द लाल 

    हजारीबाग (झारखंड) 

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