‘ अन्याय ‘ –  विभा गुप्ता

  नवीनचन्द्र जी ने अपने दोस्तों को चाय पर बुलाया था।पत्नी के गुज़र जाने के बाद उनकी रिटायर्ड लाइफ़ ऐसे ही गुज़र रही थी।कभी वे मित्रों के घर चले जाते तो कभी उन्हें ही अपने घर पर बुला लेते।बेटे-बहू उनका बहुत ख्याल भी रखते थें।इसीलिए जब उन्होंने मित्रों के आने की खबर अपनी बहू अलका को दी तो उसने झट से पकौड़ियाँ तल दी और साथ में चाय भी परोस दी।

         चाय की चुस्कियाँ लेते हुए सभी आपस में ऑफिस के दिनों को याद करते जा रहें हैं।तभी नवीनचन्द्र का बेटा अपनी पत्नी और बेटी के साथ बाहर जाने लगा तो उन्होंने बेटे से कहा, ” आशीष बेटे, लौटने में देरी न करना।अकेले बड़ी घबराहट होती है।”

     ” घबराहट…और आपको! ” आशीष ने अपने पिता को घूरकर देखा और बाहर निकल गया।आशीष का व्यवहार देखकर सभी मित्र अचंभित थें।एक ने कहा,” आशीष को ऐसे नहीं कहना चाहिए था।” दूसरे ने कहा, ” पिता के साथ ऐसा व्यवहार करना तो अन्याय करना है।”

‘अन्याय..’ नवीनचन्द्र जी सोचने लगे, पैसा कमाने का उन्हें एक नशा-सा था।उनके पिता जब कहते कि कभी मेरे पास भी बैठा करो, तब उनका जवाब होता, ” आपके पास बैठा तो मेरा लाखों का नुकसान हो जाएगा।” पत्नी देर रात तक जागकर उनका इंतज़ार किया करती और वे कभी होटल तो कभी पार्टियों में व्यस्त रहते।आशीष के जन्म पर तो वे सिंगापुर में थें।न तो उन्होंने कभी आशीष का पीटीएम अटेंड किया और न ऐन्युअल फंक्शन।बड़े होने पर तो आशीष ने उनसे बात करना ही छोड़ दिया था।उनके पिता हमेशा कहते,नवीन ,घर भी देखा कर, पैसा तो बाद में कमा सकते हो,बच्चे को समय नहीं दिया तो…।उन्होंने पिता की एक न सुनी।अपने परिवार को समय न देकर उन्होंने जो उनपर अन्याय किया था, वही तो आज..। ” नवीन जी, क्या सोचने लगे? ये आजकल की पीढ़ी भी ना, समय का महत्व समझती ही नहीं।” मित्र   की बात का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।

                          — विभा गुप्ता

 

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