नज़रिया – पुष्पा ठाकुर

वो एक दस वर्ष का बच्चा है ,जिसकी मां उससे घर के छोटे बड़े काम ले रही है।ऐसा नहीं कि वो खुद बीमार हो।

   वो पूरी तरह स्वस्थ है ,संपन्न है फिर भी अक्सर उसका बच्चा कभी आंगन में झाड़ू लगाता दिखाई दे जाता ,कभी पौधों को पानी देता,कभी बाजार से सामान लाता,कभी कभी छोटी बहन को भी तैयार करता …..

   कोई कहता ‘कितनी निर्दयी है,इतने छोटे से बच्चे से काम लेती है।’

   कोई कहता ‘कितनी आलसी है,बच्चा काम करता है और मां आराम करती है।’

   एक मां की नजर से देखा जाए तो नि:संदेह वो अपने बच्चे को जीवन में आने वाले उतार चढ़ाव का सहज पाठ पढ़ा रही है।

   साफ सफाई से रहने के लिए स्वयं का सफाई करना,बाजार से छोटे मोटे सामान लेने के बहाने पैसों का सही हिसाब रखना, प्रकृति की रक्षा करना,अपने साथ साथ अपनों की परवाह करना …..और भी बहुत कुछ,जो हम एक ही दिन में या सीधे बड़े होने के बाद इतनी सरलता से नहीं सीख पाते।

       इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि लोगों का आपके लिए नजरिया कैसा है,न ही दूसरों के नजरिए से खुद का आंकलन करना तब जरा भी उपयोगी होगा,फर्क इससे पड़ता है कि हम खुद के लिए कैसा नजरिया रखते हैं।

       यदि हमें लगता है कि हमारे कार्य हमें परिपक्वता की ओर ले जा रहे हैं तो ये हमारी जरूरत और समझ है।एक तरह की सुलझी हुई सोच है ,जो दूसरों के नजरिए से उलझा दिखाई देता है।

       नज़रिया चाहे खुद के लिए हो या दूसरों के लिए , हमेशा उसका सकारात्मक पहलू ही देखा जाना चाहिए।बेशक वो बालक बड़ा होकर स्वावलंबी होगा और सफल जीवन में पदार्पण करेगा ।जिसने इस नजरिए से दृश्य को देखा और अपने जीवन में उतारा,वो भी लाभान्वित हुए बगैर नहीं रहेगा लेकिन एक ग़लत नजरिया समय और ऊर्जा की बर्बादी के साथ,इस सबक से भी वंचित ही रहेगा कि जिंदगी जीने से कहीं ज्यादा जरूरी एक बेहतर जिंदगी बनाना है।

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