अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 9 ) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

विनया जो कि कमरे से निकल कर सम्पदा के पीछे–पीछे बैठक में आकर बैठक की साफ सफाई में लग गई थी लेकिन उसके कान अंजना और संपदा की बातों पर ही लगे थे और चोर नज़रों से रसोई में खड़ी अंजना और संपदा के हाव–भाव के साथ साथ क्रियाकलाप भी देखना चाह रही थी। यूॅं तो कोई भी संभ्रांत इंसान इसे गलत ही ठहराएगा लेकिन विनया जिस दौर से गुजर रही थी और जिस तरह इस घर को एक माला में पिरोना चाहती थी, उसके लिए उसका यह कार्य जायज ठहराया जा सकता है।

संपदा के मम्मी कहने पर अंजना त्वरित गति से पलटती है, उसके नेत्र बता रहे थे कि संपदा का उसे धीरे से मम्मी कहना अंदर तक भिगो गया था। उसके कान इस बोली के लिए तरस ही गए थे। जो जुबान कभी मम्मी मम्मी कहते नहीं थकते थे। बेवजह भी मम्मी के शोर से घर गूंजता रहता था, अचानक ही वो शोर थम गया था। कब अंजना के घर में सेंध लग गया, अंजना समझ ही नहीं सकी। जब तक उसने समझा तब तक तो मनीष और संपदा की भावनाएं किसी और के ऑंचल की धरोहर हो गए। उसे इस बात की नाराजगी कभी नहीं हुई कि दोनों अपनी बुआ के करीब हो गए। उसे इस बात का गम हर पल सताता रहता है कि उसके विश्वास के तले उससे सब कुछ छीना गया और वो देखती रह गई। उसके अंदर जो ज्वार भाटा उठता रहता है उसे वो अपनी बेटी से भी बांट नहीं सकती है। घुटती रहती है, दिन–रात अपनी गलतियों का आकलन करती रहती है। 

और आज आज संपदा फिर से उसी तरह “मम्मी” कहना उसके लिए किसी नेमत से कम नहीं था। उसकी तो इच्छा हुई बस इस आवाज को सुनती रहे और बेटी के चेहरे को दोनों हाथों में थाम निहारती रहे। लेकिन पैरों में असहजता का जंजीर जकड़ा हुआ था, जिसे वो चाह कर भी तोड़ नहीं सकी। बस संपदा की ओर देखती ऑंखों ही ऑंखों में “क्या” का सवाल पूछ बैठी।

“मम्मी, वो आज मेरा कॉलेज नहीं है तो मैं भाभी के साथ उनके मायके हो आऊॅं।” संपदा बोतल का ढक्कन खोलती उस पर ही निगाहें टिकाए पूछती है।

अंजना रसोई के बाहर बैठक में अंजना पर नजर डालती हुई चाहती है कि संपदा को मना कर दे। लेकिन आज एक युग के बाद संपदा को अपने करीब महसूस कर बुझे मन से उसने हामी भरी थी। विनया भी उसकी पसंद नहीं थी, पसंद क्या किसी से उससे ना ही कुछ था और ना ही कुछ बताया था। एक दो बार उसने जानने की उत्सुकता दिखाई तो ननदों ने नाच न जाने ऑंगन टेढ़ा कर ऑंखें ही मटकाई थी। जब सब कुछ हमें ही संभालना, देखना है भाभी तो आप ज्यादा जान कर भी क्या करेंगी। जब ननदों ने ऐसा कहा था तो एक आस भरी नजर पति की ओर उठी थी शायद बच्चों की शादी के निर्णय में ही उसे शामिल कर लें लेकिन उन्होंने भी बहनों को ही मौन अभिव्यक्ति दी थी। बेटे ने भी उसे इस खुशी में शामिल होने देने की कोई चाहत नहीं दिखाई थी तब उसका मन टूट गया था और उस बिन देखी लड़की को भी उसने अपनी ननदों की तरह ही मानकर दिल में जगह देने से इंकार कर दिया और अभी भी संपदा को स्वीकृति देते हुए आशंका की नजर से विनया को देख रही थी और विनया नीची नजर से माॅं–बेटी के हृदय में उमड़ते घुमड़ते ख्यालों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी।

विनया दोनों की भावनाऍं समझ रही थी, उसकी इच्छा हो रही थी रसोई में जाए और माॅं–बेटी को एक दुसरे के बिल्कुल आमने–सामने खड़ा कर दे और कहे जो भी गिला शिकवा है, अभी अवसर मिला है तो किसी की नजर पड़ने से पहले ही खत्म कर लीजिए। लेकिन जब अहसास जीवित हो लेकिन धागे का ताना–बाना उलझा हुआ हो तो उसका सिरा खोजने में इंसान जाने कितना वक्त बर्बाद कर देता है। उसी तरह जिंदगी का ताना–बाना उलझ गया हो तो उसे सुलझाने में सदियों लग जाते हैं, आखिर लब इस कदर सिल जाते हैं कि शब्दों को भी बाहर आने से पहले रास्ता तलाशना होता है और जब तक वह रास्ता पाता है, समय रेत की तरह फिसल कर दूर खड़ा मुस्कुराता कहता है, “तुम्हारे सामने प्रत्यक्ष हूॅं, तुमने कद्र नहीं की। अब मैं चला, मेरे आने का फिर से इंतजार करना।” 

खैर विनया अभी इसी बात से खुश थी कि संपदा के साथ वो कुछ पल रह सकेगी और उसके अतीत के पलों को जानने की कोशिश करेगी। हो सकता हैं उन पलों में ही समस्या का पूरा ना सही थोड़ा सा ही समाधान मिल जाए। रेत के कणों को थोड़ा थोड़ा ही सही समेटने की कोशिश जरूर करेगी। विनया हौसलों से भरी थी और अपने पंख फैला कर इस घर को खुशियों, किलकारियों से ढंक लेना चाहती थी।

“चलिए भाभी।” दुपट्टा ठीक करती हुई कमरे से निकलती संपदा कहती है।

विनया पहले से ही कैब बुक कर तैयार होकर संपदा की प्रतीक्षा कर रही थी। 

“माॅं, हमलोग शाम तक आ जाएंगी।” बालकनी में गमले के पौधों को पानी देती अंजना के पास जाकर विनया कहती है और अंजना अपना विनया के प्रति अपना रुख स्पष्ट करती हुई मुॅंह फेर लेती है। विनया अंजना की इस प्रतिक्रिया पर केवल मुस्कुरा कर संपदा की ओर बढ़ गई।

“मैं कह रही थी ना दीदी कि दोनों सास–बहू की सवारी कभी भी कहीं भी निकल जाती है। आज दोनों सिनेमा डेट के मूड में थी। सही समय से बात हो गई मम्मी से, अब दोनों घर पर रहेंगी।” कैब में बैठती विनया संपदा से कहती है।

“डेट, सास–बहू…मैं समझी नहीं भाभी। डेट तो सामान्यतया”….चेहरे पर असमंजस के भाव के साथ अपनी बात अधूरी छोड़ती हुई संपदा पूछती है।

“मेरी भोली ननद रानी, हाॅं कहने वाले तो यही कहते हैं। लेकिन डेट मतलब क्या तारीख, एक विशेष तारीख जिसमें हम अपने पसंद के इंसान के साथ ही समय व्यतीत करें। कुछ नई बात उनकी जानें, कुछ अपने दिल की बताएं और एक लड़का या लड़की के जीवन में एक दूसरे के अलावा भी तो पसंदीदा लोग होते हैं। कई रिश्ते होते हैं, जिन्हें जानना समझना होता है तो ये जो डेट है ना, बहुत सहायक होती है और जरूरी नहीं है कि इसके लिए फाइव स्टार होटल में ही खाना खाया जाए या मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखा जाए। सड़कों को खोजते हुए पानीपूरी का साथ, हाथ में आइसक्रीम कोन से भी काम चल जाता है।” एक ऑंख दबाती हुई विनया विस्तार डेट का मंतव्य अपने अनुसार समझा रही थी।

आज विनया सोच कर ही निकली थी असल में वो जो है, संपदा के सामने वैसी ही रहेगी। बिंदास, बेखौफ, बेपरवाह वाली खुशदिल विनया।

“जिस तरह माॅं–बेटी के लिए एक दूसरे को समझना बहुत ज्यादा जरूरी होता है, उसी तरह एक घर की खुशमिजाजी और तरक्की के लिए सास संग बहू की दोस्ती भी बहुत आवश्यक है तो डेट पर जाना तो बनता है ना ननद रानी।” विनया माॅं–बेटी शब्द पर जोर देती हुई कहती है क्योंकि विनया जानती थी कि अगर ये रिश्ता मुखर हो गया तो घर को मुखर होते समय नहीं लगेगा। इसलिए वो दोनों के बीच येन केन प्रकारेण सेतु निर्माण का कार्य करने के प्रति उद्दत थी।

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आरती झा आद्या

दिल्ली

 

 

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