एनुअल फ़ंक्शन – संजय मृदुल

एक घण्टे के इंतज़ार के बाद जब खुशी बाहर आई तो निशा की आंख भर आई। ख़ुशी का उतरा हुआ चेहरा, थका हुआ शरीर बयान कर रहे थे उसकी हालत। निशा को इतना गुस्सा आया कि लगा जाकर उसकी टीचर को मन भर के सुनाए। फिर किसी तरह ज़ब्त किया उसने गुस्सा अपना और खुशी का हाथ पकड़ बाहर आ गयी। अपूर्व गाड़ी के पास उनका इंतजार कर रहे थे। उन्हें देखते ही ख़ुशी फूट पड़ी।

“कितने गंदे हैं पापा स्कूल वाले, सुबह से बुलाया है प्रैक्टिस के लिए और रात हो गयी बस एक पैकेट में एक समोसा, चिप्स और एक मिठाई दी। इतनी जोर से भूख लग रही जल्दी से कुछ खिलाओ ना।”

निशा ने जल्दी से घर से लाया टिफिन खोला, आलू का पराठा देखकर खुशी का चेहरा खिल उठा। पराठे का कौर उठाते हुए ख़ुशी ने कहा -“मम्मा अब न कभी एनुअल फ़ंक्शन में भाग नहीं लूंगी मैं।”

छह महीने पहले ही तो इस शहर में आये थे वे। पहली बार ट्रांसफ़र बड़े शहर में हुआ था, यहां आए तो लगा खुशी की पढ़ाई के लिए बहुत अच्छा  रहेगा ये शहर, ढेरों स्कूलों में से ये बड़ा नामी स्कूल छांट कर यहां दाखिला कराया जिसमें भी कितने पापड़ बेलने पड़े। पहले दो हजार का फार्म खरीदा, फिर दाखिले के लिए परीक्षा दी, खुशी होशियार है तो उसके नम्बर भी अच्छे आये। उसके बाद मां बाप का इंटरव्यू हुआ। डरते सहमते दोनों ने जैसे तैसे उसे भी पार किया। स्कूल का बड़ा कैम्पस, ढेरों बसें, खेल का मैदान सब देखकर दोनों बड़ा प्रभवित हुए। उन्हें लगा चलो अब खुशी की चिंता नहीं रहेगी। अच्छे स्कूल में पढ़ाई होगी तो भविष्य भी अच्छा बनेगा।

बड़ा स्कूल तो वहां के चोचले भी बड़े। मध्यम वर्ग की आमदनी का आधा हिस्सा तो बच्चों की पढ़ाई के पीछे लग जाता है। अपूर्व की इक्छा थी कि खुशी को केंद्रीय विद्यालय में डाल दें, वहां शुरू से पढ़ते आई है वो। लेकिन निशा का मत था कि प्राइवेट स्कूल में जाने से ज्यादा खुलेगी, ज्यादा सीखने मिलेगा उसे। 



ये स्कूल भी ऐसा जो प्रदेश का जाना माना, हर शहर में शाखा है इसकी।

निशा बहुत खुश थी कि यहां दाखिला मिल गया था। जिस कॉलोनी में उन्हें घर मिला था वहां के अधिकांश बच्चे इसी स्कूल में थे। निशा को लगा खुशी को किसी तरह कमतरी का अहसास नहीं होगा बच्चों के बीच।

स्कूल में आये दिन कुछ न कुछ कार्यक्रम, प्रोजेक्ट होते रहते। निशा खुशी का सामान लेने ऑटो से कभी इस दुकान कभी उस बाजार भटकती रहती। स्कूल से आने के बाद खुशी का टयूशन रहता। दिन कब आता कब जाता उसे पता ही नहीं चलता। दूसरों की देखा देखी उसने खुशी को डांस क्लास में भी डाल दिया था।

जैसा देश वैसा भेस वाली कहावत चरितार्थ हो रही थी। कस्बे से आई निशा और अपूर्व के लिए ये नया ही अनुभव था। यहां दफ्तर के मुख्यालय में भी सबका रहन सहन अलग ही था। पुराने शहर में तो कोई देखता भी नहीं था आपने क्या पहना है, गाड़ी कौन सी है आपके पास। छोटे शहर में सुकून वाली जिंदगी का अपना सुख होता है।

दो महीने पहले स्कूल से नोटिस आया कि वार्षिकोत्सव में जिन बच्चों को भाग लेना है वो फार्म भर कर भेज दें साथ में पंद्रह सौ रुपये जमा करें।



खुशी बहुत उत्साहित थी, उसकी इक्छा देखकर दोनों ने फार्म भर दिया और पैसे भी जमा कर दिए। स्कूल के बाद अब रोज दो घण्टे और रुकने लगी स्कूल में। रोज का काम बढ़ गया निशा का, रोज ऑटो में जाना और खुशी को लेकर आना। आते ही जल्दी जल्दी खाना खाकर फिर ट्यूशन उसके बाद डांस क्लास। छोटी सी बच्ची सारे दिन यूँ मेहनत कर शाम तक थक कर चूर हो चुकी होती।

राम राम कर दिन बीते, वार्षिकोत्सव का दिन आया। शाम चार बजे दोनों स्कूल पहुंच गए, ख़ुशी तो सुबह से आई हुई थी। छः बजते तक हजारों की संख्या में पालक अभिभावक एकत्र हो चुके थे। स्वागत,भाषण, औपचारिकता के बाद सांस्कृतिक कार्यक्रम शुरू हुए।

बड़े से मंच में बच्चे झुंड के झुंड आते बमुश्किल एक मिनट डांस कर निकल जाते। दर्शक दीर्घा से तालियों की गूंज लगातार सुनाई दे रही थी। दो घण्टे के इंतजार के बाद खुशी की क्लास का नम्बर आया। दोनों ध्यान लगाकर देखने लगे, लगभग बीस बच्चे एक साथ मंच पर आए डांस शुरू हुआ, सारी लड़कियां एक सी दिखाई दे रही थीं। जब तक दोनों खुशी को ढूंढ पाते तब तक उनका डांस खत्म हो चुका था और दूसरा ग्रुप मंच पर आ गया था। सारी जिज्ञासा, खुशी और इंतज़ार यूँ फुर्र हुआ कि।

ना ही फोटो खींच पाए खुशी की ना ही डांस देख पाए अच्छे से। बमुश्किल एक मिनट मंच पर रहा उनका भी ग्रुप।

अपूर्व ने गाड़ी स्टार्ट की, पराठा खाकर खुशी के चेहरे पर संतुष्टि बिखर गई थी। डांस की ड्रेस में नन्ही सी खुशी खूबसूरत दिखाई दे रही थी। गाड़ियों की भीड़ में से बचते बचाते निकलते हुए अपूर्व के दिल में आ रहा था कि अगले साल नहीं भाग लेने देना है खुशी को चाहे जो हो।

©संजय मृदुल

रायपुर

 

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