अलका – आरती झा आद्या   : Short Moral stories in hindi

Moral stories in hindi : अलका एकदम मस्त सी तितली सी उड़ती रहती थी। बचपन से ही वो ऐसी ही थी। खिलंदड़ स्वभाव की एकदम अलमस्त, फुल ऑफ लाइफ के नाम से दोस्तों के बीच जानी जाती थी। तीन भाई बहनों में सबसे बड़ी। अब जब उसका स्नातक पूरा हो गया था तो घर वालों ने उसकी शादी के लिए लड़का देखना शुरू कर दिया। यूं तो वो शादी के नाम से ही भागती थी। 

समाज में आसपास उसने अधिकांशत: यही देखा की स्त्रियों की जिंदगी शादी के बाद एक ही ढ़र्रे पर चलती जाती है। मानो साॅंस भी अपने मरने के दिन के इंतजार में ले रही हो, एक एक दिन बस इसलिए काटती हैं कि जिस दिन यमराज आएं, चुपचाप चली जाएं। इक्का दुक्का औरतों को छोड़ दें तो रसोई, बच्चों और पति की डाॅंट और प्रवचन में ही जीवन खपते देख रही थी सबका।

और अलका जीवन को पूरी तरह जीना चाहती थी। वो रसोई, बच्चों और पति की डाॅंट में ही जीवन काटना नहीं चाहती थी। वो चाहती थी सारी जिम्मेदारियों के साथ साथ जीवन को भी समय देना चाहिए। अंत समय के लिए कुछ अच्छी यादें होनी ही चाहिए। मध्यम वर्ग की अलका के लिए मध्यम वर्ग का ही बैंक में क्लर्क के पद पर कार्यरत प्रसून सभी को पसंद आ गया। 

प्रसून देखने सुनने में अच्छा था। एक नजर में देखने पर व्यक्तित्व का भी धनी था। पढ़ा लिखा था। सबके अनुसार घर बार भी अच्छा था, चार भाइयों में सबसे छोटा प्रसून और अपने घर में सबसे बड़ी अलका की शादी हो गई।

गृहस्थी की जद्दोजहद में अलका को समझ आने लगा कि भले ही प्रसून नौकरी करता है, दूसरे शहर में रहता है लेकिन उसके व्यक्तित्व में कोई निखार नहीं आया था।

 उसकी सोच पर और उसके जीवन के क्रियाकलापों पर पुरातन सोच हावी थी। वो हमेशा शक में रहता था कि आज ना कल कुछ बुरा जरूर होगा इसीलिए वो पैसे हारी बीमारी के लिए जमा करके रख रहा है। छोटी छोटी चीजों के लिए भी वो अलका को पैसे नहीं देना चाहता था।

 यहाॅं तक कि घर खर्च के लिए पैसे देने से कतराता था। अलका ने नौकरी करना चाहा तो वो भी उसने नहीं करने दिया। किसी तरह लड़ झगड़ कर अलका ने उसे महीने का खर्च देने के लिए राजी किया था क्योंकि दो बच्चे हो चुके थे और अलका के साथ साथ उनकी भी अब छोटी छोटी जरूरतें होती थी। अब अलका को लगने लगा था वो भी बस रिश्ते को निभाते हुए अपने मरने के दिन की प्रतीक्षा में जी रही है। जीवन में कोई रोमांच कोई नयापन बचा ही नहीं था।

पति की डाॅंट से बचने के लिए उसने पति से का भर बोलना और साथ बैठना शुरू कर दिया था। यदा कदा उसने कोशिश भी कि जीवन को थोड़ा जिया जाए। बच्चों को भी नई चीज जानने समझने का अवसर मिलेगा। लेकिन हर बार प्रसून का शक्की स्वभाव आड़े आ जाता। वो दो टूक कह देता नहीं कल को कोई बीमारी हो गई तो पैसे उसके लिए हैं। समय अपनी गति से चलता रहा, अलका को बस इतनी तसल्ली थी कि बच्चे अपनी अपनी जिंदगी जी रहे थे और अपने पिता की तरह भविष्य को लेकर शक्की और झक्की नहीं थे। वो बचत करते थे तो जीवन को भी पूरी तरह जी रहे थे।

आज अंदर ही अंदर घुटती अलका ने अंतिम साॅंस ली थी और छोड़ गई थी प्रसून के लिए एक चिट्ठी।

मेरे मरने के बाद मुझे सजाया सॅंवारा नहीं जाए। जब जीते जी पसंद की हर चीज को हसरत भरी निगाह से देखते हुए मेरे ये अरमान अधूरे रह गए तो अब इसका कोई औचित्य नहीं बनता है।

बिना किसी को खबर किए, बिना रोए धोए मेरे शरीर के काम कर रहे अंग दान कर दिया जाए और उसके बाद मेरे शरीर को शवदाह गृह के हवाले कर दिया जाए।

मेरी आत्मा की शांति के लिए कोई भी संस्कार, भोज भात न किए जाए क्योंकि प्रसून जी आपके यहां जीते जी जिसकी इच्छा सुनना भी नहीं जानते, उसके मरने के बाद दिखावे की होड़ में फिजूल का खर्च खुले हाथों से करते हैं। खैर आपने रखा भी तो है ऐसे ही दुखों में खर्च करने के लिए। लेकिन मेरे जाने का कोई दुःख भी ना करे क्योंकि मैं जी ही रही थी मृत्यु के इंतजार में।

प्रसून जी अब आप भी अपने शक के दायरे से बाहर निकल आएं तो बेहतर है। अब आपने भी अनुभव कर लिया होगा की “होइहि सोइ जो राम रचि राखा” तो अब आप अपने शौक पूरे करें , अपनी इच्छाओं को जिएं। जाने से पहले कुछ अच्छी यादें जरूर सहेज लें। 

और अंतिम बात शक कोई भी हो भविष्य को लेकर ही क्यों न हो आपको, आपके वर्तमान को और आप पर निर्भर लोगों को घुन की तरह खा जाता है। इसलिए संभव हो तो मेरे शरीर के साथ ही अपने शक के इस पेड़ को उस शवदाह गृह में ही जला दें।

                                 अलका

चिट्ठी पढ़कर प्रसून की आँखें नीर बहाने लगी थी। अब ये नीर उसके शक के लिए था या अलका की अधूरी रह गई इच्छाओं के लिए ये तो प्रसून ही जाने लेकिन अलका ने आज पहली बार खुल कर अपनी इच्छा प्रकट कर सकी थी तो वो आज जरूर संतुष्ट होगी।

आरती झा आद्या

दिल्ली

#शक

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