अहमियत का प्रमाणपत्र नहीं – शुभ्रा बैनर्जी  : Moral stories in hindi

 बहू को घर की लक्ष्मी कहने भर से नहीं होता,मानना भी पड़ता है।प्रीति ने ससुराल के बारे में अपनी सहेलियों से अलग-अलग कहानियां सुनी थी।करुणा ने कहा था”ससुराल,बस एक जेल है।सारा दिन सास जेलर बनी सर पर मंडराती रहती है।”रक्षा ने अपना अनुभव बताते हुए कहा”अरे,दिन भर गधे के जैसे काम करते रहो,फिर भी कदर नहीं बहू की।जैसे ही मौका मिला,कान भरना शुरू कर देती है सास अपने बेटे के।तंग आ गई हूं मैं तो।”ऐसा नहीं कि प्रीति को डर नहीं लग रहा था,पर जाहिर नहीं किया उसने।सोचा इतना क्यों सोचना?

शादी के तुरंत बाद ही सास ने रसोई घर की जिम्मेदारी भी दे दी।उनकी बात कोई टालता नहीं था।ससुर जी भी बिना उनसे पूछे कुछ नहीं करते थे। प्रीति की मां अक्सर कहती”बड़ी चतुर हैं तेरी सास,बेटे की शादी करते ही बहू को बाई बना दिया।”प्रीति को ऐसा कभी नहीं लगा।घर की मालकिन हैं,मां हैं वो।एक महीने बाद जैसे ही बेटे ने अपनी तनख्वाह मां के हांथ में रखी, उन्होंने झट कहा”अब से अपनी पत्नी को दिया कर,अपनी तनख्वाह।उसका अधिकार है इस पर।मुझे तेरे पापा देते थे हर महीने।”प्रीति इस झंझट में नहीं पड़ना चाहती थी,उसने मना कर दिया।उस दिन उनकी आंखों में संतोष की जो चमक देखी प्रीति ने,वह अद्भुत थी।

अपनी अहमियत पर कभी सवाल नहीं किया प्रीति ने,बस अपनी जिम्मेदारियां ईमानदारी से निभाती रही।

दोनों बच्चे पैदा होने के बाद से ही उनके सानिध्य में रहने लगे।प्रीति नौकरी, घर-परिवार में उलझी रही।पति के साथ घूमने जाने के लिए वे ही कहतीं,और बच्चों को रख लेतीं अपने पास।प्रीति ने कभी अनाधिकृत रूप से अपेक्षा नहीं की,और उन्होंने कभी अधिकार छीने नहीं।

जिस इंसान के साथ भगवान ने जोड़ी बनाई,वह कभी अपने मुंह से तारीफ नहीं करता,पर मां अपनी बहू की तारीफ करना नहीं भूलती थीं। कभी-कभी तो खिसियाकर कहती प्रीति”अपने बेटे को भी सिखाया होता आपने, तारीफ करना।इतने सालों में कभी एक शब्द भी नहीं कहा उन्होंने।औरों को देखिए,बीवी के बखान में क्या-क्या करते हैं।आपके बेटे को ना मेरी कोई अहमियत ही नहीं है।”

उन्होंने हंसकर कहा”पुरुष है ना,अहं तो आड़े आएगा ही। तारीफ नहीं करते ये मर्द इस डर से कि कहीं बीवी भारी ना पड़ जाए।तुम खुद सोच कर देखो,जो आदमी एक मिनट तुम्हारे बिना नहीं रह सकता,वो तुम्हें कितना मानता होगा?”

“बस -बस मां,मेरे बिना इसलिए नहीं रह सकते क्योंकि उनकी गुलामी कौन करेगा?दस बार चाय कौन बनाएगा?”प्रीति ने गुस्से में कहा।तब तक शायद पतिदेव भी आ गए थे।पता नहीं सुन लिया था उन्होंने या नहीं।कुछ बोले नहीं।बच्चे भी प्रीति को चिढ़ाते”मम्मी ,पापा को घर में रखकर कहीं मत जाया करो।बीस बार पूछते हैं कि कब आएगी मम्मी?”

तीस साल गुजर गए इसी उहापोह में कि एक बहू,पत्नी और मां की क्या अहमियत है?हर औरत के पास शायद इन सवालों के अलग-अलग जवाब होंगें।पति के रहते हम पत्नियां भी तो नुस्ख ही निकालती रहतीं हैं”मेरी मौसेरी बहन के पति को देखो,कितने सारे गहने दिए हैं उसने उपहार में।अपने बहनोई को देखो,दो घर बनवा दिया है दीदी के नाम पर।एक मेरी किस्मत ही फूटी थी,जो ऐसा पति मिला।”

प्रीति भी ऐसा ही बोलती रही अपने पति को।पूरे घर में सिर्फ उन्हीं से शिकायत थी।बीमारी में अस्पताल में पड़े एक दिन उन्हें बेटे से बात करते हुए सुना”,बाबू,मां का ख्याल रखना।कार में ज्यादा लंबा सफर मत करवाना उनसे। छोटी-छोटी चीजों से खुश हो जाती है,कभी तरसाना मत उसे।मेरे जाने के बाद भी तेरी मां के लिए खाने-पहनने की व्यवस्था करके जाऊंगा।जब तक वो घर में रहेगी,हमारा घर चलता रहेगा।प्रेशर की दवाई समय पर दे दिया करना।

“प्रीति और नहीं सुन पाई।दरवाजे से ही बाहर निकल आई।जिस आदमी से हमेशा शिकायत ही करती आई कि कभी तारीफ नहीं करते,उसे खुद से ज्यादा मेरी चिंता है।अपने जाने के दुख से ज्यादा मेरे अकेले हो जाने का दुख है।दौड़कर मां के पास जाकर रोने लगी प्रीति,तो मां ने कहा”देख बहू ,ससुराल में पत्नी की अहमियत पति से ही होती है।पति मुंह से कुछ नहीं कहते,पर जान से भी ज्यादा प्यार और परवाह करते हैं।उनके जैसा देखभाल करने वाला और कोई नहीं।”,

प्रीति ने आज अपनी अहमियत समझी तब उसे अहसास हुआ,कि अहमियत जताई नहीं जाती।नए घर में आते ही परिवार के सदस्य अपनी अहमियत में से हिस्सा कर-करके बहू को देतें हैं। जिम्मेदारी स्वत:ही आ जाती है,अहमियत के साथ।घर की बड़ी बहू के बिना तो परिवार का कोई अनुष्ठान कभी पूरा ही नहीं हुआ।प्रीति के बिना तो बच्चे कभी पढ़ें ही नहीं।प्रीति के टिफिन के बिना तो पति कभी ऑफिस ही नहीं गए।छुट्टी के दिन प्रीति के पुलाव के बिना लंच ही नहीं हुआ कभी।

पापा के जाने के बाद जब बेटी ने कहा प्रीति से”मम्मी,पापा आपकी बहुत चिंता करते थे।आप ठीक रहोगी तो सब ठीक रहेगा।हमें अपने पैरों पर खड़ा किया है आपने। दादा-दादी की जिम्मेदारी आपकी थी।पापा की देखभाल आपने की।अब देखो,पापा के प्रोविडेंट फंड,एल आई सी ,आर डी का सब पैसा तुम्हारा है।

तुम जो चाहो जैसा चाहो खर्च करना।ये पापा का उपहार है तुम्हारे लिए।अब तो मानो कि तुम्हारी अहमियत सबसे ज्यादा थी पापा के लिए।तुम्हें चिढ़ाने में लगे रहतें थे कि मैं खास हूं उनके लिए,पर तुम्हारी जगह सबसे अलग थी।वो जाते-जाते भी तुम्हारे लिए अपना संरक्षण निश्चित कर गएं हैं।”

बेटी ने आज मुझे अपनी अहमियत का सम्मान पत्र पापा की तरफ से दिया था।सच ही तो है,हम औरतें घर की रानी होतीं हैं।हम ही अन्नपूर्णा,हम ही शिक्षक,हम ही मैनेजर,हम ही बैंक और हम ही अपने पति के प्रेम की धरोहर होती हैं। अहमियत कोई चीज नहीं है,जिसे लिया या दिया जाए।यह वह प्रमाणपत्र है जो,ससुराल की समस्त जिम्मेदारियां निभाते-निभाते स्वत:ही मिल जाता है।अहमियत के लिए काबिलियत होना जरूरी है।

ज़िंदगी भर ख़ुद को मांजकर अपने चरित्र को कांच की तरह चमकाना पड़ता है। सुख-दुख के थपेड़े सहने लायक मजबूत बनना पड़ता है।अपने व्यवहार में निशछलता और समानता लाना पड़ता है,तब मिलती है अहमियत।और मजेदार बात यह कि इस अहमियत का कोई प्रमाण पत्र नहीं मिलता,पति के हस्ताक्षर सहित।यह अदृश्य उपलब्धि पीढ़ी दर पीढ़ी आने वाली बहुओं को स्थानांतरित होती रहती हैं।

शुभ्रा बैनर्जी

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