अहंकार मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।अहंकारी मनुष्य को अच्छे-बुरे ,अपने-पराए का विवेक नहीं रहता है।अहंकार मनुष्य की बुरी वृत्ति है।जगविख्यात है कि अहंकार के कारण ही प्रकांड पंडित, महान ज्ञानी,बलशाली रावण का समूल नष्ट हुआ था।
अहंकार से सम्बन्धित वर्षों पढ़ी हुई कहानी मुझे याद आ रही है,जिसे लिखने का प्रयास कर रही हूँ।प्राचीन समय में एक राजा राज्य कर रहा था।राजा के मन में खुद के श्रेष्ठ होने का अहंकार कूट-कूटकर भरा हुआ था,जिसके कारण प्रजा उससे भयभीत रहती थी,परन्तु राजा में एक अच्छी बात यह थी कि वह धार्मिक प्रवृत्ति का था और साधु-सन्तों का बहुत सम्मान करता था।
एक बार राजा से मिलने एक सन्त राजदरबार में आएँ।राजा ने बड़ी ही खुशी से संत का आदर-सत्कार किया तथा कुछ दिन उन्हें अपने राजदरबार में रुकने का आग्रह किया।संत ने राजा के आग्रह को स्वीकार कर लिया। राजा प्रतिदिन संत से शिक्षा भरे उपदेश सुनता।
जब संत राजदरबार से विदा होने लगें,तो राजा ने भावविह्वल होते हुए कहा -“हे गुरुवर!आप अपनी कोई इच्छा बताएँ।आपको गुरुदक्षिणा में मैं क्या उपहार दूँ?”
संत-मुनि को उपहार से क्या मतलब?फिर भी संत ने राजा से कहा -“हे वत्स! आप अपने मन से मुझे जो भी उपहार दोगे,मैं स्वीकार कर लूँगा।”
राजा ने प्रसन्नतापूर्वक कहा -“हे मुनिवर!आप मेरा संपूर्ण राज्य ले लें।”
संत ने मुस्कराते हुए कहा -“हे राजन्!राज्य तो जनता का होता है।आप तो केवल उसके संरक्षक हैं,इसे मैं कैसे ले सकता हूँ?”
पुनः राजा दूसरा प्रस्ताव देते हुए कहता है-” हे गुरुवर!आप मेरा महल और मेरी सारी सवारी ले लें।”
संत -“वत्स!यह महल और सवारी भी जनता की है।यह तो आपके राज-काज को चलाने हेतु उपलब्ध कराया गया है।इसे मैं कैसे ले सकता हूँ?”
संत के इंकार से निराश होते हुए राजा ने कहा -“हे ऋषिवर!यह शरीर तो मेरा है।आप मेरा शरीर गुरुदक्षिणा में ले लें।मैं तन-मन से आपकी सेवा करता रहूँगा।”
संत ने मुस्कराते हुए कहा -” हे वत्स! शरीर भी राज्य और आपकी पत्नी ,आपके बच्चों का है।इसे तो मैं हरगिज नहीं लूँगा।”
अब राजा काफी परेशान हो गया।वह.अपने राज्य से किसी संत को खाली हाथ कैसे जाने दे सकता था!बिना गुरुदक्षिणा के उसकी शिक्षा भी अधूरी रह जाएगी।
राजा की परेशानी को समझते हुए संत ने कहा -“हे राजन!आप अपने मन का अहंकार त्यागकर मुझे दे दो।इसी अहंकार के कारण आपको भ्रम हो गया है कि राज्य और राजकीय वस्तुएँ आपकी हैं। अहंकार ही संसार का सख्त बंधन है।अपने अहंकार को त्यागकर प्रजा के जीवन को और सुखमय बना सकते हो।”
राजा ने मुनिवर के पैरों में गिरकर कहा-“हे महात्मन्!आज आपने मेरी आँखों पर पड़े हुए पर्दे को हटा दिया है।आज से मैं आपकी दीक्षानुसार निस्वार्थ भाव से प्रजा की सेवा करुँगा।”
कुछ समय बाद ही राजा की प्रसिद्धि सुगंधित पुष्प के समान चहुंओर फैलने लगी।
समाप्त।
लेखिका-डाॅ संजु झा।