अब नहीं – विभा गुप्ता

  ” माँ , इस बार तुम्हारी बेटी शहर ही नहीं पूरे जिले में अव्वल आई है।आज स्कूल के फंक्शन में मुझे ‘सर्वश्रेष्ठ’ का पुरस्कार दिया जायेगा और तुम्हें ज़रूर आना है।” मिनी ने माँ को अपना रिपोर्ट कार्ड थमाते हुए कहा और स्कूल जाने के लिए तैयार होने लगी।

             रिपोर्ट कार्ड देखते ही माँ की आँखें खुशी से छलछला उठी।सोचने लगी, मिनी के पैदा होने पर घरवालों ने उसे कितना कोसा था।मिनी के खाने-पीने,पहनने-ओढ़ने पर कितनी पाबंदियाँ लगाई जाती थी।मिनी बारह की भी नहीं हुई थी कि उन्होंने बेटी की शादी कर देने के लिये उसपर ज़ोर डालना शुरु कर दिया था।कच्ची उम्र में विवाह और गर्भवती होने की पीड़ा को वह स्वयं झेल चुकी थी और अब बेटी को भी …, नहीं-नहीं , अब नहीं।जब उसने मिनी के विवाह का विरोध किया तो नाते-रिश्तेदारों ने लोक-लाज और समाज का वास्ता देकर उसे बेटी के विवाह के लिए राजी करना चाहा लेकिन उसने तो जैसे बेटी को आत्मनिर्भर बनाने का ठान लिया था।उसने अपना निर्णय नहीं बदला तो घरवालों ने उसे घर से निकल जाने को कहा और वह अपनी फूल-सी बच्ची का हाथ पकड़कर अनिश्चित मंजिल की राह पर चल पड़ी।

             जीविका के लिए वह घर-घर जाकर चौका-बरतन करने लगी और बेटी का स्कूल में फिर से दाखिला कराया।वह दिन में चौका-बरतन और रात में सिलाई का काम करती।उसकी मेहनत रंग लाई।मिनी के अच्छे अंक देखकर स्कूल की तरफ़ से उसे स्काॅलरशिप मिलने लगा लेकिन मंज़िल अभी भी दूर थी।वह बेटी को वहाँ देखना चाहती थी जहाँ लोग मिनी का नाम गर्व से ले, बेटी के नाम से वह पहचानी जाये और आखिर आज वह दिन आ ही गया।आज उसकी बेटी को…..।  “माँ, मैं जा रही हूँ , तुम ठीक पाँच बजे स्कूल पहुँच जाना।देखो, भूलना नहीं।” बेटी की आवाज़ सुनकर वह अतीत से वर्तमान में लौटी, धीरे से बुदबुदाई,  ” आज का दिन कैसे भूलूँगी बेटी, आज तो मेरा सपना पूरा होने जा रहा है।” और काम पर जाने की तैयार करने लगी।

                           विभा गुप्ता 

                             बैंगलूरू 

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