आ अब लौट चलें- नरेश वर्मा : Moral Stories in Hindi

  ट्रेन किसी पुल से गुजर रही थी।खिड़की के बाहर नदी के नाम पर दूर तक एक रेतीला मैदान भर था।पटरियों से गूंजते खट-पट के स्वरों के मध्य पुल के गुजरते खंबे ही अहसास करा रहे थे कि ट्रेन किसी नदी से गुजर रही है ।पिछली बार जब वह घर से विद्रोह करके गई थी तब यही नदी भँवर लेते जल से भरी अपने तटबंधों को तोड़ने को आतुर थी।और आज जब वह वापस लौट रही है तो नदी जल विहीन रेत का सूखा मैदान …….. क्या नदी और उसमें कोई साम्य है ? नदी आज भले ही सूखी नज़र आ रही है किंतु इसका वजूद क़ायम है ।सावन में जब काले मेघों से बरसता जल इसके आग़ोश में समाएगा तो धरती कीं परतों में छिपे जल से मिलन का उत्सव लहरों के नृत्य मे दृष्टिगोचर होगा।यह परंपरागत है, इसे झुठलाया नहीं जा सकता ।किंतु उसने झुठलाने का प्रयास किया था।परंपराओं को उसने पुरातन पंथी और दक़ियानूसी की संज्ञा से नवाज़ा था।………उसकी पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई समाप्त हो चुकी थी…..अब आगे क्या ? मम्मी की सोच परंपरागत थी ।शादी करो गृहस्थी बसाओ।मम्मी ने तो संभावित लड़कों के प्रस्तावों की फ़हरिस्त उसे थमा दी थी ।

  किंतु घरवालों द्वारा प्रस्तावित अरेंज मैरिज की परंपरागत सोच उसकी आधुनिक सोच से मेल नहीं खाती थी ।किसी लड़के की फ़ोटो और आकर्षक बायोडेटा से उसका व्यक्तित्व और आचरण तो व्यक्त नहीं होता।जीवन भर का अनुबंध एक फ़ोटो और अल्प साक्षात्कार के आधार पर कैसे किया जा सकता है ।मम्मी का तर्क था कि उनको तो अपने ज़माने में इससे बहुत कम छूट थी जितनी आज की पीढ़ी को है ,पर फिर भी माँ-बाप द्वारा तय किया उनका रिश्ता अच्छा निभा।जीवन भर के तजुर्बे के आधार पर घर और ख़ानदान देख कर ही माँ-बाप रिश्ते तय करते हैं ।इस पर उसने कहा था कि ऐसे अनजान रिश्तों से अनुबंध करना जीवन के साथ जुआ खेलना जैसा है ,और वह जुए में विश्वास नहीं करती।इसी बीच दिल्ली की एक मल्टी नेशनल फ़र्म से उसे नौकरी का ऑफ़र मिल गया था और शादी के पचड़े को ठंडे बस्ते में डाल वह दिल्ली भाग आई थी ।

  दिल्ली में कुछ दिन आवास की समस्या अवश्य झेली पर अंततः उसे महिला होस्टल में कमरा मिल गया ।नौकरी का अच्छा पैकेज, स्वयं का कमरा , दिल्ली की चकाचौंध……युवा शरीर में जैसे पंख लग गए थे।यही वो समय होता है जब युवा जिस्म के हार्मोन सक्रिय होने लगते हैं ।हार्मोन की सक्रियता रंग लाई और उसका भी एक ब्याय फ़्रेंड बन गया।दोस्ती से शुरू हुआ यह  सफ़र कॉफी हाउस, पार्क की बेंचों और सिनेमा घरों के गलियारों से होता हुआ दिल की धड़कनों में समाने लगा था।एक दूसरे को समझने की प्रक्रिया में कुछ महीने डेट का सिलसिला भी चला।किंतु वह कोई सोलह साल की अपरिपक्व लड़की नहीं थी , छब्बीस साल की प्रोफेशनल लड़की थी।वह जानती थी कि बंद मुट्ठी लाख की ,खुल गई तो ख़ाक की।उसने सदैव सावधानी बरती कि शरीर की सीमाओं का अतिक्रमण न होने पाए ।उसने इश्क़ को दिल की धड़कनों से परे शरीर के गलियारों में भटकने देने

से परहेज़ किया ।यद्यपि यह इतना आसान नहीं था।अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण के साथ दूसरे पक्ष के भावनात्मक दबाव को नकारना एक कठिन संयमित लड़ाई थी ।छह महीने तक चली इस लड़ाई के निर्णायक परिणाम की ख़ातिर अंततः उसने ब्याय फ़्रेंड को जीवन साथी बनने को प्रोपोज़ किया ।वह टालता रहा, उसका तर्क था ज़िंदगी का लुत्फ़ उठाओ, जल्दी क्या है ।…..इसी तरह कुछ महीने और यह ज़िंदगी का लुत्फ़ उठाने का सिलसिला चला।

  किंतु धीरे-धीरे उसका मस्तिष्क उसे चेतावनी के सिग्नल देने लगा था ।…..उस दिन पार्क की बेंच पर उसने उसका हाथ थाम कर कहा-“ देखो मनीष मैं अब और इंतज़ार नहीं कर सकती या तो शादी की अंगूठी पहनाओ या इस रिश्ते की फाइल को बंद कर दो।” मनीष ने पहले की ही तरह उसके प्रस्ताव को भविष्य के वादों की भूलभुलैया में भटकाने का प्रयास किया ।किंतु वह आज निर्णय करके आई थी कि -‘ या तो आज या फिर कभी नहीं ‘।

   पार्क ख़ाली होने लगा था पर बात किसी निर्णय पर नहीं पहुँची। हाँ इतना अवश्य हुआ कि मनीष अब एक्सपोज़ होने लगा था। इस रिश्ते को वह अब समाप्त करना चाहती थी कि अचानक मनीष ने एक प्रस्ताव दिया-“ क्यों न हम दोनों कुछ दिन ‘लिव इन रिलेशन शिप ‘पर रह लेते हैं ? सब कुछ ठीक रहा तो शादी-वादी भी कर लेंगे ।”

 वह इस प्रस्ताव से चौंक गई।उसने लिव इन रिलेशन शिप के भयंकर हादसों के बारे में पढ़ा था ।उसकी नज़र में ऐसे रिश्ते बिना किसी जवाबदेही के शरीर को भोगने के लाइसेंस जैसे थे।अग्नि के सात फेरों पर लिए गये जीवन भर साथ साथ निभाने के वायदों की अपेक्षा यह उन्मुक्त वासना का खेल भर था।

 ग़ुस्से से उसका मुँह लाल हो आया था पर आवेश को संयत करते उसने कहा-“ मनीष तुम्हें नहीं लगता कि तुम्हारा यह प्रस्ताव कुछ कुछ उस एडवरटाइज़िंग जैसा नहीं है जिसमें कहा गया है कि ‘ पहले इस्तेमाल करो फिर विश्वास करो ‘।

  इस पर मनीष ने तर्क देते हुए कहा-“ शादी से पहले लड़के वाले लड़की देखने जाते हैं ।बदलते समय के साथ प्रायः घरवाले लड़का-लड़की दोनों को कुछ समय अकेले में बात करने की भी मोहलत देते हैं ।ऐसा क्यों ? इसलिए कि दोनों एक दूसरे को जान लें।किंतु इन चंद मिनटों की मुलाक़ात में कौन किसे कितना जान सकता है ।आधुनिक समय में इस पद्धति को थोड़ा और फ़ुल प्रूफ़ करते हुए यदि मैं साथ रहने की बात कहता हूँ तो इसमें बुराई क्या है ?

  “तुम्हारा यह विवेक विदेशी पद्धति पर आधारित है, जहां विवाह एक करार होता है जिसे तोड़ा भी जा सकता है ।किंतु हिंदू विवाह जन्म जन्मांतरों का संबंध होता है जिसे किसी भी परिस्थिति में तोड़ा नहीं जा सकता ।ध्रुव तारा को साक्षी मान , अग्नि के सात फेरे लेकर तन ,मन और आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं ।यहाँ शारीरिक संबंध से अधिक आत्मिक संबंध होता है ।”-उसने मनीष के तर्क के उत्तर में कहा ।

  पार्क ख़ाली हो चुका था और वह दोनों भी उस बेंच को अलविदा कह कर उठ गए थे जिस पर प्रायः वह बैठा करते थे ।किंतु इस प्रश्न का अभी भी कोई उत्तर नहीं था कि परिणय बंधन से पूर्व एक-दूसरे को जानने समझने का क्या कोई उपाय है  ? साथ रहे बग़ैर जानना संभव नहीं और शादी पूर्व साथ रहना अनैतिक है।

 उपाय एक ही है कि हिन्दू सनातन धर्म की परिभाषा को आधार मानना होगा।जीवन के तजुरबे से गुज़रे माँ बाप के निर्णयों पर विश्वास करना सीखना  होगा।

………………ट्रेन सूखी नदी पार कर चुकी थी….उसका वह संबंध जो शायद शरीर के धरातल पर टिका था इस नदी की भाँति सूख चुका था ।… किंतु यदि वह , जिससे विचार न मिलते हों , जीवन से चला जाए तो उसका ग़म नहीं करना चाहिए बल्कि जीवन को इतना खुला रखो कि कोई उपयुक्त उसमें पुनः प्रवेश कर सके ……।वह लौट रही थी अपने उस घोंसले की ओर जहां उसके पंखों ने उड़ना सीखा था।

                                 *******समाप्त *******

                                                                                   लेखक- नरेश वर्मा

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