अध्याय 1: जन्म एक दीप का
सहादरा गांव की वह सुबह कुछ अलग थी। हल्की गुलाबी धूप खेतों पर पड़ी थी और बासमती की फसलें बयार में झूम रही थीं। उसी सुबह रघुनाथ बाबू के घर बेटी ने जन्म लिया। उसकी माँ सरला देवी ने जैसे ही नवजात को देखा, उसका नाम “शिखा” रखने की बात कही – एक उजास, एक लौ, जो अंधकार में भी प्रकाश दे।
शिखा का बचपन सेवा और ममता से भरा था। वह पढ़ाई में औसत लेकिन स्वभाव में अनुपम थी। हर पड़ोसी, हर वृद्ध महिला, हर गाय–बछड़ा, सबके प्रति उसमें एक आत्मीयता थी। रघुनाथ बाबू कहते – “हमारे कुल का दीपक तो नहीं, पर ये दीपशिखा ज़रूर है।”
अध्याय 2: विदाई की बाती
समय बीता, शिखा सयानी हुई। उसका विवाह पटना सिटी के सुमन से तय हुआ। विवाह बहुत सादगीपूर्ण हुआ। विदाई के समय सरला देवी ने कहा –
“बेटी, तू पराया धन नहीं, अपनी संस्कृति है। अपने उजास को कभी मंद मत पड़ने देना।”
शिखा की आँखें भरी हुई थीं, लेकिन उसके भीतर एक शक्ति थी – नया घर, नए लोग, लेकिन वही भाव, वही समर्पण।
अध्याय 3: नगर की चौखट पर
पटना सिटी में शिखा का स्वागत सौम्य था। सास–ससुर उसे स्नेह देते थे और सुमन – उसका पति – उसे देखकर गर्व महसूस करता था। वह जानता था कि शिखा सिर्फ एक पत्नी नहीं, एक सभ्यता है।
शिखा ने धीरे-धीरे घर को अपने स्पर्श से सुव्यवस्थित किया। भोजन में स्वाद, बातों में मीठास और सेवा में माधुर्य आ गया। सुमन अक्सर कहता –
“तुम सच में घर की देवी हो।”
अध्याय 4: दो कुलों की पुल
शिखा मायके से संबंध निभाती रही – माँ की दवाएं, भाई की पढ़ाई, पिता के पैर का इलाज – सबकी चिंता उसे थी। वह हर महीने कुछ न कुछ भेजती। कभी अचार, कभी साड़ी, कभी ख़ुद की लिखी चिट्ठी।
सुमन उसे रोकता नहीं था, बल्कि प्रेरित करता –
“तुम जो कर रही हो, वह सिर्फ बेटी का धर्म नहीं, इंसानियत का धर्म है।”
गांव के लोग चकित थे – “अरे! बहू बनकर भी मायके का इतना ध्यान! यह तो नई बात है।”
अध्याय 5: पंचायत का प्रश्न
एक दिन गांव की पंचायत में किसी ने ताना मारा – “बहू को बेटी बने रहने का इतना शौक है, तो क्यों ससुराल गई? पति क्या कहता है?”
यह बात शिखा तक पहुंची, तो वह शांत रही। लेकिन सुमन ने अगले सप्ताह गांव जाकर उसी पंचायत में कहा –
“अगर एक बेटा माँ–बाप की सेवा करे तो गर्व, और एक बेटी करे तो सवाल? मेरी पत्नी मेरी शक्ति है, और हम दोनों मिलकर अपने दोनों कुलों का मान बढ़ाते हैं।”
पंचायत शांत थी – और लोगों के विचारों में एक दरार सी पड़ी।
अध्याय 6: उजास की पहचान
एक अख़बार ने इस दंपति की कहानी छाप दी – “एक बेटी जो बहू होकर भी बेटी बनी रही।”
कई स्कूलों में उनकी बातें प्रेरणास्रोत बनीं। सहादरा गांव में बेटियों की पढ़ाई पर ध्यान बढ़ा। एक स्थानीय महिला समूह ने शिखा को “दीपशिखा सम्मान” दिया।
शिखा भावुक थी – “मैंने कुछ बड़ा नहीं किया। बस रिश्तों की रोशनी को जलाए रखा।”
अध्याय 7: अंतिम स्पर्श
समय बीतता गया। शिखा की माँ का स्वास्थ्य बिगड़ा। शिखा हफ्तों गांव में रही – सेवा में। सरला देवी के अंतिम शब्द थे –
“बेटी, तू सच में दीपशिखा है… तूने जीवन को भी रोशन किया और मरते हुए माँ का अंत भी।”
शिखा की आँखों में आँसू थे, लेकिन वह टूटी नहीं – वह लौ कभी बुझती नहीं थी।
अध्याय 8: सामाजिक संदेश
आज शिखा एक प्रेरणा है – मायके और ससुराल दोनों को जोड़ने वाली एक सजीव सेतु। वह यह साबित करती है कि बेटी का विवाह उसके रिश्तों का अंत नहीं, विस्तार होता है।
सुमन और शिखा जैसे जीवनसाथी समाज को यह सिखाते हैं कि –
“जहाँ नारी का सम्मान होता है, वहीं परिवार, समाज और संस्कृति उजास से भरती है।”
समाप्ति
यह लघु उपन्यासिका उन सभी बेटियों को समर्पित है – जो बहू बनकर भी बेटी बनी रहती हैं, और उन पतियों को – जो उन्हें कभी पराया नहीं मानते।
लेखक संपर्क: सुरेश कुमार गौरव,सिमरी सहादरा रामधनी रोड, मालसलामी, पटना सिटी-800008 पटना(बिहार)