शैव्या।  – डा उर्मिला सिन्हा

 यह शैव्या राजा सत्य हरिश्चन्द्र जी की पत्नी नहीं अपितु हमारी इस छोटी सी कहानी की नायिका है। अपने धर्म राज की धर्मपत्नी। मां बाप ने धर्मराज के पल्ले बांध दिया जिसे शैव्या और धर्म राज दोनों निभाये जा रहे थे।

      हमारी शैव्या कोई ऐसी वैसी नारी  नहीं बल्कि पूरी सातवीं जमात तक पढ़ी हुई है । गांव के स्कूल में। जहां लड़कियों का पढ़ना आवश्यक नहीं समझा जाता था।शैव्या के दादा-दादी , पिता ने भी उसकी पढ़ाई का कड़ा विरोध किया”क्या करेंगी छोरी पढ़-लिखकर।”

 मगर उसकी मां बहुत दबंग थी।उसे बहुत चाव था कि उसकी बिटिया पढ़-लिखकर मास्टरनी बनें।दर‌असल अनपढ़,गंवार शैव्या की मां मास्टरनी को ही बहुत बड़ी शख्सियत समझती थी। जिस औरत के लिए रेल,मोटर बहुत बड़ी चीज हो,शहर कभी ग‌ई न हो उसके लिए तो स्कूल मास्टरनी से बढ़कर कोई पद न था।

    शैव्या अपनी मां की इकलौती संतान थी। होने को तो क‌ई बच्चे हुए किंतु देखरेख का अभाव, कुपोषण, दवा-दारू के अभाव में सभी कालकवलित हो ग‌ए।शैव्या के मां का हृदय हाहाकार कर उठा।पता नहीं क्यों उसे लगता कि”शैव्या को पढ़ना चाहिए , बहुत पढ़ना चाहिए।”

  शैव्या का पिता अव्वल दर्जे का आलसी और निखट्टू था। पहले मां बाप की मेहनत के बदौलत के बदौलत पेट भरता था फिर बीबी की कमाई पर। आगे वह शैव्या से भी यही उम्मीद लगाए बैठा था,”बेटा न सही बेटी बेटी होकर ही काम काज करें ताकि उसका जीवन बिना कुछ किए बिना ही चलता रहे……”

शैव्या की मां अपने पति के विपरीत परिस्थितियों से लड़ने वाली स्त्री थी।

 परमेश्वर की सृष्टि में मानव एक चेतना युक्त प्राणी है । उसके पास बुद्धि का अक्षय कोष है । किंतु ईश्वर की मर्जी के आगे किसकी चली है भला।शैव्या के माता-पिता  एक के बाद एक छोटी सी बिमारी में चल बसे।भरी दुनिया में शैव्या अकेली रह गई। रिश्ते के मामा उसे अपने साथ ले आए।

  मामा एक साधारण स्कूल मास्टर थे।मामी थीं छ: बच्चे थे। बड़ी मुश्किल से गुजारा चलता।

शैव्या एकदम शांत हो गई। जहां उसके मुखमंडल पर प्रसन्नता का आवरण रहता था वहीं अब चिंता की गहरी रेखाएं छाई रहने लगी।मामी का स्वभाव वैसे तो ठीक ही था लेकिन निरंतर अभाव और बढ़ते हुए खर्चों ने मामी को चिड़चिड़ा बना दिया था। फिर भी शैव्या अपना मनोबल नष्ट नहीं होने देती ।”मानसिक शक्ति के संचय में ही सच्ची सफलता का अंकुर निहित है ।” इस सच्चाई को वह समझती थी।

 मामी का एक सहोदर भाई था रामखेलावन। नाम चाहे जो हो उनका रूप बेजोड़ था। काले तवे जैसा रंग , चेहरे पर चेचक का दाग ।मोटा शरीर, मुंह में पान,कांख में दारू की बोतल,ज़बान पर भद्दी भद्दी गालियां। कभी यहां कभी वहां रहकर जैसे तैसे मौज मस्ती का सामान जुटाते ।वे शैव्या के मामी को अत्यंत प्रिय थे।होते क्यों नहीं !सगे भाई जो थे।वे जब भी अपनी बहन के यहां आते , बेचारे मामा पर खर्च का बोझ बढ़ जाता। बढ़िया खाना,कबाब, शराब,मांस मछली ,पान जर्दा ….।




  शैव्या का दिल मामा के विवशता पर रो उठता। कुछ कर न पाने की मजबूरी पर वह रूआंसी हो उठती….। रामखेलावन की नजर जब शैव्या की सुंदरता पर पड़ी तो वह उसे पाने के लिए लालायित हो उठा।”बहना मेरा लगन अपनी भांजी से करवा दे।”

मामी ने प्रस्ताव मामा के समक्ष रखा “अपनी लाडली को मेरे भाई से बढ़कर कोई नहीं मिलेगा ।राज करेगी राज ….”।

 मामा का जी जल उठा।मगर मुंह से कुछ नहीं बोले। मामा का हृदय आशंकित हो उठा।वे जानते थे कि उनके कुछ भी कहने का असर उनकी पत्नी और साले पर होने वाला नहीं है। इंकार करने पर वे कोई सा भी घिनौना हथकंडा अख्तियार कर सकते हैं।वे चुप चाप शैव्या के लिए किसी योग्य वर की तलाश करने लगे।

 शैव्या की ओर देखते तो अनायास ही स्वर्गवासिनी बहन की याद आ जाती ।उनका हृदय मर्माहत हो जाता । अभागी शैव्या ….पता नहीं उसके भाग्य में क्या है?

परंतु क्या योग्य वर मिलना इतना आसान था? जितना शैव्या के मामा ने समझ। रखा था। जहां दूल्हे बिकते हों। एक से बढ़कर एक खरीदार हों वहां एक गरीब स्कूल मास्टर को खाता कमाता वर मिलना विधाता के हाथ में। किंतु मामा ने हार नहीं मानी। परमात्मा ने उनकी सुन लीं। किसी ने उन्हें धर्म राज का नाम सुझाया।वह एक अति साधारण युवक था। बूढ़े मां-बाप थे और धर्म राज बनिए के दूकान पर अनाज तौलने का काम करता था। किसी प्रकार घर का खर्च चलता था।

शैव्या का सौभाग्य या जो कहिए वहां उसकी बात पक्की हो गई। मामा के सिर से मनों बोझ उतर गया।” कम-से-कम शैव्या एक इज्जत दार इंसान के साथ तो रहेगी। शराबी कबाबी से तो पीछा छूटा।”

मामी और‌ उसके भाई ने शैव्या की शादी की बात सुनकर सारा घर सिर पर उठा लिया। मामी के चीखने चिल्लाने से डर जाने वाले मामा में पता नहीं कहां से इतना साहस आ गया कि उन्होंने अपनी पत्नी की एक न सुनी पांच कपड़ों में अकेले शैव्या को मंदिर में व्याह ससुराल बिदा कर आए। बिदाई में शैव्या अपने मामा के कंधे लगकर बहुत रोई।। पर,उस क्रंदन में उसका रोम रोम अपने मामा का कृतज्ञ था जिन्होंने उसे नरक में धकेलने से बचा लिया था।

    शैव्या ससुराल आई।आम लड़कियों की तरह वह भी पहली बार पतिगृह में पांव रखते आनंद और उत्सुकता से अभिभूत थी। उसका स्वागत ससुराल में कुछ खास नहीं हुआ। मुहल्ले की औरतें “बहू सुंदर है…..”कहती अपने घर ग‌ईं।

 सास ससुर पांव छूने पर क्या बुदबुदाए वह सुन नहीं पाई। धर्म राज भी विवाह से कोई खास उत्साहित नहीं था।

   इस ठंडे पन से शैव्या को कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि आज तक उसके साथ सभी का व्यवहार रूखा ही रहा है।मन ही मन संतोष जरूर था,”अपना घर तो मिला । जहां मामा की बेबसी , मामी का छीछालेदर, मामी के भाई की भूखी नज़रों से तो छुटकारा मिला….”!




   गृह कार्य में निपुण शैव्या दूसरे दिन मुंह अंधेरे ही उठ बैठी। एक टूटा हुआ झाड़ू कोने में पड़ा था। उसी से सफाई में जुट गई।दिवालों पर मकड़ी के जाले,कुडा करकट जैसे हफ्तों से घर की सफाई नहीं हुई है। सफाई के पश्चात नहा-धोकर,सास ससुर का पैर छू चौके में घुसी।

 एक मिट्टी का चूल्हा, टूटा हुआ स्टोव, कुछ बरतन और डिब्बे इधर उधर बिखरे पड़े थे।शैव्या ने सभी सामानों को करीने से सजाया।स्टोव जला चाय बना सास-ससुर को दी,”जी चाय…..”। दोनों वृद्धों के चेहरे खिल उठे।”सुहागिन रहो बेटी…’!शैव्या निहाल हो उठी।

कप  प्लेट के नाम पर दो चार दरके हुए कांच के गिलास भर थे।दो गिलासों में चार लेकर जब वह धर्म राज के पास पहुंची तो वह बेखबर सो रहा था।”जी ,चाय…” उठाने पर एक नजर पत्नी पर डाली ।चाय लेकर चुपचाप पीने लगा। चेहरे पर क्षणिक खुशी आई मगर निर्विकार ही बना रहा।

“भोजन क्या बनाऊं”शैव्या ने धीरे से पूछा।”जो घर में होगा, वही तो बनेगा ..”! धर्म राज के सपाट उत्तर पर वह जरा भी विचलित नहीं हुई।वह जानती थी उसका पति गरीब भले है पर हाड़तोड़ मेहनत से जरा भी नहीं हिचकता।वह इस घर की रानी है।

दाल-रोटी खाकर धर्म राज काम पर चला गया । सास-ससुर नहा-धोकर बहू के हाथ का भोजन कर चारपाई पर आराम करने लगे। सास ने प्यार से कहा,”बहू तुम भी खा लो।”

शैव्या निहाल हो उठी। इस एक स्नेह भरे वाक्य पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार।

 शाम को धर्म राज के सामने जब शैव्या ने चाय के साथ हल्का नाश्ता रखा तो उसके पति को सुखद आश्चर्य हुआ।छोटे से घर का हुलिया ही बदला हुआ था।शैव्या ने अपने सुघड़ सलोने हाथों से एक बिखरे हुए घर को सजाने की कोशिश की थी। धर्म राज के आंखों में प्रशंसा के भाव झलके जरूर पर होंठ फड़फड़ा कर रह ग‌ए।

   दर‌असल वह दिन भर बनिए की दुकान पर सेठ की झिड़कियां खाता ।मिर्च, मसाले,तेल ,दाल के गर्द में डूबा हुआ इंसान था।वह चाय नाश्ता कर आंगन में टूटी खाट पर लेट गया

शैव्या रात्रि भोजन की तैयारी करने लगी।बेहद गर्मी थी ,उमस भरी।शैव्या पति के पास आ बैठी।”तुम नल पर जाकर नहा लो कुछ तरावट आ जायेगी।”

धर्म राज हैरत में पड़ गया। आज तक वह कभी दुकान से आकर स्नान नहीं किया था।रोज संध्या दुकान से आकर शरीर से गर्द गुब्बार झाड़ रात्रि भोजन के इंतजाम में जुट जाता । किसी प्रकार कच्चा पक्का बना मां बाप को खिला अपने पेट में डाल घोड़े बेचकर सो जाता।

 इस दुनिया में बूढ़े मां-बाप और बनिए के दूकान को छोड़ धर्म राज का तीसरा कोई ठिकाना नहीं था।वह मां बाप की सेवा अपना फ़र्ज़ समझता था एवं बनिए के दूकान से उसे रोटी मिलती थी।वह दीन दुनिया से बेखबर सीधा-साधा निर्विकार प्राणी था।

नई दुल्हन पर एक उचटती नजर डाल उसके हाथ से बाल्टी और तौलिया ले सरकारी नल पर नहाने चला गया। वहां लम्बी लाइन लगी हुई थी पानी लेने वालों की। थोड़ी प्रतिक्षा के बाद जगह मिल गई।

    ठंडे पानी के छींटों से धर्म राज ने अपने भीतर न‌ई ताजगी और स्फूर्ति महसूस की। उसनेे मन ही मन शैव्या को धन्यवाद दिया एक बाल्टी घर के लिए भी ले लिया। शायद नवेली पत्नी को शुक्रिया करने का यह एक तरीका था।

धर्म राज और शैव्या की गृहस्थी वृद्ध माता-पिता के साथ अभावों के बीच चल रही थी। उसके जी तोड़ परिश्रम के बावजूद भी आमदनी में इजाफा होने से रहा।शैव्या की सारी कार्य कुशलता , गृहस्थिन चतुराई घर की आर्थिक स्थिति में परिवर्तन न ला सकी।जब अर्थ खर्च के लिए प्रर्याप्त हो तो एक बात हो। यहां तो आमद ही खास नहीं थी तो बोली शैव्या क्या करें। यों तो शैव्या बहुत धैर्य शील थी परन्तु घर की आर्थिक स्थिति सुधारने की कशमकश उसके हृदय में भी चल रही थी।




 धीरे धीरे उसकी दोस्ती पड़ोसिनों से होने लगी। एक ने बताया,”हम कुछ महिलाएं पापड़ बड़ियां बनाने वाले के यहां तीन चार घंटे जाकर पापड़, बड़ियां, अचार वगैरह बनातीं हैं। जिससे हमें आमदनी हो जाती है।”

 अंधा क्या चाहे दो आंखें ।शैव्या को पापड़ वाले के यहां काम मिल गया। घर का काम निपटा , सास-ससुर को खिला पिला कर वह काम पर जाने लगी। धर्म राज रात में देर से लौटता । खाता पीता सो जाता।

  एक महीने के बाद जब शैव्या के हाथ में पहली आमदनी आई तो वह रोमांचित हो उठी।जिन हथेलियों पर कभी एक रूपया भी नहीं आया हो उसमें दो हजार रुपल्ली पाते ही गद् गद् हो उठी। आर्थिक स्वालंबन से बढ़कर कुछ नहीं। बेजान शैव्या में बला की तेजी आ गई।

वह बाजार से सास ससुर, पति के लिए कपड़े , गृहस्थी का कुछ आवश्यक सामग्री लेकर लौटी तब भी उसके पास चार सौ रुपए बचे हुए थे।

 जब उसने सारी चीज़ों को सास ससुर और पति के सामने रखा तो सभी हक्के बक्के रह गए।।

“यह कहां से….”एक साथ सबकी निगाहें ….!

 शैव्या सहम गई । और सच्चाई से सभी को अवगत कराया। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था जिसे वे व्याहकर लाते थे वह इतनी योग्य हो सकती है और आर्थिक सहयोग दे सकती है ।

नारी सशक्तीकरण का अनुपम उदाहरण।

 “इतनी मेहनत की क्या जरूरत है । मैं कमाता तो हूं। घर का काम । फिर बाहर का ….। कहीं बीमार हो गई तो…”।

“मुझे तो परिश्रम करने की आदत है। कुछ नहीं होगा मुझे….”शैव्या पति की चिंता से अभिभूत हो गई।

“अपने उपर इतना बोझ मत लो …!”धर्म राज की स्निग्ध वाणी ने शैव्या को जैसे आकाश पर बैठा दिया।

“नहीं जी बोझ कैसा? तुम सारे दिन  मेहनत करते हो तो मैं इतना भी नहीं कर सकती । मैं ने तुमसे औ मां बाबूजी से इजाजत नहीं ली थी । इसलिए शर्मिंदा हूं। पूछने से डरती थी कहीं तुम मना न कर दो। घर हम दोनों का है अतः आवश्यकताएं पूरी करना हम दोनों का दायित्व है।”

शैव्या भावविह्वल हो उठी । आज उसने साबित कर दिया था कि वह सिर्फ अन्नपूर्णा ही नहीं बल्कि धनलक्ष्मी भी है। वह और अधिक परिश्रम करेगी और अपनी गृहस्थी को आर्थिक कठिनाईयों के दलदल से बाहर निकाल लेगी।उसकी माथे की बिंदिया उसके आत्मविश्वास के भांति दिप दिप कर उठा।

अपने परिश्रम आत्मविश्वास के बल पर  वक्त बदलते देर नहीं लगती ।

सर्वाधिकार सुरक्षित मौलिक रचना–

डा उर्मिला सिन्हा©®

 

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