चार मंज़िला होटल के बाहर गुलाबी और सुनहरी लाइटें लगातार झपक रही थीं। मुख्य द्वार पर लटकती फूलों की झालरें और लाल कालीन पर खड़े दो लड़के स्प्रे वाली परफ्यूम लेकर हर मेहमान पर “खुशबू का हमला” कर रहे थे। घोड़ी के आगे खड़े ढोल वाले इस तरह ढोल पीट रहे थे, मानो कोई बारात नहीं, बल्कि बैंडबाजे की युद्ध-घोषणा हो रही हो। वहीं दूसरी ओर एक बुज़ुर्ग चुपचाप सिर थामे बैठे थे—शायद तीन ढोलों की चोट के बाद अब तक उनका बी.पी. लो हो चुका था।
बारात का प्रवेश हुआ।
लड़के के दोस्त, जो लहंगे से भी ज़्यादा चमकदार कुर्तों में लिपटे थे, बियर के नशे में डीजे की धुन पर ऐसे झूम रहे थे जैसे ज़िंदगी की आख़िरी पार्टी हो। “लड़का कहाँ है?” पूछने पर किसी ने इशारा किया—और वह सेहरा पहने लड़का, घोड़ी से उतरते हुए ऐसा लग रहा था जैसे कोई थका-हारा टैक्सीवाला पूरे दिन का मीटर खत्म करके लौट रहा हो।
अब मंच की बारी थी।
स्टेज पर लाइटें थीं, लेकिन चेहरों पर थकावट। दूल्हा-दुल्हन एकदम सीधे खड़े थे। चेहरे पर मुस्कान कुछ वैसी थी जैसे स्कूल में फोटो खिंचवाते समय ‘चीज़’ बोलने के बाद बनती है। हर रिश्तेदार—चाहे वह तीसरी मामी का ससुर हो या ऑफिस का नया इंटर्न—स्टेज पर आकर फोटो खिंचवाना चाहता था।
“पायल, मुझे पहचान रही हो? मैं वो हूँ, जो तुम्हारी माँ की बुआ की बहन की बेटी की सास का भतीजा हूँ।”
दुल्हन मुस्कुरा दी। क्या करती? गाल इतने देर से खिंचे हुए थे कि अब वो दर्द और औपचारिकता में फर्क नहीं कर पा रही थी।
अब भोजन—यानी असली रणभूमि।
एक ओर सोने-सी झिलमिलाते काउंटर, करीने से सजी सलाद की प्लेटें, जिन्हें कोई छू भी नहीं रहा था। दूसरी ओर गोलगप्पों की कतार—धक्का-मुक्की ऐसी, मानो सरकार ने मुफ्त में बाँटने की घोषणा कर दी हो। एक अंकल तो चार प्लेट समोसे लेकर जा रहे थे। जब टोका गया कि “बाकियों के लिए भी छोड़िए,” तो मुस्कराकर बोले, “बच्चों के लिए ले जा रहा हूँ”—जबकि घर में बच्चा कोई था ही नहीं।
वहीं एक और स्टॉल पर खड़े एक बुज़ुर्ग बोले—“बच्चन जी, दो टिक्की देना।”
सर्वर ने जवाब दिया—“साहब, ये टिक्का है, टिक्की नहीं।”
बुज़ुर्ग बोले—“तू टिक्का समझ, हम तो टिक्की ही कहेंगे!”
महिलाएं अपने डिज़ाइनर लहंगों में थीं, जिनके घेरे इतने भारी कि तीन लोग उसमें आराम से बैठ सकते थे। लेकिन वहीं कोने में बैठी कुछ महिलाएं धीरे-धीरे खुसुर-फुसुर कर रही थीं:
“लहंगा तो अच्छा है, लेकिन रंग थोड़ा उजा-सा लग रहा है…”
“और वो दूसरी बुआ की बेटी है न, उसकी माँ ने तो सुना है पटियाले से गहने किराए पर लिए हैं…”
चेहरे पर मुस्कान थी, लेकिन आँखें कपड़ों और गहनों की स्कैनिंग कर रही थीं।
फिर डीजे शुरू हुआ—और संस्कारों की बत्ती गुल।
“लुंगी डांस”, “बेबी को बेस पसंद है”, “कमरिया लहराए” जैसे गानों पर सुबह-सुबह आरती करने वाली ताईजी अब ऐसे झूम रही थीं जैसे खुद गोविंदा की कोरियोग्राफर हों। चाचाजी ने अपनी जैकेट उतारी और हवा में लहराकर किसी नौजवान को पीछे करते हुए बोले—
“अभी आया हूँ बेटा, ज़रा हट!”
और एक कोने में बैठे बाबा जी, मुँह में मिक्सचर डालते हुए बड़बड़ा रहे थे—
“क्या नाचते हैं आजकल के लोग! एक भी कदम सीधा नहीं!”
अचानक कैमरा सामने आया…
और पूरी भीड़ की बॉडी लैंग्वेज बदल गई।
जो मामा अब तक पराठा मुंह में दबाए घूम रहे थे, वो प्लेट छोड़ सीधे खड़े हो गए—
“हाँ हाँ बेटा, क्लिक करो, ऐसे… ऐसे… हाँ, ये हाथ में मिठाई रहे।”
अब आई विदाई की घड़ी…
दुल्हन की आँखें नम थीं, मगर उनमें थकावट भी साफ़ दिख रही थी। माँ के आँसू सच्चे थे, लेकिन उनके पीछे खड़ा एक कज़िन धीरे से पूछ रहा था—
“सारे गेस्ट चले गए? खाने के पैकेट मिलेंगे क्या?”
और फिर सब लौटते हैं…
कुछ के पेट भरे हुए होते हैं, कुछ के मोबाइल में 78 तस्वीरें।
कुछ तीन लोगों के हिस्से की मिठाई बैग में रख चुके होते हैं।
किसी ने व्हाट्सऐप स्टेटस डाल दिया होता है—
“Attended a Royal wedding last night, feeling blessed!”
और अगली सुबह… वही ट्रैफिक, वही ऑफिस, वही ईएमआई…
शादी के झूले से उतरते ही ज़िंदगी फिर उसी लाइन में लग जाती है।
दीपा माथुर