मोक्ष की आस – डॉ. पारुल अग्रवाल

आज श्रुति को उसके समाचार पत्र के मालिक गुप्ता जी का फोन आया कि उसे किसी पिचासी वर्ष आयु के वृद्ध विशम्बर नाथ जी का साक्षात्कार लेने जाना है। श्रुति के लिए थोड़ा आश्चर्य की बात थी क्योंकि उसने ये नाम प्रथम बार सुना था। गुप्ता जी वैसे भी आसानी से किसी का साक्षात्कार नहीं रखते थे। उसके मन में बड़ी जिज्ञासा थी कि ऐसी कौनसी बड़ी हस्ती हैं विशम्बर नाथ जी, जो गुप्ता जी उसको सारे काम काज छोड़कर उनसे मिलने और बात करने के लिए कह रहे हैं। श्रुति ने जब गुप्ता जी से ज्यादा कुछ पूछना चाहा तो उन्होंने सिर्फ विशम्बर नाथ जी का पता भेज दिया। 

अब श्रुति को कुछ समझ नहीं आया और फिर अब वो गुप्ता जी से भी ज़्यादा पूछताछ नहीं कर सकती थी। इसलिए उसने अपना झोला उठाया और चुपचाप चल पड़ी गुप्ता जी के बताए हुए पते पर। जीपीएस सेट किया था तो भेजा हुआ पता किसी वृद्धाश्रम का था। उसे कुछ भी नहीं समझ आ रहा था। किसी तरह वो वृद्धाश्रम पहुंच ही गई। जब वहां के संचालक से उसकी बात हुई तब उसको पता चला कि विशम्बर नाथ जी का भरा पूरा परिवार है,पत्नी नहीं है पर पांच बच्चे हैं वो पिछले छः महीने से इस आश्रम में रहने आए हैं। वृद्धाश्रम में जितने भी वृद्ध लोग हैं उनके घर से कभी न कभी कोई परिवार का सदस्य मिलने आता है पर उनसे मिलने कोई नहीं आता। पिछले दिनों जब उनकी तबियत खराब थी तब भी उनके बेटे को फोन लगाया पर वो नहीं आया। 

अब उन्होंने अपनी करोड़ों की संपत्ति जिसमे खेत और घर है, वो वसीयत में सरकार के नाम कर दिया है। साथ-साथ अपना शरीर भी मरने के बाद अनुसंधान के लिए लिख दिया है।अब श्रुति को सारी बात समझ में आने लगी। एक पिता जो अपनी औलाद के लिए अपना खून पसीना एक कर देता है, उसी औलाद के पास पिता के बुढ़ापे में एक मिनट का भी समय नहीं होता। 




अब श्रुति संचालक से इजाज़त लेकर विशम्बर जी से बात करना शुरू किया। सबसे पहले तो वे बहुत अचंभे में थे कि कोई उनसे भी मिलने आ सकता है क्योंकि जबसे वो इस आश्रम में आए हैं तब से कोई भी उनसे मिलने नहीं आया था। जब श्रुति उनसे मिली तो पता नहीं श्रुति को ऐसा लगा जैसे वो अपने दादाजी से बात कर रही है।विशम्बर जी ने श्रुति को बताया कि उनकी शादी बहुत कम उम्र में हो गई थी।

 उसके बाद उनके पांच बच्चे हुए। उन्होंने और उनकी पत्नी ने बच्चों को गांव में रहते हुए भी अच्छा जीवन दिया। वे दिन रात खेतों में मेहनत करते थे, पत्नी घर पर पूरा काम करती थी। साथ साथ वो अपने बूढ़े माता-पिता का भी ध्यान रखते थे। धीरे धीरे उनकी उम्र बढ़ी, बच्चे भी बड़े हो रहे थे। उन्होंने पांचों बच्चो को अपनी सामर्थ्य के अनुसार पढ़ाया-लिखाया। फिर उनकी शादी कर दी।जब तक पत्नी थी तब तक उनको दो वक्त की रोटी समय से मिलती रही। हालांकि बच्चे शादी के बाद अपनी ही दुनिया में मस्त हो गए थे।

पर आज से लगभग 22 साल पहले पत्नी के जाने के बाद वो अकेले रह गए। सभी बच्चे पत्नी के अंतिम संस्कार में आए और मेहमान की तरह रह कर चले गए। किसी ने ये भी नहीं कहा कि आप हमारे साथ चल कर रहो। मैं अकेला रह गया और अपनी रोटी, खाना सारे काम खुद ही करने लगा। जब भी बेटे को पैसों की जरूरत होती वो फोन करता। मैं तब भी मन ही मन सोचता अभी इसके बच्चें छोटे हैं,इसको पैसों की जरूरत है। आखिर मेरे सिवा इसका है ही कौन?




 वैसे भी ये हिंदुस्तान है,यहां औलाद भले ही माता पिता को ना रख पाए पर वो उनको ताउम्र पालने का हौसला रखते हैं। ये सिलसिला ऐसे ही चलता रहा। एक बार मैं बहुत बीमार पड़ा, पड़ोसी ने मेरे बच्चों को भी फोन मिलाया। मेरी तबियत का बताकर मेरे पास आने के लिए कहा। मेरे किसी भी बच्चे ने मेरे पास आना भी मुनासिब नहीं समझा। मैं बहुत ही स्वाभिमानी किस्म का इंसान हूं। ये सब बातें मेरे को बहुत परेशान करने लगी। मैं पड़ोसी का भी एहसान नहीं लेना चाहता था।

 मेरे को इस वृद्धाश्रम का पता चला तो मैं यहां आ गया। यहां मेरा इलाज़ हुआ, मेरे को अपने जैसे संगी-साथी मिले। यहां रहकर मेरे को अनुभव हुआ कि औलाद के पैदा होने के लिए माता-पिता हर तरह की मन्नतें मांगते हैं।अपनेआप चाहे अभाव में रहें पर बच्चों को दुनिया भर की खुशी देने की कोशिश करते हैं। मैंने यहां पर ऐसे माता-पिता भी देखें जिनके बच्चे बहुत बड़े-बड़े अफसर होने के बाद उनको यहां छोड़ गए। इतना सब होने पर भी वो अपने बच्चों की दुनिया के सामने भी प्रशंसा ही करते हैं।

 कई घटनाएं मैने ऐसी भी देखी जहां औलाद ने जीतेजी ही नहीं बल्कि मृत्यु के बाद भी माता-पिता के मृत शरीर को लावारिस छोड़ दिया।इन सब बातों से मेरा तो मन ही उचट चुका था। मेरे को लगा कि मोक्ष की आस ना करके मेरे को कुछ ठोस कदम उठाने पड़ेंगे।जिससे कम से कम मृत्यु के बाद तो मेरे को सद्गति मिल सके।बस फिर मैंने अपनी बीमारी और उम्र देखते हुए मन ही मन फैसला लिया और अपनी करोड़ो की जायदाद सरकार के नाम कर दी। 

साथ ही साथ मैंने अपने बच्चों को अपने अंतिम संस्कार से भी मुक्त कर दिया।मैंने अपनी वसीयत में अपना शरीर भी अनुसंधान के लिए दान कर दिया।अब वसीयत दान करने के बाद वो लोग मेरे से मिलने आए पर मैंने दिल को कठोर बनाकर अपना फैसला बदलने से मना कर दिया।




विशम्बर नाथ जी ने ये भी कहा कि मैंने ये फैसला इसलिए भी लिया कि माता-पिता आने वाली पीढ़ी की सोचकर खुद को दुख देते रहते हैं।अब तो हम लोगों को पुरानी मान्यताओं को त्याग कर वर्तमान में व्यहारिक बनकर जीने की कोशिश करनी पड़ेगी।उनकी बातें सुनकर श्रुति की आंखों में भी पानी आ गया। उसे याद आने लगा कैसे उसके बीमार होने पर उसके माता पिता पूरी पूरी रात जाग कर निकाल देते हैं। उसे घर पहुंचने में थोड़ी देर हो जाए तो मां दरवाज़े पर ही खड़ी मिलती हैं।कई बार वो इन सब बातों पर अपनी स्वतंत्रता में खलल समझ कर झल्ला भी जाती है पर आज उसको बरबस इन सब के पीछे मां-पिताजी का प्यार समझ आ गया। जब श्रुति की बातचीत पूरी हुई तब उसने विशम्बर नाथ जी के निर्णय की सराहना की और कहा कि आपने बिल्कुल सही फैसला लिया।अगर बुजुर्ग लोग अपनी भावनाओं को नियंत्रित करके थोड़ा अपने विषय में भी सोचना शुरू कर दें तो शायद कुछ औलादों को तो सबक मिल ही जायेगा।

आज श्रुति ने मन ही मन एक फैसला लिया कि सप्ताह के एक दिन वो भी इन लोगो को मिलने आया करेगी। उसने विशम्बर नाथ जी के साथ सारे वार्तालाप को साक्षात्कार के रूप में अगले दिन के समाचार पत्र में बुजुर्ग कोना करके जो स्तम्भ आता था उसमें प्रकाशित किया। उनकी कहानी पढ़कर बहुत लोगों ने उनके निर्णय की सराहना की। 

यहां तक की शहर के खास व्यक्ति सम्मान करने वाली एक संस्था ने भी किसी उद्योगपति और नेता के स्थान पर इस बार ये पुरुस्कार उनको देने की घोषणा की। वैसे तो औलाद द्वारा माता-पिता को बुढ़ापे में बेसहारा छोड़ने की खबर बहुत सामान्य होती जा रही हैं पर विशंबर जी द्वारा लिया गया निर्णय भी अपने आप में अनोखा था।




दोस्तों कैसी लगी आप लोगों को मेरी कहानी?मेरी कहानी का स्रोत हाल ही में असल जिंदगी में उत्तर प्रदेश के एक वृद्ध द्वारा अपनी वसीयत को लेकर की गई घोषणा पर आधारित है। इसको कहानी का रूप देने के लिए पात्रों और कथानक के साथ थोड़ी नाटकीयता रखी गई है। मेरे को स्वयं से ये लगता है कि श्रवण कुमार बनना हर किसी के बस की बात नहीं पर कम से कम हम अपने माता-पिता को एक भावनात्मक सहारा तो दे ही सकते हैं। वैसे भी ये तो जीवन संध्या तो हर किसी की जिंदगी में आनी है,हम जैसा बोएंगे वैसा ही काटेंगे। 

स्वरचित और मौलिक 

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

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