आत्मसम्मान – निभा राजीव”निर्वी” : Moral Stories in Hindi

ऋषि दवाइयों की दुकान पर सिरदर्द की दवा लेने पहुंचा। वहां पहले से ही एक छरहरी सी सुंदर युवती खड़ी थी। ऋषि ने जब दवा का नाम कहा तो केमिस्ट ने कहा,-” सॉरी सर, उस दवा की तो हमारे पास एक ही पत्ती थी जो मैंने इन मैडम को दे दी है।” 

ऋषि ने थोड़ा मायूस होकर मिन्नत करते हुए कहा , “-भैया, अगर आपके पास कोई और दवा हो तो दे दीजिए.. मेरा सिरदर्द से फटा जा रहा है।”

उसे इतनी पीड़ा में देख कर स युवती ने केमिस्ट से कहा, “- देखिए इस पत्ती में दस टैबलेट्स हैं.. आप पांच इन मिस्टर को दे दीजिए..इन्हें जरूरत है।”

ऋषि ने युवती की ओर कृतज्ञता की दृष्टि से देखकर मुस्कुरा कर उसका धन्यवाद किया। युवती ने एक बार उसकी ओर देखकर बिना मुस्कुराए बस सिर हिलाया और वापस जाने को मुड़ गई। उसके मुड़ते ही ऋषि का ध्यान गया कि वह युवती बैसाखियों पर थी। वह दाएं बाएं देखती हुई सड़क पार करने लगी। ऋषि ने आगे बढ़ते हुए कहा, “- क्या मैं आपकी मदद कर सकता हूं?”

पर उसे लड़की ने थोड़ी सख़्ती से कहा, “-जी नहीं, मुझे आदत है। मैं अपनी देखभाल स्वयं कर सकती हूं।” और वह खट खट करती बैसाखियों पर सड़क पार कर गई। उसके शुष्क व्यवहार पर ऋषि थोड़ा खिन्न तो हुआ, फिर भी वह कृतज्ञ अनुभव कर रहा था क्योंकि उस युवती ने दवाइयों की टेबलेट उसके साथ साझा की थी। वह घर आ गया। एक सैंडविच खाकर दवाई खाई और सो गया। 

         वह एक इंजीनियर था। नया-नया इस शहर में आया था। यहीं एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में उसकी नियुक्ति हुई थी। 

         शाम को नींद खुली तो उसने अपने लिए एक कॉफी बनाई और बालकनी में बैठकर चुस्कियां लेने लगा। तभी सामने की बालकनी पर दृष्टि गई तो देखा कि वही सुबह वाली युवती बालकनी से सूखे कपड़े उठाकर अंदर ले जा रही थी। उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई…’अच्छा तो मैडम सीरियस भी यहीं रहती है।’ दूसरे दिन सुबह ऑफिस जाते समय ऋषि ने देखा कि उस युवती के घर के सामने एक ऑटो आकर रुका और वह उसमें बैठकर चली गई। उसने कुछ ज्यादा ध्यान नहीं दिया, क्योंकि वह भी हड़बड़ी में था। वह ऑफिस के पहले ही दिन विलंब से नहीं पहुंचना चाहता था।

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नए ऑफिस का कार्य उसे रोचक लगा और उसका दिन अच्छा बीता। शाम को घर आकर उसने बाहर से खाना मंगवाया और खा पी कर सो गया। दूसरी सुबह उसने जब फिर से ऑफिस जाने के लिए बाइक निकाली तो देखा कि वह युवती परेशान सी खड़ी थी। आज ऑटो नहीं आया था उसका। ऋषि ने उसके पास जाकर कुछ नाटकीय अंदाज में कहा, “-जी क्या यह नाचीज़ आपके किसी काम आ सकता है?”

   युवती ने पलट कर देखा। वह पहले तो मना करना चाहती थी पर कोई चारा न देखकर हिचकिचाते हुए कहा, “-जी अगर आप मेरे लिए एक कैब बुक कर सकें तो प्लीज कर दें। मेरे फोन में सिग्नल नहीं आ रहा और आज मेरा ऑटो भी नहीं आएगा, उसमें कुछ खराबी आ गई है…”

 ऋषि ने मुस्कुराते हुए कहा, “- जी बिल्कुल…. बंदे का फोन हाज़िर है.. “

फिर उसने अपने फोन से उसके लिए कैब बुक कर दी और उसके साथ ही कैब के पहुंचने की प्रतीक्षा करने लगा। वह युवती बिल्कुल चुप थी और सामने शून्य में देखे जा रही थी। ऋषि ने चुहल भरे स्वर में कहा, “- मुस्कुराने के पैसे नहीं लगते हैं।” इस पर युवती ने सख़्ती से उसकी ओर देखा पर कहा कुछ नहीं। ऋषि ने कानों को हाथ लगाते हुए कहा, “-सॉरी…!”

 उसकी इस हरकत पर युवती के चेहरे पर मुस्कुराहट की हल्की सी झलक आ गई।

ऋषि ने कहा, “-जी हम एक ही सोसाइटी में रहते हैं। मेरा नाम ऋषि है और मैं इस शहर में नया-नया आया हूँ। और यहीं एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करता हूँ। क्या मैं भी आपका परिचय जान सकता हूँ?” 

“-जी मेरा नाम इला है और मैं यही पास के एक विद्यालय में शिक्षिका के तौर पर काम करती हूँ। युवती ने सीमित शब्दों में कहा। तब तक कैब आ चुकी थी। इला ने धन्यवाद करके कैब में बैठते हुए ऋषि से कहा, “-जी कल से मेरा ऑटो आ जाएगा, आपको परेशानी नहीं होगी।” 

ऋषि को भी ऑफिस के लिए देर हो रही थी। उसने मुस्कुराकर हाथ हिलाया और ऑफिस के लिए निकल गया। 

          उसके बाद से उन दोनों में ऑफिस निकलते समय अक्सर बातचीत शुरू हो गई। ऋषि बड़बोला था लेकिन इला अधिक बातें नहीं करती थी और अपने आप में सिमटी सी रहती थी। उसने बताया कि उसके पिता का बचपन में ही देहांत हो चुका था। फिर माँ ने दूसरों के कपड़े सी कर जैसे तैसे उसे पाला। इला बचपन से ही एक टांग से लाचार थी, फिर भी उसने लगन से अपनी पढ़ाई पूरी की फिर यहाँ विद्यालय में शिक्षिका के पद पर नियुक्त हो गई। पर 2 साल पहले माँ का भी लंबी बीमारी के कारण देहांत हो गया। तब से वह अकेली ही रहती है।

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हंसी मजाक और मौज मस्ती को समय नष्ट करने का साधन के अलावा कुछ नहीं मानती थी। एक रविवार ऋषि ने बहुत जिद कर दी कि वह उसके साथ कॉफी पीने चले। पहले तो इला ने बहुत मना किया पर ऋषि मायूस हो गया तो उसने हामी भर दी। दोनो जब कॉफी पीकर निकले तो सामने एक खिलौनों के खोमचे वाला खड़ा था। वहां से ऋषि ने एक बुलबुले बनाने वाला खिलौना खरीद लिया। इला के चेहरे से साफ स्पष्ट हो रहा था कि उसे ऋषि की हरकतें बहुत बचकानी लग रही हैं, पर उसने कहा कुछ नहीं। ऋषि चलते-चलते और बातें करते-करते बीच-बीच में बुलबुले बनाने लगा..

तभी एक बुलबुला जाने कैसे आकर उसकी नाक पर ठहर गया और कुछ देर हिलने के बाद फट गया। अचानक से इला खिलखिला कर हंस पड़ी। ऋषि अपलक उसकी ओर देखता रह गया। कितनी खूबसूरत लग रही थी वह… तभी इला ऋषि को इस प्रकार अपनी ओर देखता पाकर असहज हो गई।

ऋषि ने भी झट से दृष्टि फेर ली। फिर दोनों ने कैब ली और बातें करते-करते घर आ गए। अब कभी-कभी ऋषि इला को अपनी सोसाइटी के क्लब हाउस में कैरम खेलने के लिए जबरदस्ती ले जाने लगा। शुरू शुरू में तो वह मना करती थी पर बाद में वह भी खेलने के लिए और ऋषि से जीतने के लिए बहुत उत्साहित रहने लगी।ऋषि को पता ही नहीं चल पाया कि वह कब मन ही मन इला को चाहने लगा। लेकिन वह कभी भी इला से यह बात कहने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। 

एक दिन वह इला को उसके घर के दरवाजे तक छोड़ने गया था। आज उसने निश्चय कर लिया था कि वह जैसे भी हो अपने मन की बात कह कर रहेगा। अवसर पाकर उसने झट से सौम्य किंतु दृढ़ स्वर में इला से कह दिया, “- इला, एक बात कहनी थी मुझे तुमसे बहुत दिनों से…मैं..मैं…मैं बहुत प्रेम करता हूं मैं तुमसे और तुमसे विवाह भी करना चाहता हूं। मुझे कोई शीघ्रता नहीं है। तुम सोच समझ कर कल उत्तर देना।”

   फिर इस डर से कि इला कहीं नाराज़ न हो जाए वह उल्टे पांव बिना पीछे मुड़े और देखे अपने घर आ गया। पूरी रात आंखों आंखों में ही कट गई। ऋषि उहापोह में था कि इला की प्रतिक्रिया क्या होगी… 

         दूसरे दिन जब वे मिले तो इला ने शांत स्वर में बस एक वाक्य कहा, “-मुझे किसी की दया नहीं चाहिए ऋषि!”

          ऋषि ने तड़प कर कहा, “-इला ये दया नहीं है। मैं सचमुच बहुत प्रेम करता हूं तुमसे..”

   इला ने उसकी आंखों में देखते हुए कहा, “-हो सकता है तुम सच कह रहे हो ऋषि, पर ऐसा भी तो हो सकता है कि बाद में अपनी शारीरिक लाचारी के कारण धीरे-धीरे मैं तुम्हें बोझ लगने लगूं।”

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       ऋषि ने दृढ़ता से कहा, “- ऐसा कभी नहीं होगा इला!”

 इला ने कहा, “-हो सकता है ऐसा कभी न हो लेकिन यह भी हो सकता है कि कभी मेरे ही मन में यह विचार आ जाए कि मैं तुम्हारे लिए बोझ हूं और तुम विवशता में मेरे साथ रह रहे हो और फिर यह जीवन ही मुझे कठिन लगने लगेगा।….अच्छा एक बात बताओ ऋषि… क्या हर रिश्ते को बंधन में बांधना आवश्यक होता है..?

क्या मैं और तुम जीवन भर अच्छे दोस्त बनकर नहीं रह सकते..? मैं तो कछुए की तरह अपनी ही खोल में सीमित थी। हंसना मुस्कुराना तो जानती भी नहीं थी। तुमसे ही तो यह जीवन जीना सीखा है ऋषि! तुम्हारी संगत में मैं भी हंसना सीख गई हूं। यदि मैंने तुमसे विवाह कर लिया तो कहीं न कहीं मेरे आत्मसम्मान को ठेस पहुंचेगी शायद! इस रिश्ते को यूं ही रहने दो न ऋषि ! पावन… निर्मल… बंधनों से मुक्त… सदैव के लिए!!!

 ऋषि कुछ कहता उससे पहले इला मुड़कर अपने घर के अंदर जा चुकी थी। ऋषि ने इला का एक अलग ही रूप देखा… आत्मविश्वास की प्रतिमूर्ति.. सौम्य गरिमामयी इला!!! 

मन ही मन ऋषि इला के स्वाभिमान और आत्मसम्मान के प्रति नतमस्तक हो गया और इला ने जो फैसला आत्म सम्मान के लिए लिया उसका सम्मान करते हुए वह अपने घर की ओर बढ़ चला।

निभा राजीव”निर्वी” 

स्वरचित और मौलिक रचना

सिंदरी धनबाद झारखंड

#एक_फैसला_आत्मसम्मान_के_लिए

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