चेतना… संवेदना… ये भावनाएँ हर किसी को जन्म के साथ प्रकृति द्वारा कम या ज़्यादा मात्रा में प्रदान की जाती हैं… कोई भी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की चेतना, संवेदना को जितना समझता है, वह उस व्यक्ति के उतना ही करीब जाता है… समान दुःखी या समान विचारों वाले लोग जल्दी जुड़ जाते हैं क्योंकि उनकी चेतना, भावनाएँ शायद एक-दूसरे से तुरंत जुड़ जाती हैं… यह कहानी ऐसी ही एक चेतना की है, एक संवेदना की जिसे जुड़ने, समझने, जानने के लिए एक बहुत बड़ी परीक्षा देनी पड़ी…
डॉ. सुषेण क्षेत्रे, एक प्रतिष्ठित न्यूरो और स्पाइन सर्जन… अपनी बुद्धिमत्ता और ज्ञान के बल पर यशश्री को अपने गले में जयमाला पहनवाने वाले, लोकप्रिय और विनम्र डॉक्टर… कुछ हद तक भावुक… रोगियों के मस्तिष्क और तंत्रिका तंत्र की अति जटिल सर्जरी करने में कुशल, दूसरी बार सोचने की ज़रूरत नहीं पड़ने वाले इतने अभ्यस्त हाथ अब शाम को कॉफ़ी का अकेला कप उठाते समय काँपते थे… अपनी बेटी के लिए सब कुछ करते हुए अन्य सब कुछ भूल जाने वाले डॉक्टर, जब उनकी बेटी अपनी दुनिया में बहलने लगी तो कुछ असुरक्षित भावनाओं से ग्रस्त हो गए… उनकी पत्नी सुरभि, उनकी बेटी नीला के सिर्फ़ एक साल की उम्र में इस नश्वर दुनिया को छोड़कर, बाप-बेटी को एक-दूसरे के सहारे छोड़ गईं… नीला की दादी, सुरभि की माँ एक सहारे के रूप में साथ थीं… उन्होंने उस छोटी सी जान को बिल्कुल हृदय से लगाकर एक तितली की तरह पाला-पोसा, बड़ा किया…
दादी जिस तरह नीला के मन को समझती थीं, उसी तरह डॉक्टर के जीवन की उथल-पुथल को भी समझती थीं, और इसीलिए उन्हीं के आग्रह पर डॉक्टर अपनी परिचित स्त्री रोग विशेषज्ञ और आयुर्वेदिक नाड़ी परीक्षक डॉक्टर सुनैना के साथ विवाह बंधन में बंधने के लिए तैयार हो गए थे…
डॉक्टर पचास साल की उम्र में हाथ में वरमाला लेकर मंडप पर चढ़ रहे थे, यह उनकी अपनी बेटी, नीला को स्वीकार्य नहीं था… सभी ने उसे समझाया-बुझाया, लेकिन वह इस शादी के लिए राज़ी नहीं थी और इसीलिए वह मंडप के एक कोने में आखिरी कुर्सी पर निराश बैठी थी…
“इस उम्र में शादी की क्या ज़रूरत है… पिछले सोलह सालों में, मुझे संभालने के लिए बाबा को एक साधारण आया की भी ज़रूरत महसूस नहीं हुई और अब इस बुढ़ापे में शादी के ये चोंचले पूरे करके खुद के साथ मुझे भी शर्मिंदा कर रहे हैं… छी… मैं यहाँ आई ही क्यों और किसलिए यह सब देखना पड़ रहा है, भगवान जाने… बाबा के पास सब कुछ है… पैसा, प्रसिद्धि, यश, करियर… इन्हें क्या कमी है… मेरी शादी के बारे में सोचने के बजाय खुद का घर बसाने चले हैं…”
तभी उसके कंधे पर दादी के हाथ का ठंडा स्पर्श हुआ… नीला का हाथ पकड़कर उसके बगल की कुर्सी पर बैठते हुए दादी बोलीं… “नीलू बेटा… आई नो, तुम्हारे लिए यह सब स्वीकार करना कितना मुश्किल है… कि तुम्हारा बाबा अब तुम्हारा नहीं रहा, कि वह तुम्हारी माँ की यादों को मिटाकर उनकी जगह किसी और को स्थापित करना चाहता है… तुम्हें लग रहा होगा कि इस उम्र में बाबा स्वार्थी होकर अपने लिए नया संसार बसा रहा है… तुम्हारी परवाह किए बिना, तुम्हारे विचारों को गौण स्थान देकर अपने विचारों पर चल रहा है… लेकिन ऐसा नहीं है मेरी बच्ची…”
नीचे सिर झुकाए नीला की ठुड्डी पकड़कर ऊपर उठाते हुए, उसके गालों के चारों ओर बिखरे बालों की लट को कान के पीछे करते हुए दादी बोलीं…
“ज़िंदगी, कहो तो बहुत आसान है, लेकिन कहो तो बहुत मुश्किल भी है बच्ची… तुम्हारे बाबा के लिए ज़िंदगी ने दोनों रूप दिखाने का विचार किया होगा… तुम्हें संभालते हुए, तुम्हारा विचार करते हुए उन्हें ज़िंदगी आसान लगी, लेकिन जब उन्होंने क्षण भर के लिए अपना सोचा तो उन्हें वह मुश्किल लगने लगी… चेतना… बहुत गहरी बैठी होती हैं ये चेतनाएँ… जब कोई चीज़ हमारे साथ अपेक्षित या अप्रत्याशित रूप से घटती है, और साथ में सहारे का हाथ नहीं होता, और उसे अकेलेपन की भावना होती है, तो इंसान टूट जाता है… और इसीलिए सहारा बहुत महत्वपूर्ण होता है… तुम्हें ये बातें अभी नहीं समझ आएंगी, छोटी हो तुम… लेकिन हाँ, जब समझ आएंगी तो मुझे यकीन है तुम अपने बाबा को फिर से पहले जैसा देखोगी…”
दादी की बातों से नीला का मूड कुछ हद तक ठीक हुआ… लेकिन फिर भी चेहरे पर वह खुशी नहीं थी… वह अपनी नई माँ को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी… खाना खाते समय नई माँ का चेहरा देखकर नीला और भी उदास हो गई…
शादी का समारोह बिल्कुल शांति और व्यवस्था के साथ संपन्न हुआ… नज़दीकी पचास-पचास लोगों के बीच अत्यंत सादगी से आवश्यक रस्में पूरी की गईं… पूरी शादी में डॉक्टर का ध्यान सिर्फ़ अपनी बेटी पर था… उसने अनिच्छा से स्वीकृति दी थी, फिर भी उसकी आँखों में नाराज़गी दोनों को दिखाई दे रही थी…
दुल्हन सुनैना, यानी नीला की नई माँ… बहुत मिलनसार, शांत और स्थिर स्वभाव की थीं… उन्हें जानने से पहले ही नीला ने उनसे बात करना, उनसे मिलना टाल दिया था… उम्र में पैंतालीस की होने पर भी नीला की बड़ी बहन जैसी दिखने वाली सुव्यवस्थित शरीरयष्टि, चेहरे पर आनंदित, प्रसन्न भाव और सकारात्मक देहबोली के कारण सभी का ध्यान आकर्षित करने वाली सुनैना ने उसका मन जीतने के लिए कई बार नीला से मिलने, उसे कुछ देने के बहाने घर आई, लेकिन नीला हर बार दादी से घर पर न होने का झूठा संदेश भेजकर खुद कमरे में गुस्से से नाक फुलाए बैठी रहती थी… बाबा ने सिर्फ़ उसका शरीर और आकर्षण देखकर उससे शादी की है, यह दृढ़ विचार उसके मस्तिष्क ने कसकर पकड़ रखा था… उसे इस विचार के आगे कुछ भी नहीं सूझता था… बाबा के ऐसा निर्णय लेने के बाद से दिन-ब-दिन वह अकेली बैठी रहती थी, या रचना के घर पढ़ाई के बहाने चली जाती थी… दादी ने कई बार उससे बात करने का असफल प्रयास किया था…
शादी के दूसरे ही दिन सुनैना ने नीला के पसंद का नाश्ता और खाना बनाकर रखा… डॉक्टर का टिफिन भरकर बंधू के हाथ गाड़ी में रखवा दिया… नई शादी के बाद वास्तव में जितना ध्यान पति पर होना चाहिए उससे ज़्यादा ध्यान सुनैना का नीला पर था… लेकिन वह सुबह ही प्रैक्टिकल के लिए निकल गई थी… सुनकर सुनैना को बुरा लगा लेकिन वह इतनी जल्दी हार मानने वाली नहीं थी… उसने शादी भले ही डॉक्टर से की थी लेकिन उसमें माँ का भाव प्रबल रूप से जागृत हो गया था… नीला एक बार मन से माँ कहकर पुकारे, साल भर के बच्चे को छोड़कर चली गई माँ का स्पर्श, स्नेह और ममता की गर्मी उसे मिले, इसलिए सुनैना की कोशिश जारी थी… “कोई बात नहीं” मन में सोचकर सब निपटाकर वह बंगले के सामने बगीचे में झूले पर पढ़ने के लिए किताब लेकर बैठ गई… दोपहर के दो बजे थे…
“किसी भी रिश्ते को पनपने में समय लगता है… जैसे बीज मिट्टी में अंकुरित होता है, कोंपल फूटती है, लता बढ़ती है और फिर उस पर फूल खिलते हैं, वैसे ही रिश्तों का भी… दिल का पानी सींचकर छोटे-छोटे संबंधों के अंकुरों को प्यार से सींचा जाए तो भी समय देना पड़ता है… तभी रिश्तों की लताओं पर अपनत्व, आनंद और प्रेम के फूल खिलते हैं…”
पढ़ते समय स्कूटी की आवाज़ आई… देखा तो नीला थी… सामने नई माँ को देखकर एक कुटिल मुस्कान के साथ वह अंदर चली गई… खाने के लिए रुकी हुई सुनैना उसके पीछे-पीछे गई, तभी नीला की आवाज़ सीढ़ियों से आई… “बंधु काका, खाना बेडरूम में ला देंगे क्या प्लीज़…”
एक के बाद एक ऐसे ही दिन बीतते रहे… डॉक्टर और सुनैना के रिश्ते में अच्छी बहार आ गई थी… शादी से पहले कुछ हद तक अस्पष्ट व्यवहार करने वाले डॉक्टर अब बहुत आत्मविश्वास से भरे लग रहे थे… अंकुर नहीं फूट रहा था तो सिर्फ़ सुनैना और नीला के रिश्ते में… सुनैना मन से प्रयास कर रही थी लेकिन नीला उसे कोई प्रतिसाद नहीं दे रही थी… बाबा के साथ अब पहले की तरह बात करने लगी थी, लेकिन उसका ज़्यादातर समय बाहर ही बीतता था… जानबूझकर पढ़ाई और अन्य गतिविधियों में उसने खुद को व्यस्त कर लिया था…
कई दिनों से नीला के कॉलेज के रास्ते में एक गुंडागर्दी करने वाला रोमियो उसका पीछा कर रहा था… बाबा और नई माँ की उलझन में उसने इस पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया था… रचना को पता था, लेकिन वह कर भी क्या सकती थी…? उसमें उसका डरपोक स्वभाव… नीला वैसे तो डैशिंग थी लेकिन उसकी भी कुछ सीमाएँ थीं…
एक दिन जब ये दोनों स्कूटी से जा रही थीं तो उन्हें रोककर उस गुंडे ने हद ही कर दी… यह तो सिर्फ़ शुरुआत थी… नीला ने आँखों में आँखें डालकर गुस्सा दिखाया तो वह चला गया… लेकिन “क्या डेरिंग छोकरी है यार” कहते हुए उसे और भी बढ़ावा मिला… दिन-ब-दिन वह उसका पीछा करने, छेड़खानी करने, इशारे करने जैसी हरकतें करने लगा… नीला इतनी आसानी से डरने वाली नहीं थी…
सिर्फ़ कॉलेज के बाहर पीछे-पीछे करने वाला गुंडा अब नीला जहाँ दिखती वहाँ उसका पीछा करने लगा… एक बार रचना और नीला स्कूटी से साथ आ रही थीं तो बाज़ार में सुनैना ने दोनों को देखा… चिंताजनक पूछताछ के रूप में सुनैना ने थोड़ा पीछा करने की कोशिश की… बगल से ही दो आवारा लड़के शोर मचाते हुए बाइक से जा रहे थे, सुनैना ने देखा… जाते-जाते बिना किसी कारण के वहाँ से गुज़र रहे एक आवारा कुत्ते के पेट में लात मारकर राक्षसी हँसी हँसते हुए आगे बढ़ गए… उस बेज़ुबान की तड़प देखकर सुनैना के दिमाग़ में गुस्सा आ गया, लेकिन उसे नीला और रचना पर ध्यान देना था… उनमें से एक लड़का नीला को देखकर उतरा और बिना किसी कारण के ऊपर-ऊपर से छेड़खानी करने लगा… वह वही गुंडा था… सुनैना क्रोधित हो गई, लेकिन तभी नीला ने स्कूटी पर बैठकर अस्थायी रूप से अपनी जान बचाई थी… घर पहुँचने पर सुनैना ने नीला से इस बारे में पूछा… इस पर “आई एम ओके… नो नीड टू इंटरफेअर” ऐसा जवाब दिया… ऐसे ही कुछ दिन बीत गए…
उस दिन प्रैक्टिकल ज़रा जल्दी ही ख़त्म हो गया और रचना के साथ नीला कॉलेज के बाहर निकलने ही वाली थी कि वह रोडरोमियो उसके सामने आ गया… वह रास्ते से हटकर घर के रास्ते पर चलने ही वाली थी कि पीछे से उसकी आवाज़ आई “अरे नीलू डार्लिंग… इतना भी क्या भाव खाना”… ऐसा कहते हुए उसके कान के नीचे सटाक से आवाज़ आई… मुँह पर उंगलियाँ गिनी जाएँ तो शायद पाँचों उंगलियों की छाप दिखती इतनी ज़ोर से उसके गाल पर नीला का थप्पड़ पड़ा… सबके सामने उसकी कॉलर पकड़कर उसने उसे खरी-खरी सुनाई…
“कौन कहाँ का तू गुंडा, मेरे पीछे हमेशा मंडराता रहता है, तुझे शर्म नहीं आती? क्या तेरी भाषा, क्या तेरा रहन-सहन… और क्या रे, क्या सीखा है तू??? शिक्षा क्या है तेरी??? कॉलर ऊपर करके गर्दन और हाथ पर टैटू बनवाकर घूमने से बहुत कूsssssल हो जाते हैं क्या? तेरी वैचारिक स्तर क्या है…? ये ऐसे चितकबरे कपड़े पहनकर क्या छाप पड़ती है किसी पर? इसी से तेरी बुद्धि दिखती है… जानवर अच्छे हैं तुझसे… चल, चल हट मेरी राह से और फिर कभी दिखना मत… निकलsss” कहते हुए नीला गुस्से से लाल होकर स्कूटी से निकल गई… सब देखते ही रह गए…
इस बीच वह कहीं दिखाई नहीं दिया… नीला ने राहत की साँस ली, लेकिन उसकी यह खुशी ज़्यादा देर टिकने वाली नहीं थी… कुछ बातें भाग्य में लिखी होती हैं, उन्हें टालने की कितनी भी कोशिश की जाए, संभव नहीं होता… भाग्य की देहली पर खड़े होकर कभी-कभी सामने परोसे गए को बंद मुँह से सिर्फ़ देखते रहना पड़ता है…
“बाबा, मैं आज जल्दी आऊँगी घर, मुझे सिर्फ़ चार लेक्चर हैं… पाँच बजे तक आ जाऊँगी… आप भी जल्दी आएंगे क्या?” सीढ़ियों से उतरते हुए नीला ने ज़ोर से आवाज़ लगाई… “देखता हूँ बेटा, मैं ज़रूर कोशिश करता हूँ…” बाबा… “क्या बाबा… आइए ना जल्दी, आइसक्रीम पार्लर चलते हैं हम…” कहते हुए नीला कॉलेज के लिए निकल गई…
बाहर जाकर स्कूटी को किक मारी लेकिन वह चालू होने का नाम ही नहीं ले रही थी… काफ़ी देर तक मशक्कत करने के बाद भी स्कूटी चालू नहीं हुई तो उसने रिक्शा से जाने का फैसला किया… तभी रचना का फ़ोन आया… तबीयत ठीक न होने के कारण वह आज नहीं आ रही थी… “कोई बात नहीं… कोई हर्ज़ नहीं” कहते हुए नीला कॉलेज पहुँची… शनिवार होने के कारण विद्यार्थी भी कम ही थे… लेक्चर ख़त्म करके वह घर जाने की तैयारी में थी…
कॉलेज के बाहर निकलते ही रिक्शा का इंतज़ार करते समय नीला को याद आया कि आज बाबा को मैंने ही जल्दी घर बुलाया था… और अगर मुझे ही देर हो गई तो क्या होगा… बेचारा मेरे लिए ज़रूरी काम छोड़कर दौड़ा-दौड़ा आएगा… और आज ठीक से रिक्शा भी इधर नहीं दिख रहे… क्या करूँ, क्या करूँ? आख़िरकार हाँ ना करते-करते वह पैदल ही निकल पड़ी… आगे रास्ता वैसे तो भीड़भाड़ वाला था, लेकिन कॉलेज निसर्ग रमणीय स्थान पर बना होने के कारण शुरू में कुछ दूरी तक घना जंगल और झाड़ियाँ थीं… निकलते-निकलते लगभग सारी भीड़ कम हो गई थी…
सोचते-सोचते नीला रास्ते पर चली जा रही थी… कुछ दूर चलने के बाद दूर से बाइक की आवाज़ पास आती रही… आवाज़ की दूरी पर आने के बाद उस बाइक ने नीला का रास्ता रोक लिया… वह वही था… नीला के हाथ का थप्पड़ खाकर ज़्यादा बिगड़ा हुआ, ज़्यादा बेफ़िक्र…
“बाजू हट…”
“नहीं हटूंगा।”
“सीधे से सुन, नहीं तो…”
“नहीं तो क्या…” गाड़ी से उतरते हुए उसने पूछा… “पीछे हट, मैं कह रही हूँ…”
“नीला……, ऐ, सुन ना…… मेरी सुन ले…… मैं सुऱ्या…. मतलब सुरेश…. कॉलेज के पीछे के हिस्से में रहता हूँ…… मेरे बाप का भंगार का बिजनेस है…… मैं ऐसा दिखता हूँ लेकिन पैसे वाला हूँ मैं…… लखपति हूँ ….. मुझसे लवशिप कर ले ना…… मुझे बहुत पसंद है तू…… शादी का देखेंगे आगे…”
“शादी, और तुझसे…… छी…. तूने सोचा भी कैसे ऐसे रिश्ते का…… तेरा मेरा क्लास बहुत अलग है…. समझदारी से पेश आ…..” नीला ने कुटिल और फिर समझाने वाले स्वर में कहा…
तभी वह घुटनों पर बैठकर रोने लगा……
“सुन ना नीलू, प्लीज़ मुझे प्यार कर ना…. दोस्ती तो कम से कम कर ना मुझसे”
नीला को घिन आने लगी, उसने उसे अनदेखा करके दो कदम आगे बढ़ाए ही होंगे कि चीखने की आवाज़ आई…
“दो कौड़ी की औकात नहीं तेरी, तू मुझे लांघकर आगे चली गई…” विकृत हो चुका सुऱ्या बदले की आग में जल रहा था… उसने उसके बालों को कसके पकडकर उसे पीछे खींचा… नीला दर्द से ज़ोर से चीखी… लेकिन वहाँ उसकी आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं था… उसने वैसे ही बाल पकड़कर उसे जंगल की ओर खींच लिया… हाथ में लगे एक पेड़ को पकड़कर उसने खुद को खींचने से बचाने की कोशिश की लेकिन उसमें उसकी टॉप का कपड़ा फटकर अटक गया…
सुऱ्या उसे अंदर जंगल में ले गया… आसपास घना जंगल होने और भीड़भाड़ कम होने के कारण उसकी चीख का कहीं से कोई जवाब नहीं आ रहा था… डरी हुई नीला खुद को छुड़ाने की पूरी कोशिश कर रही थी, लेकिन उसकी कोमल उम्र की ताक़त के आगे मज़बूत छब्बीस साल का सुऱ्या भारी पड़ रहा था… उसने उसके हाथ उसके गले के स्कार्फ़ से बाँध दिए… वह हिल भी नहीं सकती थी इतनी बुरी तरह उसने उसे लात-घूँसों से घायल कर दिया… वह चीखती रही… आख़िरकार… उसका होश खोने लगा….. लेकिन जब बात इज़्ज़त पर आई तो उस क्षण शरीर की सारी कमज़ोरियाँ इकट्ठा करके उसने दर्दनाक चीख मारी…… दुर्भाग्य से उसकी चीख किसी तक नहीं पहुँची… नीला की भींची हुई मुट्ठियाँ और सिकुड़ा हुआ शरीर, कमज़ोर पड़ चुकी ताक़त के साथ ज़मीन पर गिर पड़ा था…
इधर घड़ी में सात बजने को आए फिर भी नीला क्यों नहीं आई, इसलिए दादी और सुनैना बेचैन हो गईं… डॉक्टर अभी तक घर नहीं आए थे, उन्हें फ़ोन लगाया तो वे उठा नहीं रहे थे… दोनों को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें… रचना को फ़ोन किया तो उसने कुछ भी पता न होने की बात कही… आख़िरकार न रह पाने पर सुनैना गाड़ी की चाबी लेकर नीला के कॉलेज के रास्ते पर निकल पड़ी… कॉलेज में पूछताछ किससे करें…..? सब घर भी पहुँच चुके थे… सुनैना वैसे ही नीला के रोज़ के रास्ते पर खोजती हुई निकल पड़ी… मन में तरह-तरह की आशंकाएँ घूमने लगीं… तभी टिटहरी बोली… सड़क के किनारे चलते हुए सुनैना को कुछ चमकता हुआ दिखाई दिया… उतरकर देखने पर वह निश्चित रूप से नीला की सैंडल थी… सुनैना का हौसला टूट गया… वह धम्म से नीचे बैठ गई तो उसका ध्यान सामने के पेड़ पर गया… पेड़ की लकड़ी में कपड़े का टुकड़ा मिला…
“हाँ, आज नीला ने पीले रंग का ही ड्रेस पहना था…” अब तो सुनैना के पैरों तले की ज़मीन खिसक गई… वह पागलों की तरह नीला को इधर-उधर खोजने लगी… लगभग एक किलोमीटर दौड़ने के बाद उसे पास ही कराहने की आवाज़ आई… पीछे मुड़कर देखते ही “नीलाssssssss” कहकर सुनैना ने चीख मारी……
जैसे किसी कोमल, नाज़ुक हिरण के नीच, जंगली भेड़िये ने लहूलुहान टुकड़े तोड़े हों… सुकुमार, सुंदर गुलाब के फूलों पर टिड्डियों का झुंड आए और विध्वंस करे, किसी सुंदर सपने का भाग्य रक्तरंजित सत्य से सना हो, उसी तरह नीला के इज्जत और मन के उस दरिंदे ने टुकड़े-टुकड़े कर दिए थे… नीला की नाड़ी, धड़कन और साँसें जाँचते हुए, सुनैना ने डॉक्टर को फ़ोन लगाने की कोशिश की, लेकिन झाड़ी घनी होने के कारण उन्हें फ़ोन नहीं लगा… आख़िरकार जलती हुई रणचंडी ने अपनी बेटी को दोनों बाहों में उठाकर संघर्ष करते हुए वहाँ से निकल पड़ी… ऐसी स्थिति में समय सबसे बड़ा दुश्मन होता है… नीला का समय पर इलाज नहीं हुआ तो क्या होगा, यह कल्पना पीछे छोड़कर सुनैना अपने शरीर की पूरी ताक़त से उसे लेकर गाड़ी के पास आई… उसके चेहरे पर पानी के छींटे मारते हुए उसकी प्रतिक्रिया जानने की कोशिश की… वह कुछ बोलने की कोशिश कर रही थी… तभी सुनैना ने उसे गाड़ी में बिठाया और जितनी तेज़ी से हो सका डॉक्टर के पास लेकर निकल पड़ी… बेटी की हालत देखकर बाप टूट गया… “ब्लड प्रेशर बहुत बढ़ गया है उनका… हार्ट को प्रॉब्लम हो सकती है” कहते हुए नर्स डॉक्टर को व्हीलचेयर पर बिठाकर बीपी देखने लगीं… घबराकर उनके मुँह से शब्द नहीं निकल रहे थे…
इधर सुनैना ने नीला का इलाज भी शुरू कर दिया था… सामान्य जाँचों की रिपोर्ट और रिपोर्ट ३७६ उचित गोपनीयता बरतते हुए औपचारिकताओं के साथ पूरी कर ली गईं… नीला को कम से कम चार दिन तक देखरेख और निगरानी में रखना ज़रूरी था… उन चार दिनों में सुनैना ने नीला की हर तरह से देखभाल की और उचित इलाज किया…
चौथे दिन नीला को होश आया… लेकिन उसकी उठने, होश में आने की इच्छा नहीं थी… उस भयानक घटना को याद करते ही उसके शरीर पर लगातार सिहरन दौड़ रही थी… वह बिस्तर पर पड़ी थी… आज इंटेंसिव केयर यूनिट (ICU) से घर ले जाने की तैयारी चल रही थी… नज़दीकी और आसपास के परिचितों को गंभीर दुर्घटना का कारण बताकर सुनैना ने कुछ समय के लिए सबके मुँह बंद कर दिए थे… वह जानती थी कि इतने प्रतिष्ठित डॉक्टर की इकलौती बेटी के साथ ऐसी घटना होना यानी उस लड़की के साथ घर के सभी लोगों का जीना हराम… सुनैना हार मानने को तैयार नहीं थी…
घर आने के बाद शाम को नीला उठकर बैठने की कोशिश कर रही थी तभी सुनैना जल्दी से उसके लिए खाने की थाली लेकर आई… “नीला, बेटा, चल खाना खा ले” कहते हुए उसने कौर उठाया लेकिन नीला ने सुनैना के हाथ की थाली समेत सब कुछ हवा मे उछाल दिया…
“तू क्यों आई है मेरी ज़िंदगी में… कौन है तू मेरी… मैं क्या लगती हूँ तेरी?… क्यों झूठा स्नेह, झूठा प्यार दिखा रही है?… क्यों कर रही है मेरे लिए यह सब… इस सब से मैं तुझे माँ के रूप में स्वीकार करूँगी – यह कभी नहीं होगा… तू आई और मेरी ज़िंदगी बर्बाद हो गई… मेरा जीना मुश्किल हो गया है, और तुझे खाने की पड़ी है… जा यहाँ से, मुझे नहीं चाहिए तू यहाँ…”
सुनैना के हाथ जम गए, आँखों में आँसू तैर आए… लेकिन हृदय की भावनाओं को छुपाते हुए वह डाइनिंग टेबल के पास आकर बैठ गई… वह जानती थी कि नीला को उससे गुस्सा नहीं है… परिस्थिति का, उसके साथ हुई भयानक घटना का गुस्सा वह उसपर निकाल रही है और इसमें उसकी कोई गलती नहीं है…
खुद को संभालते हुए वह बाहर आकर डॉक्टर को खोजने लगी… चार दिन सिर्फ़ नीला के लिए अस्पताल में बिताने वाले डॉक्टर एकटक शून्य में देखते हुए, हॉल में बैठे, कहीं विचारों में खोए हुए थे… सुनैना ने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा… तबीयत ठीक है ना?…
“हाँ… कल सुबह जाकर ही एफआईआर फाइल करते हैं…”
“डॉक्टर मेरी सुनिए…”
“तुम्हारे पास सारे रिपोर्ट हैं ना?”
“नहीं डॉक्टर हम कहीं नहीं जा रहे हैं…”
“मैं अपने पीएसआई दोस्त को फ़ोन लगाता हूँ अभी”
“डॉक्टर………” सुनैना ज़ोर से चिल्लाई, तो डॉक्टर होश में आए…
“नीला के साथ क्या हुआ है, यह बात इस घर से, इन चार दीवारों के बाहर नहीं जानी चाहिए… हम कोई शिकायत नहीं करेंगे… और यह मेरा निर्णय है जो सभी को मानना ही होगा…”
गुस्साई हुई बाघिन की तरह सुनैना गरज उठी…
“लेकिन मैं बाप होकर चूक गया ना” कहते हुए बेबस होकर डॉक्टर घुटनों पर बैठ गए…
उनके सामने सुनैना भी बैठ गई… डॉक्टर का हाथ अपने हाथ में लेकर बोली…
“नहीं डॉक्टर… आप नहीं चूके… गलती उस नियति की है… लेकिन अब उसका सामना मुझसे है… मैं नियति को उसके निर्णय बदलने पर मजबूर कर दूँगी…”
“अब सिर्फ़ एक काम कीजिए… पुणे के फार्महाउस में माँ, नीला और मेरे रहने की व्यवस्था कर दीजिए… कुछ दिन वहाँ रहकर नीला पूरी तरह ठीक होने के बाद मैं उसे यहाँ ले आऊँगी…”
“अरे, लेकिन उसने अभी तक तुम्हें स्वीकार नहीं किया है…”
“लेकिन मैंने तो स्वीकार किया है ना उसे… उसकी परेशानियाँ, उसका गुस्सा, उससे दूसरा ही सही, लेकिन माँ का रिश्ता… मैंने स्वीकार किया है… और मैं उसे निभाने के लिए तैयार हूँ… मेरी चेतना जिस क्षण उसके हृदय तक पहुँचेगी, उस क्षण वह मुझे भी स्वीकार करेगी, इसका मुझे यकीन है…”
नीला यह सब सुन रही थी…
दूसरे ही दिन सुबह गाड़ी में बंधु ने सारा सामान ठीक से भर दिया… नीला, दादी और सुनैना फार्महाउस की ओर निकल गईं…
आगे महीने भर सुनैना ने नीला की प्यार से, शांति से सेवा और देखभाल की… नीला भी चुपचाप सब करवाती रही… उसे बहुत अकेलेपन का एहसास हो रहा था… शरीर पर हुए घावों से ज़्यादा मन के घाव गहरे थे… उसे मानसिक सहारे की बहुत ज़रूरत थी… दादी पूरे समय उसके साथ थीं, लेकिन नीला की भावनात्मक सहारे की ज़रूरत उम्र के कारण दादी पूरी नहीं कर पा रही थीं…
बारिश के दिन थे… नीचे कोच पर बैठी सुनैना को अचानक कुछ याद आया… वह दौड़कर नीला के पास आई… उसने प्यार से पूछा, “तुम्हारी आखिरी डेट कब थी?”
इस प्रश्न का उद्देश्य समझते ही डरकर नीला रोने लगी… सुनैना ने नीला की कलाई पकड़कर नाड़ी परीक्षण किया और एक बार फिर उसकी धड़कन चूक गई… दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखते ही अनहोनी का इशारा नीला को समझ आ गया… नीला ने क्षण भर में “माँ” कहकर चीखते हुए सुनैना की कमर में लिपट गई… सुनैना के आँसू नहीं रुक रहे थे… वह नीला को कुछ कहने ही वाली थी कि उसे चक्कर आने लगे, तो सुनैना ने उसे संभालते हुए बिस्तर पर ठीक से सुला दिया… उसकी दवाइयाँ निकालकर रख दीं… दादी को उसके पास बैठाकर सुनैना पीछे आँगन में गई और कुछ देर सोचने के बाद डॉक्टर को फ़ोन लगाया…
“डॉक्टर, हमें यहाँ का वास्तव्य बढ़ाना पड़ रहा है”
“क्यों? क्या हुआ… नीला ठीक है ना?”
“हाँ, इधर सब ठीक है… मैं शनिवार को उधर आऊँगी तब विस्तार से बात करेंगे…”
“अरे लेकिन… ठीक है…”
नीला के जगने पर वह फूट-फूटकर रोने लगी… दादी को यह बात समझ आने पर दादी उसे सांत्वना देने लगीं लेकिन नीला शांत नहीं हो रही थी…
“नीला, तुम्हें मैं जो कुछ भी बताने वाली हूँ, उसे तुम माँ के रूप में नहीं बल्कि एक दोस्त, एक डॉक्टर के रूप में सुनो…” सुनैना उसे पास लेते हुए बोली…
“यह वही था ना जिसके बारे में मैंने तुमसे पूछा था?”
नीला ने हाँ में सिर हिलाया…
“जो हुआ, उस पर किसी का ज़ोर नहीं था, जो होने वाला था, वह होकर रहा… लेकिन आगे जो होने वाला है उस पर हमारा नियंत्रण होगा… मेरे विचार तुम्हें नहीं अच्छे लगे या अच्छे लगे फिर भी तुम्हारे मन में क्या है यह मुझे मन से बताना मेरी इच्छा है…”
“तुम्हारे साथ जो बुरा हुआ, उसमें तुम्हारे पेट में पल रहे बच्चे की कोई गलती नहीं है… उसे जन्म लेना चाहिए या नहीं यह निर्णय भी उस जीव के हाथ में नहीं है… और इसीलिए उस निर्दोष बेज़ुबान जीव को उसके जीने के अधिकार से वंचित करने के बजाय हम उसे अपना मानकर पालेंगे…”
“लेकिन यह बच्चा मेरा नहीं है… उस गंदे, विकृत दरिंदे का पाप है यह…” नीला धीरे से लेकिन चिढ़कर बोली…
“हाँ, लेकिन बढ़ने वाला अंश सिर्फ़ एक ही तरफ़ के अंशदान से नहीं होता… उसमें तुम्हारा भी अंश है… उसमें आगे तुम ही जान डालोगी… मुझे पता है तुम इस सब के लिए तैयार नहीं हो, लेकिन मैं तुम्हारा अगला जीवन इस निर्दोष जीव के शाप पर नहीं जीने देना चाहती… आगे क्या करना है यह तुम मुझ पर छोड़ दो… तुम सिर्फ़ इस बच्चे को जन्म दो…”
नीला तैयार हो गई… वह वास्तव में, सही-गलत, पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा इन सबका विचार करने की मनःस्थिति में नहीं थी… सुनैना को अनाप-शनाप बोलकर हुई घटना के लिए बिना कारण ज़िम्मेदार ठहराने का पछतावा नीला के मन में था…
अगले शनिवार-रविवार को नीला को दादी के पास छोड़कर, उचित सुरक्षा व्यवस्था लगाकर सुनैना डॉक्टर से मिलकर आई… अप्रत्याशित सदमे से डॉक्टर भी विचलित हो गए… उन्हें संभालते हुए सुनैना सोमवार को एक पालतू ग्रेहाउंड कुत्ते के जोड़े सहित कुछ ज़रूरी सामान लेकर फिर फार्महाउस पर आई…
आते ही नीला की तबीयत की पूछताछ करते हुए उसे, उसके आगे के दिनचर्या और डाइट के नियम और महत्व समझाए… साथ ही सोलो और ब्लूम इन दोनों कुत्तों का परिचय और उनके साथ रहने के कारण, महत्व उसे बताया… सोलो और ब्लूम दोनों नीला के साथ रहेंगे, उसकी देखभाल, रक्षा और मूड ठीक रखने में वे दोनों मदद करेंगे, यह उम्मीद सुनैना को थी…
दिन बीतते गए… डॉक्टर बेटी से मिलकर जाते रहते थे… सुनैना मन से नीला की देखभाल करके उसकी सारी परहेज और खानपान का ध्यान रखती थी… नीला मन से सुनैना के करीब जा रही थी… सोलो और ब्लूम अपना काम बखूबी निभा रहे थे और नीला को भी उनसे लगाव हो गया था… रोज़ रात को सोते समय और सुबह उठने के बाद सुनैना के “मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूँगी… तुम्हारी नित्य देखभाल करूँगी और तुम्हारे लिए सब कुछ करूँगी… मैं तुम्हारे साथ हूँ” इस आश्वासन से नीला की रात की शांति और दिन में जीने की उम्मीद हमेशा जीवित रहती थी… लेकिन फिर भी आगे क्या, भविष्य में क्या होगा…? होने वाले बच्चे का क्या भविष्य…? बच्चे ने पिता के बारे में पूछा तो क्या बताऊँगी? ये सारे प्रश्न नीला के विचारों को परेशान कर रहे थे… सुनैना लगातार शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक हर तरह से नीला का साथ और सहारा दे रही थी… उसके पेट में पल रहे अंश के लिए उसे खुश और स्वस्थ रहना अनिवार्य है, इस दृष्टि से दादी और सुनैना हर तरह से देखभाल कर रही थीं…
गर्भावस्था के महीने पूरे होते ही नीला ने वहाँ के नज़दीकी प्रसूति गृह में एक प्यारी सी बच्ची को जन्म दिया… सुनैना ने उचित अनुमति प्राप्त करके स्वयं सुयोग्य प्रसूति करवाई और दोनों को सुरक्षित रूप से किसी भी खतरे से दूर रखा… डॉक्टर मिलने आए… सुनैना और डॉक्टर खुश थे… लेकिन नीला की आँखों में अलग भाव थे… नीला के सिर पर हाथ रखते हुए सुनैना बोली… “इसका नाम “उर्वी” रखेंगे… उर्वी शब्द का अर्थ है दो बहुत दूर की चीज़ों के बीच की दूरी… जो हम दोनों के बीच थी… इसके आने से वह खत्म हो गई…” परिस्थिति के अन्याय से समय से पहले परिपक्व हुए चेहरे से नीला ने हाँ में सिर हिलाया…
घर आने के बाद दादी और सुनैना, बच्चे की व्यवस्था करने में व्यस्त हो गईं… लेकिन नीला का ध्यान कहीं और था… वह अपनी ज़िंदगी खुलकर जीना चाहती थी… पढ़ना चाहती थी… बाबा की तरह नाम कमाना चाहती थी… उर्वी के आने से यह संभव नहीं था… पूर्व जीवन की बुरी घटनाओं को उसने बहुत मुश्किल से पचाया था और अब इतनी कम उम्र में कुँवारी माँ बनने की घटना वह कैसे पचाएगी… विचारों में खोई हुई थी कि नीचे ब्लूम और सोलो के भौंकने की लगातार आवाज़ आ रही थी… बच्चे की भागदौड़ में उनकी ओर ध्यान देना रह गया होगा, इसलिए परेशान होंगे सोचकर, उसने अनदेखा किया और फिर विचारों में उलझ गई…
पिछले कुछ दिनों में सुनैना की बहुत भागदौड़ हुई… नीला को घर लाने के बाद डॉक्टर और दादी पर सारा भार छोड़कर थोड़े आराम के लिए दो दिन सुनैना मायके गई… लेकिन उन दो दिनों में नीला को उसकी बहुत याद आ रही थी…
तीसरे दिन सुबह ही सुनैना वापस आई और फिर नीला की देखभाल करने के लिए तैयार हो गई… नीला को उसके आने से खुशी हुई… सुनैना को बगल में बिठाकर नीला ने पूछा… “माँ, सब कुछ ऐसे छोड़कर नहीं जा सकते ना…? जो बातें हुईं उन्हें बदला नहीं जा सकता लेकिन आने वाले भविष्य में भी कुछ बातें मेरे हाथ से निकल गईं तो…? मेरे एक प्रश्न से अनेक शाखाएँ फूट पड़ीं तो…?”
“मतलब?”
“मतलब बच्चे ने कभी अपने पापा के बारे में पूछा तो…? किस्मत ने सिर्फ़ मुझ पर ही नहीं बल्कि उस पर भी अन्याय किया है… जैसे मुझे मेरे बाबा का प्यार और स्नेह मिला, वैसे उर्वी को कभी नहीं मिलेगा…”
“मुझे पता था तुम्हें यह प्रश्न ज़रूर परेशान करेगा… तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर, है मेरे पास…”
ऐसा कहते हुए सुनैना नीचे गई… आते समय डॉक्टर और सुनैना कुछ कागज़ात हाथ में लिए हुए थे…
दोनों नीला के बगल में बैठते हुए उसका हाथ अपने हाथ में लेकर सुनैना बोली… “नीलू… मैंने तुम्हें जन्म नहीं दिया तो क्या हुआ… मन से, भावनाओं से मैं तुम्हारी माँ ही हूँ… तुमने मुझे माँ के रूप में स्वीकार किया यही मेरे जीवन का सबसे बड़ा दान भगवान ने मुझे दिया है… सिर्फ़ उसके लिए, तुम्हें अग्निपरीक्षा देनी पड़ी इसका अफ़सोस होता है… जो हुआ उसे भूल जाओ ऐसा हम कहें तो भी उसे भूला जाना संभव नहीं है इसकी पूरी जानकारी हमें है… और तुम्हारा भूतकाल मिटाने की शक्ति भी हममें नहीं है… लेकिन हाँ, यहाँ से आगे तुम अपना जीवन पहले जैसा जी सकोगी इसका विश्वास हम दिला सकते हैं…” ऐसा कहते हुए कुछ कागज़ सुनैना ने नीला को दिए…
दत्तक ग्रहण के कागज़ थे वे…
“मैं, नीला क्षेत्रे, उम्र (१८)… अपनी स्वेच्छा और सहमति से अपनी बेटी उर्वी को श्री. सुषेण क्षेत्रे और सौ. सुनैना क्षेत्रे को दत्तक दे रही हूँ… उनकी मेरी बेटी को पालने की आर्थिक, शारीरिक, मानसिक और सामाजिक पात्रता को ध्यान में रखते हुए मैं पूर्ण रूप से उर्वी को उनके हवाले कर रही हूँ।”
इस आशय के वे स्टाम्प पेपर थे… सुनैना ने बीच के समय में डॉक्टरों को समझाकर, तैयार करके सारी व्यवस्था कर ली थी… नीला के भूतकाल की परछाईं उसके भविष्य में बाधा या बंधन न बने इसलिए चारों ओर सोच-विचार करके सुनैना ने यह कदम उठाया था… डॉक्टरों ने भी उसका निर्णय स्वीकार करके नीला के उज्ज्वल भविष्य के लिए सुनैना के निर्णय को मज़बूत आधार दिया था…
सुनैना की ओर देखते हुए आँखों में अनेक प्रश्न और साथ में खुशी के आँसू लिए उसने कागज़ों पर हस्ताक्षर कर दिए… उसे विश्वास था कि उसके प्रश्नों के उत्तर सुनैना के पास ज़रूर होंगे… नीला को अब हल्का महसूस होने लगा था… कम से कम बच्चे के भविष्य की चिंता मिट गई थी… साथ ही नीला का जीवन वह अपनी इच्छा के अनुसार जी सकेगी…
पेपर्स लेकर डॉक्टर और सुनैना नीचे चले गए…
नीला के मन में रह गया था तो एक ही प्रश्न…
“मेरे साथ हुए अत्याचार, अन्याय का क्या…?”
अपराधी अपराध करके खुलेआम घूम रहा है… पाप करके भी उसे कोई पछतावा नहीं, यह चेतना नीला को परेशान कर रही थी… उसके साथ हुए अन्याय का गुस्सा उसे था ही लेकिन भाग्य का विसंगत न्याय उसे स्वीकार्य नहीं था…
मन बहलाने के लिए सामने का टीवी लगाते ही संयोग से समाचार चैनल लग गया, और पहली मुख्य ख़बर चमकी…
“देसाईनगर के इंजीनियरिंग कॉलेज के पास घने जंगल में एक छब्बीस वर्षीय सुरेश नामक व्यक्ति का शव क्षत-विक्षत अवस्था में मिला… कॉलेज के पिछले हिस्से में रहने वाले इस युवक को शायद किसी जंगली जानवर ने शिकार करके विकृत कर दिया है, ऐसे लक्षण सामने आए हैं…”
नीला दौड़कर खिड़की के पास जाकर सुनैना को खोजने लगी… नीचे बगीचे में सुनैना, सोलो और ब्लूम को नहलाते हुए उनके नाखून साफ़ कर रही थी… नीला की आहट लगते ही सुनैना ने ऊपर खिड़की में देखा…
दोनों की आँखों में संतोष की एक तीखी चमक थी…
(शब्द संख्या – ३९११)
प्रतिक्षा हरिपूरकर, पुणे,