यादगार सफ़र – नरेश वर्मा

देहरादून से चली बस चंडीगढ़ के बस अड्डे में प्रवेश कर चुकी थी ।अड्डे में बस के प्रवेश करने से पहले ही यात्री सीटों से खड़े होकर अपनी अटैचियाँ और सामान सँभालने लगे थे ।सब को हड़बड़ी है उतरने की।इसी हड़बड़ी के माहौल में कंचन ने भी अपना बड़ा सा पर्स सँभाला और ऊपर से बैग उतार कर नीचे उतर गई।देहरादून से चलते समय लगेज के नाम पर दो ही आइटम उसके पास थे और वो दोनों , पर्स और बैग उसने उतार लिये थे ।पूरे सफ़र में शांत बैठे यात्रियों को अचानक जाने क्या हो जाता है कि बस के अड्डे में घुसते ही उतरने की हाय तोबा मचाने लगते हैं ।इसी हड़बड़ाहट में कंचन भूल गई कि दो आइटम की गिनती में उसने पर्स को भी शामिल कर लिया है ।जबकि दूसरा आइटम कुछ और ही था जिसे उतारना वह भूल गई थी ।देहरादून से चलते समय इसके पास आइटम दो ही थे पर इसमें दूसरे आइटम के रूप में पर्स शामिल नहीं था ।किंतु अभी तक उसे अपनी भूल का अहसास नहीं हुआ था ।वह सहज भाव से बस अड्डे के निकासी द्वार तक आ गई ।बाहर खड़े रिक्शे से मोल-भाव किया और बढ़ चली अपने गंतव्य सेक्टर-३२ की ओर ।

   छ: महीने पहले ही शादी (1991 ) के बाद कंचन देहरादून से चंडीगढ़ आई गई थी।अभी पूरी तौर से वह चंडीगढ़ को आत्मसात् नहीं कर पाई थी । उसके सपनों में अभी भी देहरादून की पहाड़ियाँ और उसके घर की छत से रात में दिखतीं मसूरी की झिलमिलाती रोशनियाँ बसी थीं।कहावत है कि यदि गाय का खूँटा बदल जाए तो वह रात भर रंभाती है पर यहाँ तो पूरा तबेला ही बदल गया था ।किंतु यह भी सच है कि स्त्री उस जल के समान है जो स्वयं को जल्द ही पात्र के अनुरूप ढाल लेती है ।

 उस दिन कंचन सुबह जब घर की साफ़ सफ़ाई कर रही थी तो उसने देखा कि उसकी सैंडिल के ऊपर दूसरी सैंडिल चढ़ी है , मम्मी कहती हैं कि जब जूते पर जूता चढ़े तो यात्रा का योग बनता है।और उस दिन संयोग से यात्रा का योग बन ही गया था।उसकी पक्की सहेली रश्मि की शादी का निमंत्रण कार्ड कूरियर से आया था ।शाम को एस टी डी पर रश्मि का फ़ोन भी आ गया कि कोई न-नुकुर नहीं चलेगी, तैयारी कर लो ,आना ही है ।

 अंधा क्या माँगे ?- दो आँखें ।उसी शाम कंचन ने पति से ,सहेली की देहरादून में शादी की चर्चा की और साथ ही चलने की मनुहार भी की।किंतु पति जी ने उन दिनों आफिस में चल रहे ऑडिट के कारण स्वयं के जाने में असमर्थता जतलाई पर उसके जाने में पति को कोई एतराज़ नहीं था ।ऊपरी तौर पर उसने पति के न जा पाने पर दुखी मुद्रा का इज़हार किया पर अंदर ही अंदर वह खुश थी।अब वह स्वच्छंद रूप से सहेलियों के साथ मस्ती कर सकेगी और शादी के बहाने मम्मी-पापा के पास भी रह लेगी।यहाँ सब से बड़ी बात यह थी कि उसे शादी की कोई तैयारी भी नहीं करनी थी।उसके शादी के टाइम की नई ड्रेसों की तो अभी तक तह भी नहीं खुली थी।नये कपड़े हैं नये ज़ेवर हैं, शादी के लिए और क्या चाहिए ।




  पति जी ने इतना तकल्लुफ़ अवश्य किया कि उसे देहरादून की बस में चढ़ा देवदास वाली मुद्रा में बाय -बाय कहके विदा ही नहीं किया बल्कि विस्तृत निर्देश भी दिए ….अटैची का ध्यान रखना ( फुसफुसाते हुए..इसमें ज़ेवर हैं ) ।आजकल ऐसे-ऐसे शातिर हैं कि बाहर से अटैची साबुत पर अंदर का माल-मत्ता ग़ायब ।किसी पर ज़रा भी विश्वास नहीं करना ।पहुँचते ही ,फ़ोन द्वारा इत्तिला देना …आदि-आदि।बैसे मेरे घर में तो मम्मी ही प्रायः पापा को हिदायतें देती हैं…..पर शुरू शुरू में सब चलता है।

      तीन-चार दिन देहरादून में कब और कैसे गुजर गए पता ही नहीं चला ।सारी पुरानी सहेलियाँ मिली …मस्तियाँ हुईं ..शिकवे- शिकायतें हुईं ।शादी वाले दिन उसकी कांजीवरम की साड़ी पर झिलमिल करता सोने का हार ,सहेलियों में डाह पैदा कर रहा था।

साड़ी और हार से अचानक उसे अटैची का ख़्याल आया।उसने तुरंत रिक्शे के पीछे जहाँ लगेज रखा था ,पलटकर देखा।वहाँ कोई अटैची नहीं थी।पेट में भय की हौल लेती लहर सी डोल गई ….।”भइया रिक्शा रोको , तुमने मेरी अटैची कहीं गिरा दी है ।”-कंचन ने चीखते हुए कहा ।

 “ कैसी बात करती हैं आप मैडम ? आपके पास तो कोई अटैची थी ही नहीं ।आप तो बस एक बैग लेकर ही चढ़ी थीं ।”- बुजुर्ग रिक्शे वाले ने अपनी बात रखते कहा।

 “ पर देहरादून से चलते समय मेरे पास अटैची थी ,मुझे अच्छे से याद है।”-कंचन ने भय मिश्रित शंका से कहा ।

 “ मैडम जी , मैं कब मना करता हूँ कि आपके पास अटैची नहीं थी …. पर रिक्शे पर चढ़ते समय आपके पास कोई अटैची नहीं थी।मुझे बहुत अच्छे से याद है।…हो सकता है कि आप जिस बस से आईं उसी में भूल आई हों ।आप बस अड्डे जाकर पता करें।”

 वह मोबाइल का जमाना नहीं था ।ऐसे में किसी को मदद के लिए भी नहीं बुलाया जा सकता था।अटैची में महँगी साड़ियाँ ही नहीं शादी के ज़ेवर भी थे।जो भी करना है उसे ही करना होगा ।पर समस्या थी कि न तो उसे बस का नंबर पता था और न ही ड्राइवर का  कोई हुलिया ।ऐसे छूटे सामान के मिलने की संभावना नगण्य ही होती है किंतु ऐसे हाथ पर हाथ धरके भी नहीं बैठा जा सकता

 “ भइया रिक्शा वापिस बस अड्डे ले चलो ।”- कंचन ने अधीरता से रिक्शे वाले को कहा ।

   रिक्शा में शंका-आशंकाओं के झूले में डोलती वह , राम जी , शिवजी ,बजरंग बली का स्मरण करती उस अटैची के खोजी अभियान पर निकली थी जिसका कोई ठोस सूत्र उसके पास नहीं था ।बस अड्डा आ गया था…पौंऽऽ पौं ऽऽ पीं..पीं के शोर में बसें आ जा रही थीं।बसों की ऐसी भीड़ में वह उस बस को कहाँ ढूँढे जिसमें वह देहरादून से आई थी ? उसने पास से ही ड्राइवर की ड्रेस में गुजरते आदमी से पूछा ।उस आदमी ने कहा कि उसे नहीं पता पर उसने कंचन को इन्क्वायरी से पता करने की सलाह अवश्य दी।कंचन धड़कते दिल से कुछ दूरी पर बने खोखे नुमा इन्क्वायरी पर पहुँची , खिड़की से मुँह सटा कर उसने पूछा-“ भइया जी कुछ समय पहले देहरादून से बस आई थी , उसमें मेरी अटैची छूट गई थी ।वह बस कहाँ मिलेगी ?”




खिड़की के पीछे से आदमी ने उसे चश्में से घूरते हुए कहा -“ वह बस तो डिपो में चली गई ।आप डिपो में जाकर पता करें ।”

 “ यह डिपो कहाँ है ? “- कंचन ने पूछा ।

 “ यदि बस सी॰टी ॰यू की थी तो चंडीगढ़ डिपो में मिलेगी और यदि हरियाणा रोडवेज़ की रही होगी तो हरियाणा डिपो में ढूँढे।”

    एक और कन्फ्यूजन खड़ा हो गया था ।किसे पता होता है कि बस किस डिपो की है ,जो उसे पता होगा ।बैसे भी चंडीगढ़ उसके लिए नया है ।कंचन को समझ आ गया कि यह सब अकेले उसके बस का नहीं है ।उसे कोई हेल्प लेनी ही होगी ।अब जो भी होगा देखा जाएगा ।वह बस अड्डे के बाहर आई, रिक्शा पकड़ा और चल दी अपने घर की ओर ।

 कंचन को पता था कि घर पर इस समय कोई नहीं मिलेगा, पति तो ऑफिस में होंगे ।एक बार उसके मन में आया कि क्यों न सीधे पति के ऑफिस में चला जाए।किंतु इसमें ज़्यादा ही नाटक होने की संभावना है ।एक तो सारे ऑफिस में उसकी बेवक़ूफ़ाना हरकत  का ढोल पिट जाएगा ।ऊपर से हुए नुक़सान पर पति का क्रोध भरा भाषण सुनना होगा।यद्यपि देर- सबेर तो यह होना ही है ।

 उसका अपार्टमेंट आ गया था ।वह अपना बैग आदि रिक्शे से उतार ही रही थी कि पीछे से आवाज़ आई-“ देहरादून घूम आई बेटी

उसने मुड़ कर देखा कि ग्रोवर अंकल ,हँसते हुए पूछ रहे थे ।ग्रोवर अंकल उसके श्वसुर के मित्र रहे हैं और पास के ही अपार्टमेंट में रिटायरमेंट लाइफ़ गुज़ार रहे हैं ।अंकल रिक्शे के पास आ गये और सामान उतारने में मदद करने लगे ।

अचानक अंकल ने उसके चेहरे को गौर से देखते हुए कहा-“ क्या बात है बेटी, तू बड़ी उदास लग रही है ।”

 इतनी देर से परेशान और आत्म प्रताड़ना से भरा बाँध तनिक सी सहानुभूति से फूट पड़ा ।वह फफक-फफक कर रो पड़ी ।

“ न बेटी न , ऐसे नहीं रोते ,मेहता जी नहीं हैं तो क्या हुआ, मेहता का यार तेरा ग्रोवर अंकल तो है।मुझे बता क्या बात है।”

 कंचन ने विस्तार से पूरा मामला अंकल जी को बतला दिया। सुन कर कुछ क्षण को ग्रोवर जी सोच में पड़ गए, पर तुरंत ही बोले -“ तब तक तू सामान घर में रख , मैं तेरी आन्टी को बोल कर अपना स्कूटर ले कर आता हूँ । हमें इसमें देर नहीं करना है तुरंत डिपो चलना होगा ।”

 निर्णय लिया गया कि पहले चंडीगढ़ डिपो चलते हैं।कंचन ,अंकल के स्कूटर के पीछे बैठ गई ।रास्ते भर अंकल उसे हौसला देते हुए कहते रहे कि सच्चे इंसान की ईश्वर सदैव मदद करता है।तेरी अभी उम्र ही क्या है।बड़ी उम्र के लोगों से भी बड़ी बड़ी भूलें हो जाती हैं ।अपने को ज़रा भी दोषी मत मान।ईश्वर चाहेगा तो सब ठीक होगा ।

 चंडीगढ़ बस डिपो के फाटक पर ग्रोवर अंकल ने स्कूटर रोक दिया।फाटक के अंदर एक कोने में स्कूटर खड़ा करके ग्रोवर जी ने डिपो का सर्वे किया।इस समय तक शाम का धुँधलका घिर आया था । दो मेकैनिक से लगते आदमी किसी बस की पुरानी सीट पर बैठे बतिया रहे थे ।एक महिला और एक बुजुर्ग को डिपो में आते देख दोनों उन्हें प्रश्न वाचक नज़रों से देखने लगे।ग्रोवर जी ने उन आदमियों से देहरादून से आई बस और उसमें छूटी अटैची का पूरा वाक़या बता कर , बस और अटैची के विषय में पूछा ।इस पर उन लोगों ने कहा कि उन्हें तो इस बारे में कोई जानकारी नहीं है ,हम तो मेकैनिक हैं ।साथ ही उन्होंने कहा कि इस विषय में यदि कोई कुछ बता सकता है तो वह सरदार मक्खन सिंह जी हैं ।




 डिपो में ही कुछ दूरी पर एक कमरा था ।कमरे के आगे स्टील की एक डबल डेकर टाइप की बड़ी सी बेंच पड़ी थी ।उस बेंच पर एक पकी दाड़ी वाले सरदार जी लेटे थे।यही मक्खन सिंह थे।दो लोगों को अपनी ओर आते देख सरदार जी उठ कर बैठ गये थे ।

ग्रोवर जी ने पास जा कर सत् श्री अकाल कह कर वार्ता आरंभ की -“ सरदार जी , यह बिटिया देहरादून से सुबह आठ बजे चंडीगढ़ के लिए चलने वाली बस से आई थी।असावधानी वश इसकी अटैची बस में ही छूट गई थी ।हम लोग उसी अटैची के बाबत जानकारी करने आये हैं ।”

  मक्खन सिंह जी ने कंचन का सिर से लेकर पैर तक का निरीक्षण किया तत्पश्चात् सामने पड़ी एक टूटी सी कुर्सी पर ग्रोवर जी को बैठने का इशारा करते पूछा- कौन से मेक की अटैची थी और किस रंग की थी ?”

“ वी आई पी की ग्रे रंग की बाइस इंच वाली अटैची थी ।”- कंचन ने एक साँस में उत्तर दिया ।

 हूँ ऽऽ…. सरदार जी कुछ क्षण को रुके , फिर हाथ बढ़ा कर उपर बेंच पर रखी चौकोर सी चीज़ से कपड़ा हटा कर पूछा-“ क्या यही है तुम्हारी अटैची ? “

 अब तक अटकी साँस जैसे खुल गई हो , ख़ुशी के मारे आँसू छलछला आये -“ हाँ यही है मेरी अटैची ऽऽ ।

ग्रोवर जी ने आकाश की ओर हाथ उठा कर ईश्वर को नमन किया।ग्रोवर जी को तो अटैची के मिलने की तनिक भी आशा नहीं थी।

किंतु संसार चल रहा है क्योंकि अभी संसार में ईमानदारी जीवित है ।

 मक्खन सिंह जी ने कहा-“ माना कि यह अटैची तुम्हारी है , किंतु तुम्हें यह आज मिल नहीं पायेगी ।यह रजिस्टर पर चढ़ गई है ।आप लोग कल दो गवाहों के साथ आयें तब ही आपको मिल सकेगी।………….

 पाँच महीने बाद , कंचन रक्षा बंधन पर फिर देहरादून जा रही है।पति की व्यस्तता के चलते इस बार भी वह अकेली ही जा रही है।

  हाँ जी हाँ, साथ में एक वी आई पी , ग्रे रंग की , अटैची भी है…………।

                                           ****समाप्त****

                                                                                      लेखक-नरेश वर्मा

                                                                                    (स्वरचित कहानी)

 

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