वसीयत – बेला पुनिवाला

    हां, तो दोस्तों, आज मैं आपको एक ऐसी कहानी सुनाने जा रही हूँ, जिसने अपने बेटी और बेटों में फ़र्क ना किया, लोगो की बातों को अनदेखा कर अपनी बेटी को भी वही हक़ दिए, जो एक बेटे को मिलते है, अब आगे… 

           एक गांव में किशोरीलाल का परिवार रहता था, जो गांव के बड़े ज़मींदार थे, उनकी गांव में बड़ी हवेली थी, सब उनको बहुत मानते थे, हर कोई उनकी सलाह और मदद के लिए आते रहते थे, वह किसी को भी किसी बात के लिए मना नहीं कर पाते थे, उनका दिल बहुत बड़ा था। उनके घर उनके साथ उनके बा-बापूजी, उनकी पत्नी पदमा, उनके दो जुड़वाँ बेटे और दो जुड़वाँ बेटियां थी।किशोरीलाल बहुत खुले विचारों के थे, वे नए ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाने में मानते थे, पुराने रस्मों-रिवाज़ों को वह बदलना चाहते थे और वे जानते थे, कि अगर गांव में कुछ बदलाव लाना है, तो शुरुआत अपने घर से ही होनी चाहिए।

        एक बार गांव के एक मजदुर जिनका नाम मोहन था, वह किशोरीलाल के पास आकर रोने लगा और उसने कहा, कि सरकार अब हमारे माई-बाप आप ही हो।  हम तो लूट गए, बर्बाद हो गए।

किशोरीलाल : रोना बंद करो, बात क्या है ? ये तो बताओ। मोहन ने कहा, जी आप तो जानते ही है, कि मेरी एक बड़ी बेटी और दूसरा छोटा बेटा है।  बेटी की उम्र शादी की हो गई है, मगर लड़केवाले दहेज़ बहुत ज़्यादा माँग रहे है, इसलिए अब तक वह घर पर ही है और मेरा बेटा, जिसको मैंने कर्ज़ा लेकर पढ़ाया-लिखाया, अब वह  नौकरी के लिए बड़े शहर चला गया, वहां पे उसने हमें बिना बताए शादी कर ली, अपना घर भी ले लिया। अब वह ना तो यहाँ आने के बारे में सोचता है और नाही पैसे भेजता है, पहले तो वह पैसे भेजता था, फ़ोन भी करता था, मगर अब तो उसकी कोई खबर नहीं, मैंने उसको बड़े शहर भेजने के लिए अपना घर भी गिरवी ऱख दिया है, उसकी माँ आज-कल बहुत बीमार रहती है, मेरी बेटी उसकी सेवा करती है, लेकिन उसे तो एक बार अपने बेटे को देखना है, रो-रो के अपना बुरा हाल कर दिया है उसने। रोज़ उसके बेटे के वापस लौटने का इंतज़ार करती है, मगर मुझे पता है, अब वह वापस नहीं आनेवाला।  अब आप ही बताओ सरकार हम गरीब क्या करे ? कहाँ जाए ? मेरी बीवी की बीमारी में सारे पैसे खर्च हो गए। कर्ज़ा कहाँ से चुकाए ? 

        किशोरीलालने कहा, हहममम, तो ये बात है।  अच्छा बताओ, तुम्हारी बेटी क्या करती है। 

मोहन : क्या करेगी मेरी बेटी, उसकी माँ, बीमार है, तो घर का सारा काम वही संभालती है और माँ की सेवा भी वही करती है, आसपास के घर में अब बर्तन धोने का काम  करती है, ताकि कुछ पैसे मिल जाए। और तो क्या ? मगर इतने पैसो में मेरा कर्ज़ा थोड़ा पूरा होगा ? उतने पैसो में सिर्फ़ दो वक़्त की रोटी मिल जाए, तो भी बहुत है। 

किशोरीलाल : याद है मोहन, आज से 18 साल पहले तुम मेरे पास अपने बेटे की स्कूल फीस के पैसे लेने आए थे, जो कुछ वक़्त के बाद तुमने मुझे लौटा भी दिए थे। उस वक़्त पैसे देते वक़्त मैंने तुम से कुछ और भी कहाँ था ? याद है तुम्हें ? ज़रा याद करने की कोशिश करो। 



मोहन : इतने साल पहले आपने मुझे क्या कहा था ? 

( थोड़ी देर सोचने के बाद ) हां, सरकार याद आया, तब आपने मुझे कहाँ था, कि बेटे के साथ-साथ अपनी बेटी का भी स्कूल में दाखिला करा दो। मगर उस बात से इस बात का क्या लेना-देना ? 

किशोरीलाल : लेना-देना है, मोहन, तुम अब भी समझे नहीं। अगर उस वक़्त तुमने अपने बेटे के साथ-साथ अपनी बेटी को भी पढ़ाया-लिखाया होता, तो आज वह भी अच्छे से नौकरी करती, उसे दूसरों के घर बर्तन धोने नहीं जाना पड़ता और वह तुम्हारी बीवी का भी ख्याल रखती और तुम्हारा घर भी जो गिरवी रखा है, वह छुड़ा लेती और तुम्हारा कर्ज़ा भी चूका देती। तुमने तुम्हारे बेटे के पीछे इतना पैसा ख़र्च किया, किस काम का ? वो तो गया। अब तुम ही सोचो, आज तुम्हारे बुरे वक़्त में तुम्हारे पास कौन है ? बेटा ये बेटी ? बेटी भले चाहे जैसी भी है, उस से जितना भी हो सकता है, वह तुम दोनों का ख्याल तो रखती है ना ! 

       किशोरीलाल की बातें सुन  मोहन की आँखों में आँसू आ गए। 

मोहन : हाँ, सरकार ! आपने ठीक कहाँ, शायद  मैंने आपकी बात मान ली होती, तो आज मेरी बेटी भी पढ़-लिख कर अपने पैरों पे खड़ी होती, पैसों के लिए उसे कभी किसी के पास हाथ फ़ैलाने नहीं पड़ते। मगर अब क्या ? 

किशोरीलाल : अब तुम ऐसा करो, अपने बेटे को एक चिठ्ठी लिखो, उस में लिखो, कि तुम्हारी माँ चल बसी है और उसने अपने गहने और ये घर तुम्हारे नाम करने को कहा था। अगर तुम्हें तुम्हारा हिस्सा चाहिए तो आज रात तक आ जाना, कल तुम्हारी माँ को अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जाएगा। अगर तुम्हारे पास वक़्त हो, तो आ जाना। 

मोहन : ऐसा कैसे लिख सकता हूँ ? अभी तो मेरी बीवी ज़िंदा है। 



किशोरीलाल : मेरी बात पे यकीं करो, पैसो का लालच होगा, तो वह आज रात तक घर आ ही जाएगा। तुम्हें उसके बाद क्या करना है, वह मैं तुम्हें बाद में बताता हूँ।  मेरी बेटी के पास तुम चिठ्ठी लिखवा दो। 

        मोहन ने बिलकुल वैसा ही किया, जैसा किशोरीलाल ने कहा। घर जाकर मोहन ने सारी बात अपनी बीवी को भी बताई, उसकी बीवी को भी लगा, कि शायद हमने अपनी बेटी को भी पढ़ाया होता, तो आज वही हमारे काम आती, दुनिया की बातों में आकर हमने उसे घर पे बैठाए रखा।  मगर अब जो हो गया, सो हो गया।  क्या कर सकते है ? रात तक का इंतज़ार, वह नालायक आता है, या नहीं, देखते है। 

       रात होने से पहले ही उसका बेटा-बहु और उसके साथ उसका छोटा मुन्ना भी आया। मुन्ने को देख कर माँ तो ख़ुशी से फूली नहीं समाई, लेकिन उसने अपने आप को सँभाला।  अपने बेटे से नाराज़ होने का दिखावा किया।  

        उसके बेटे ने कहा, ये क्या बाबा, माँ तो ज़िंदा है, आपने झूठ बोल कर हमें यहाँ बुलाया। ऐसा करते हुए आपको शर्म नहीं आई ? तभी पीछे से किशोरीलाल आए, ये सुन कर किशोरीलालने मोहन के बेटे को ( जिसका नाम सुनील था ) अपनी ओर घुमाया, और ज़ोर से एक थप्पड़ उसके गालो पे लगा दिया।  

किशोरीलाल : नालायक, शर्म तुझे आनी चाहिए, जिस माँ-बाबा ने तुझे पढ़ाया-लिखाया तुझे इस काबिल बनाया, कि तू बड़े शहर जाके बड़ा आदमी बने, खुद भूखे पेट सो के तुझे खिलाया, तू उसी माँ-बाबा के एहसानो को भूल गया ? तू अपनी बीमार माँ को देखने तो कभी नहीं आया, आज पैसो की ख़ातिर उसकी मौत की खबर सुन भागा चला आया, अब सच-सच बता दे, आज तू माँ को देखने आया है या उसके गहने लेने ? अगर माँ तुझे कुछ नहीं देती, तो क्या तू उसके मरने पे आता ? नहीं ना ? आज मेरी एक बात कान खोलकर सुन ले, अब तक तेरे बाबा ने तुम्हारे पीछे जितना भी पैसा ख़र्च किया है, वह तू सूत समेत वापस करेगा।  घर गिरवी रखा है, वह भी छुड़ाएगा, बाबा का कर्ज़ा भी चुकाएगा। बहन की शादी भी करवाएगा। जब तक तू ये सब नहीं करेगा तब तक तेरा ये बेटा मेरे पास रहेगा।  तभी तुझे और तेरी बीवी को पता चलेगा, कि बेटा दूर होता है, तो उसे कैसा लगता है ? 



        किशोरीलाल बहुत गुस्से में थे, उसकी बात सुन कुछ देर के लिए सब चुप रह गए। कुछ देर बाद सुनील का बेटा मुन्ना अपनी माँ से पूछता है, माँ ये अगर पापा के मम्मी-पापा है, तो ये मेरे दादा-दादी हुए ना ? ऐसा किताब में पढ़ा था, की पापा के मम्मी-पापा को दादा-दादी कहते है, मगर मैंने तो आज तक उन्हें कभी नहीं देखा। क्या दादा-दादी ऐसे होते है। तो हम उनके साथ क्यों नहीं रहते ? मेरे दोस्तों के दादा-दादी तो उनके साथ ही रहते है।  क्या मैं भी शादी के बाद आप के पास नहीं रहूँगा ? किसी के पास मुन्ने के सवाल का कोई जवाब नहीं था। 

      छोटे से बच्चे के सवाल ने सब को हिला दिया। मोहन के बेटे को उसकी गलती का एहसास हो गया।किशोरीलाल की बात सुनते ही मोहन का बेटा उस से और अपने माँ-बाबा से माफ़ी मांगने लगा, और कहा, कि में सब कर्ज़ा चूका दूँगा, मगर मेरे बेटे को हम से दूर मत करो।  मैं समझ गया, आप क्या कहना चाहते है, मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई। अब ऐसा दुबारा कभी नहीं होगा, मैं हर महीने बाबा और माँ को पैसे भी भेज दूँगा। ये  घर तो मैं आज ही छुड़ा लूँगा, उतने पैसे तो मेरे पास है। दीदी की शादी भी अच्छे से घर में हो जाएगी। आप फ़िक्र मत कीजिए, अगर अब की बार ऐसा नहीं किया, तो बेसक आप मेरे बेटे को अपने पास ऱख लेना। 

         मोहन के बेटे ने सब कुछ वैसा ही किया जैसा उसने कहा था और कुछ ही महीनों के बाद मोहन के बेटे ने उसके माँ और बाबा को अपने शहर अपने घर अपने साथ रहने के लिए बुला लिया। गांव का पुराना घर बेचकर उसने शहर में नया घर ले लिया। अब नए घर में सब साथ में रहते है। मोहन के बेटे का बेटा भी बहुत ख़ुश था। उसे अपने दादा-दादी मिल गए थे, जो उसे रोज़ कहानियां सुनाते और उसके साथ कान्हाजी की लीला की बातें करते, ये सुन उनका पोता बड़ा खुश हो जाता, मुन्ना अपने दादा-दादी के साथ रोज़ मंदिर भी जाता। मोहन ने इस बात के लिए किशोरीलाल को बहुत-बहुत धन्यवाद कहा। 

          उस तरफ़ किशोरीलाल ने अपने दोनों बेटों के साथ दोनों बेटी को भी पढ़ाया-लिखाया, अपने बेटों के समान हक़ अपनी बेटी को भी दिए, जितना हिस्सा अपनी जायदाद में से बेटों का था, उतना हिस्सा ही बेटियों के नाम किया। अपना घर उन्होंने अपनी बीवी के नाम कर दिया, ताकि कल को अगर उसे कुछ हो जाए, तो जायदाद के बहाने भी बच्चों को अपनी माँ को अपने साथ ऱखना ही पड़ेगा, ताकि उसके जाने के बाद उसकी बीवी को कोई तकलीफ न हो। ज़िंदगी कब अपना रुख़ बदल दे, और कौन-कब बदल जाए, ये पता नहीं चलता। 

        आख़िर एक दिन अचानक किशोरीलाल की तबियत अचानक बिगड़ गई और वह चल बसे। बच्चों ने उनका अच्छे से क्रिया-कर्म किया। किशोरीलाल की एक बेटी वकील थी, तो उस से सलाह-मसवरा कर के  किशोरीलालने पहले से ही जायदाद के पेपर्स अपनी बेटी के पास बनवा दिए थे। लेकिन घर के कागज़ात  किसी को नहीं दिखाए थे, किशोरीलाल की बीवी देखना चाहती थी, अब मुझे कौन अपने पास रखता है, यही उसे देखना था। 

       कुछ ही दिनों में  उनके दोनों बेटे ज़ायदाद में से अपना हिस्सा माँगने लगे मगर कोई माँ को अपने साथ रखने के बारे में नहीं सोचता था। दोनों बेटे एक-एक कर के अपना हिस्सा लेकर गांव छोड़कर शहर चले गए, अपनी माँ के बारे में किसी ने नहीं सोचा, दूसरी बेटी की शादी उसी गांव में हुई थी, मगर उसके सास-ससुर कोई नहीं था, इसलिए वह अपने पति और बच्चों के साथ माँ के पास रहने आ गई। वह माँ की सेवा भी करती, घर भी सँभालती और वह डॉक्टर थी, तो अपना क्लिनिक भी सँभालती। बेटो के ये पता ही नहीं था, कि उनकी सबसे बड़ी ज़ायदाद तो वे अपने घर ही छोड़ आए थे, वह थी, उनकी ” माँ ” 

        तो दोस्तों, सोचो अगर किशोरीलाल ने भी अपनी बेटी को पढ़ाया-लिखाया नहीं होता, तो आज उनकी बीवी इस दुनिया में बहुत अकेली हो जाती। बेटे कब अपना रंग बदल दे, पता नहीं चलता। माना की सब बच्चे ऐसे नहीं होते मगर हम पहले से अपने लिए कुछ सोच के रखे, तो हमारी बाकि ज़िंदगी बहुत आसान हो जाती है। 

बेला पुनिवाला

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